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सरकारी सिस्टम से हारी बेबस-लाचार मां, बेटे के इलाज के लिए दफ्तर-दफ्तर दे रही दस्तक

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Published : Oct 2, 2019, 7:46 PM IST

आमतौर पर हर मां बाप की इच्छा होती है कि उसके बच्चे बुढ़ापे की लाठी बने, लेकिन इसके उलट लापरवाह और संवेदनहीन सिस्टम के पैरों तले रौंदी जा रही एक बूढ़ी और बेबस मां बेटे की ही लाठी बन चुकी है. पिछले चार महीने से बेटे को लेकर भटक रही मां को ये तक नहीं पता कि उसके बेटे का मर्ज क्या है.

बेबस-लाचार मां

अशोकनगर। कोई भी सरकार जनता के हित के लिए भले ही कितनी भी योजनाएं शुरू कर दे, पर असल में उन योजनाओं का दम निचले स्तर तक आते-आते निकल ही जाता है. सरकारी सिस्टम की दम तोड़ती ये तस्वीर बयां करती है कि किस तरह एक असहाय मां अपने बेसुध और लाचार कलेजे के टुकड़े को लेकर कभी अस्पताल, कभी राजधानी भोपाल तो कभी कलेक्टर की चौखट पर नाक रगड़ रही है. इस मां की बस एक ही गुहार है कि उसके बेटे का इलाज हो जाये.

बेबस-लाचार मां


50 वर्षीय रधिया आदिवासी का 21 वर्षीय बेटा वीरन अदिवासी 4 माह पहले किसी वाहन से गिरकर घायल हो गया था. डॉक्टरों ने उस वक़्त उसे इलाज के लिए भोपाल रेफर कर दिया था. तब से ही रधिया की समस्याएं शुरू हो गईं. भोपाल के डॉक्टरों ने कुछ दिन इलाज कर वीरन को वापस जिला अस्पताल भेज दिया. वापस आने पर जिला अस्पताल में घायल वीरन को घर जाने की सलाह दे दी गयी, जबकि घायल वीरन की हालत में बिल्कुल भी सुधार नहीं हुआ था. एक मां जो कर सकती थी उसने किया. अपने पास से जमीन आदि बेचकर जैसे तैसे रधिया अपने बेटे का इलाज कराने कोटा ले गयी. वहां भी स्थिति में सुधार नहीं होने पर वह वापस जिला अस्पताल लेकर पहुंची तो सिर्फ दवा देकर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. आखिर थक हारकर असहाय मां ने कलेक्टर से गुहार लगाई. पर उसकी दुखती रग पर कलेक्टर साहब भी कोई मरहम न लगा सके.


जिला अस्पताल के मुख्य द्वार पर सरकारी सिस्टम में पिसती महिला सरकारी योजनाओं की हकीकत बयां कर रही है, डॉक्टर भी खामोश हैं और बेबस मां अपने बेटे को लिए इधर से उधर भटक रही है, ताकि कोई तो उसके दर्द का मरहम उपलब्ध करा दे, लेकिन संवेदनहीन दुनिया में इंसानों की कद्र ही कहां हैं, फिर भी वह इस बेदिल दुनिया से आस लगाये बैठी है.

Intro:अशोकनगर. कोई भी सरकार जनता के हित के लिए भले ही कितनी भी योजनाएं शुरू कर दे लेकिन असल मे तो उन योजनाओं का दम निचले स्तर तक आते आते निकल ही जाता है. सरकारी सितम की दम तोड़ती तस्वीर दिखायेगे.की किस तरह एक असहाय माँ अपने बेसुध और लाचार कलेजे के टुकड़े तो लेकर कभी अस्पताल,कभी प्रदेश की राजधानी तो कभी फिर से जिले के मुखिया कलेक्टर के दरवाजे पर भटक रही है.इस मां की बस एक ही गुहार है कि उसके बेटे का इलाज हो जाये ताकि अपने कलेजे के टुकड़े तो इस तरह लाचार लेकर न घूमना पड़े.

Body:50 वर्षीय रधिया आदिवासी, रधिया का 21 वर्षीय बेटा वीरन अदिवासी4 माह पहले किसी वाहन से गिरकर घायल हो गया था. डॉक्टरों ने उन वक़्त उसे इलाज के लिए भोपाल रेफेर कर दिया था. तब से ही रधिया की समस्याएं शुरू हो गईं.भोपाल के डॉक्टरों ने कुछ दिन इलाज कर वीरन को वापस जिला अस्पताल भेज दिया. वापस आने पर जिला अस्पताल में घायल वीरन को घर जाने की सलाह दे दी गयी. जबकि घायल वीरन की हालत में बिल्कुल भी सुधार नही हुआ था. एक मां जो कर सकती थी उनमे किया.अपने पास से जमीन आदि बेचकर जैसे तैसे रधिया अपने बेटे को लेकर कोटा इलाज कराने ले गयी.वहां भी स्थिति में सुधार न होने पर वह वापस जिला अस्पताल लेकर पहुंची तो सिर्फ दवाई देकर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. आखिर तक हारकर असहाय माँ कलेक्टर से गुहार लगाने पहुंची. 4 लोगों को साथ लेकर जैसे तैसे हाथों में लेकर बेसुध,लाचार और अपंग बेटे और मां को कलेक्ट्रेट से भी कोई विशेष सहायता नही मिली.वहां एक सरकारी मुलाजिम ने स्वास्थ्य अधिकारी से सम्पर्क करने की खानापूर्ति तो की लेकिन उससे हल कुछ नही निकल और फिर शुरू हुआ सिलसिला रधिया के परेशानी भरे सफर का.मां बेटे को फिर से जिला अस्पताल का रास्ता दिखा दिया गया. एक बेबस वृद्ध महिला लगातार सिस्टम की अनदेखी और संवेदनहीनता का शिकार होती रही और उसे किसी प्रकार की कोई मदद नही मिली. जिला अस्पताल के मुख्य द्वार पर जमीन पर सिस्टम की हकीकत बयान करती मां अपने बेटे के सही होने,उसके उचित इलाज के इन्तेजार में बैठी रही. डॉक्टरों से भी कोई संतुष्टिजनक जवाब नही मिला. बस मिला तो यहां से वहां भटकना. इस बीच न तो कोई जिम्मेदार उससे मिलने आया न ही उसकी सुध लेने ही किसी अधिकारी ने उचित समझा.एक वृद्ध माँ कमजोर दम तोड़ते सिस्टम के लचर व्यस्था से लड़ती और स्वास्थ्य विभाग की अनदेखी और संवेदनहीनता के बीच पिसती रही.इस बीच पथराई नजरों से बस यही सवाल रधिया पूछती रही कि क्या उसका गुनाह गरीब ही है या फिर आदिवासी होना उसकी गलती है। रधिया की कातर निगाहें तलाश रही तो बस एक मददगार जो उसकी वेदना को समझ सके और उसके धीरे धीरे दम तोड़ते कलेजे के टुकड़े को उचित इलाज मुहैया करा सके.इस बीच स्वास्थ्य विभाग के जिम्मेदार कुछ भी कहने से बचते दिखे.
Conclusion:आमतौर पर हर मां बाप की इच्छा होती है कि उनके बुढ़ापे की लाठी बने लेकिन इसके उलट लापरवाह और संवेदनहीन सिस्टम के पैरो तले एक बूढ़ी और बेबस मां के सपने रौंदे जा रहे हैं. 4 महीने से बेटे को कुछ लोगों के सहारे लेकर भटक रही मां को यह तक नही पता कि उसके बेटे को क्या बीमारी है. कलेजे का टुकड़ा लाचार और अपंग,शारीरिक रूप से पूर्णतः अक्षम,और माँ भी जैसे तैसे उसे लेकर यहां से वहां भटकने को मजबूर हो रही है.
बाइट रधिया आदिवासी, मरीज की मां
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