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ब्रिटिश शासन के दौरान इन फाउंड्रियों में बनाया जाता था लोहा

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Published : Apr 29, 2019, 11:36 AM IST

Updated : Apr 29, 2019, 12:09 PM IST

सन् 1858 में नैनीताल के कालाढूंगी में डेविड एंड कंपनी ने अपनी उत्तर भारत की सबसे बड़ी आयरन फाउंड्री की स्थापना की. फैक्ट्री स्थापित होने पर कालाढूंगी के करीब ढाई सौ परिवारों को रोजगार मिला.

उत्तर भारत की पहली लोहा फैक्ट्री

हल्द्वानी: शायद बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि कुमाऊं में पत्थरों से कभी लोहा भी बनाया जाता था. ब्रिटिश हुकूमत ने उस वक्त आयरन फाउंड्री यानि (लोहे की भट्ठी) को स्थापित कर कई लोहे के पुलों और रेल लाइन का निर्माण किया था. जिससे क्षेत्र के करीब ढाई सौ परिवारों को रोजगार मिलता था. जिसका जिम कॉर्बेट पर लिखी गई किताब माई इंडिया में भी जिक्र मिलता है. इस फाउंड्री को देखने के लिए हर साल हजारों सैलानी आते हैं.

ईटीवी संवाददाता भावनाथ पंडित ने इस आयरन फाउंड्री के बारे में लोगों से विस्तार से बात की. साथ ही अतीत की इस धरोहर के बारे में जानकारी जुटाने का प्रयास किया.

पढ़ें- पहाड़ के सबसे बड़े अस्पताल का ऐसा है हाल, ईटीवी भारत की पड़ताल में मिली खामियां ही खामियां

सन् 1850 में अंग्रेजों ने कुमाऊं को विकसित करने लिए कई कदम उठाए. उस समय पहाड़ों पर बनने वाले पुलों और रेल लाइन निर्माण के लिए लोहे की जरूरत थी, जिसकी पूर्ति के लिए अंग्रेजों ने पहाड़ से निकलने वाले पत्थर से लोहा निर्माण की तरकीब निकाली और सन् 1858 में डेबिट एंड कंपनी नाम की उत्तर भारत की पहली आयरन फाउंड्री यानी (लोहे की भट्ठी) को नैनीताल में स्थापित किया गया.

ब्रिटिश शासन के दौरान इन फाउंड्रियों में बनाया जाता था लोहा

कंपनी ने नैनीताल के कालाढूंगी, कोटाबाग, खुरपाताल और मुक्तेश्वर को रुड़की नाम दिया और चारों जगह पर आयरन फैक्ट्री की स्थापना की. इन फैक्ट्रियों में पहाड़ों से काला पत्थर निकालकर गलाया जाता था और उससे कच्चे लोहे का निर्माण किया जाता था, इस लोहे से रेल लाइन और पुलों का निर्माण किया जाता था.

iron stone
लोहा बनाने वाला पत्थर

सन् 1858 में नैनीताल के कालाढूंगी में डेविड एंड कंपनी ने अपनी उत्तर भारत की सबसे बड़ी आयरन फाउंड्री की स्थापना की. फाउंड्री स्थापित करने का मुख्य मकसद कुमाऊं का विकास था. फैक्ट्री स्थापित होने पर कालाढूंगी के करीब ढाई सौ परिवारों को रोजगार मिला, लेकिन फाउंड्री में काला पत्थर गलाने के लिए भारी मात्रा में लकड़ी को जरूरत पड़ती थी. जिसके लिए जंगलों में लकड़ियों का बेतहाशा कटान होना शुरू हो गया.

पेड़ों के लगातार हो रहे कटान और भट्टी से निकलने वाले धुंए से पर्यावरण पर प्रभाव पड़ने लगा. जिसको देखते हुए 1876 में तत्कालीन कमिश्नर सर हेनरी रैमसे ने इस फैक्टरी पर प्रतिबंध लगा दिया. स्थानीय लोग बताते हैं कि लोहा फैक्ट्री का इतिहास कालाढूंगी कस्बे से जुड़ा हुआ है. कुमाऊंनी भाषा में काला ढूंग यानी कला पत्थर कहा जाता है. इसी से आज कालाढूंगी नाम पड़ा. आज भी कालाढूंगी में आयरन फाउंड्री मौजूद है, जो जर्जर हालत में है. लेकिन पहाड़ की तीनों अन्य आयरन फाउंड्री पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है.

iron stone
लोहा बनाने वाला पत्थर

कालाढूंगी के जानकार राजकुमार पांडे का कहना है कि जिम कॉर्बेट पर लिखी गई किताब माई इंडिया में भी इस लोहे की भट्टी की जिक्र किया गया है. इस किताब में बताया गया है कि जंगलों का विनाश होने की आशंका के चलते इस कारखाने को बंद किया गया था. स्थानीय लोगों के मुताबिक आज भी देसी और विदेशी पर्यटक इस ब्रिटिश कालीन फाउंड्री को देखने आते हैं.

स्थानीय लोगों का कहना है कि जरूरत है सरकार को इस पर ध्यान देने की, अगर सरकार इस पर ध्यान देते हुए इन फाउंड्री को संरक्षित करने का प्रयास करती है तो यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र और धरोहर के रूप में भी संरक्षित किया जा सकता है.

Intro:स्लग- ब्रिटिश कालीन उत्तर भारत की पहली आर्यन फाउंड्री पहाड़ों के पत्थरों से बनाए जाते थे लोहा। एंकर -बहुत कम ही लोग जानते होंगे कि उत्तराखंड के पहाड़ों से निकलने वाले पत्थरों से लोहा भी बनाया जा सकता है। लेकिन इसको कर दिखा था ब्रिटिश शासन के दौरान बाहर से आए विदेशियों ने। ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेज भारत की विकास के लिए कई अहम काम कर रहे थे ।उन्हीं विकास कामों के लिए अंग्रेजों ने पहाड़ के पत्थरों से लोहा बनाया और पहाड़ों पर बनने वाले पुल और रेल लाइनों का निर्माण भी किया। देखिए एक रिपोर्ट


Body:बात 1850 के दशक की करें तो उस समय भारत पर ब्रिटिश शासन का राज्य था। विदेशी भारत के विकास के लिए कई काम किए। विदेशी कुमाऊं को भी विकास से जोड़ने के लिए कई अहम कदम उठाए। पहाड़ों पर बनने वाले पुलों ,रेल लाइन निर्माण के लिए लोहे की जरूरत थी। जिसकी पूर्ति के लिए उन्होंने पहाड़ से निकलने वाले पत्थर से हैं लोहे के निर्माण बनाने के लिए सन 1858 में डेबिट एंड कंपनी नाम की उत्तर भारत की पहली आयन फाउंड्री यानी (लोहे की भठ्ठी) को नैनीताल जिले में स्थापित किया। कंपनी ने नैनीताल जिले के कालाढूंगी ,कोटाबाग, खुरपा ताल, मुक्तेश्वर को रुड़की नाम दिया और चारों जगह पर आयरन फैक्ट्री की स्थापना किया और पहाड़ों से काला पत्थर निकाल इन्हीं फैक्ट्रियों में गला कर लोहा निकाला जाता था और इन्हीं लोहे से पहाड़ों में बनने वाले पुल और रेल लाइनों का निर्माण किया करते थे। 1858 में नैनीताल जिले के कालाढूंगी डेविड एंड कंपनी ने अपनी उत्तर भारत की सबसे बड़ी आयरन फाउंड्री की स्थापना किया। फाउंड्री स्थापित करने का मुख्य मकसद कुमाऊं का विकास था और यहां से तैयार होने वाले लोहे रेल निर्माण और पहाड़ों पर बनने वाले पुलों में किया जाता था। जबकि कच्चा माल पहाड़ों से काला पत्थर निकाल लोहा तैयार करते थे। फैक्ट्री स्थापित होने पर कालाढूंगी के करीब ढाई सौ परिवारों को रोजगार मिला लेकिन फाउंड्री में काला पत्थर गलाने के लिए भारी मात्रा में लकड़ी को जरूरत पड़ती थी ।जंगलों की लकड़ियो की बेतहाशा कटान होना शुरू हो गया। लेकिन पेड़ों के लगातार हो रहे कटान और भट्टी से निकलने वाले धुंए से पर्यावरण पर प्रभाव पड़ने लगा जिसको देखते हुए 1876 तत्कालीन कमिश्नर सर हेनरी रैमसे ने इस फैक्टरी पर प्रतिबंध लगा दिया जो आज भी कालाढूंगी में स्थापित है। स्थानीय लोग बताते हैं कि लोहा फैक्ट्री का इतिहास कालाढूंगी कस्बे से जुड़ा हुआ है। कुमाऊनी भाषा में काला ढूंग यानी कला पत्थर कहा जाता है इसी से आज कालाढूंगी नाम पड़ा। आज भी कालाढूंगी में आयरन फाउंड्री मौजूद है जो जर्जर हालत में है। लेकिन पहाड़ की तीनों अन्य आर्यन फाउंड्री पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है।


Conclusion:कालाढूंगी के स्थानीय जानकार राजकुमार पांडे का कहना है कि जिम कॉर्बेट के किताब (माई इंडिया )भी इस लोहे की भट्टी की जिक्र किया गया है। इस किताब में बताया गया है कि जंगलों का विनाश होने की आशंका के चलते इस कर खाने को बंद किया गया था। स्थानीय लोगों के मुताबिक आज भी देसी और विदेशी पर्यटक इस ब्रिटिश कालीन फाउंड्री को देखने आते हैं आर्यन फाउंड्री पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुकी है जरूरत है सरकार को इस पर ध्यान देने की अगर सरकार इस पर ध्यान देते हुए संरक्षित करने का प्रयास करती है तो यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र रहेगा और धरोहर के रूप में भी जाना जाएगा। बाइट -राजकुमार पांडे स्थानीय जानकार
Last Updated :Apr 29, 2019, 12:09 PM IST
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