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स्थानीय मुद्दे हुए गौण, खत्म हुई UKD की धार, क्षेत्रीय दल को है 'क्रांति' की दरकार

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Published : Jul 22, 2021, 6:48 PM IST

Updated : Jul 22, 2021, 9:32 PM IST

उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) में गुटबाजी, नेतृत्व की कमी, मुद्दों पर मुखरता की कमी, लगातार घटता संगठन, लोगों से जुड़ाव न होना और क्षेत्रीय दल के रूप में अपनी मौजूदगी को सही से दर्ज न करा पाना सबसे बड़ी कमी रही. जिसके कारण आज यूकेडी रसातल में जा चुकी है.

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रसातल में गई UKD को 'क्रांति' की दरकार!

देहरादून: उत्तराखंड में राष्ट्रीय दल, भाजपा और कांग्रेस की राजनीतिक नूरा कुश्ती के बीच अब आम आदमी पार्टी का भी पदार्पण हो चुका है. चिंता की बात यह है कि राज्य में भाजपा और कांग्रेस के बाद आम आदमी पार्टी की तो चर्चा हो रही है, लेकिन उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) का जिक्र स्थानीय लोगों की जुबां से गायब है. राज्य स्थापना में अहम भूमिका निभाने वाली यूकेडी अब राज्य में अपने ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. यूकेडी के साथ ही प्रदेश के स्थानीय मुद्दे भी धीरे-धीरे गौंण होते हुए दिखाई दे रहे हैं. आखिर इसके पीछे की क्या कुछ वजहें हैं आइये जानते हैं.

उत्तराखंड में राष्ट्रीय दलों की पैठ राज्य स्थापना के बाद से ही दिखने लगी थी. हालांकि इस दौरान क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) पर प्रदेशवासियों की निगाह टिकी रही. पिछले 21 साल में धीरे-धीरे यूकेडी कब इतिहास बन गई खुद पार्टी नेताओं को भी इसका आभास नहीं हुआ. यूं तो इसके पीछे कई कारण हैं, मगर इसमें जो सबसे पहला कारण है वो यूकेडी नेताओं की सत्ता के करीब रहने की महत्वकांक्षा समेत आर्थिक संसाधनों की कमी सबसे बड़ी वजह रही है. इसके साथ ही पार्टी में गुटबाजी, नेतृत्व की कमी, मुद्दों पर मुखरता न होना, लगातार घटता संगठन, लोगों से कम जुड़ाव और क्षेत्रीय दल के रूप में अपनी मौजूदगी को सही से दर्ज न करा पाना यूकेडी की बड़ी कमियां रहीं. जिसके कारण आज यूकेडी रसातल में जा चुकी है.

रसातल में गई UKD को 'क्रांति' की दरकार!

यूकेडी के रसातल में जाने से यहां के स्थानीय मुद्दे भी धीरे-धीरे गायब होते गये. राज्य के दो प्रमुख दलों ने यहां के मुद्दों पर विशेष ध्यान नहीं दिया. चूंकि यूकेडी एक क्षेत्रीय पार्टी थी, इसलिए इसके मुद्दे भी राज्य से जुड़े थे. मगर अपनी कमियों, खामियों के कारण यूकेडी का आज अस्तित्व कम ही नजर आता है. वो ही हाल यहां के स्थानीय मुद्दों का है.

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दरअसल, प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी सरकार बनाते रहे लेकिन राज्य से संबंधित तमाम फैसले दिल्ली से ही हुए हैं. परेशानी इस बात की भी है कि स्थानीय मुद्दों के बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर ही उत्तराखंड की राजनीति निर्भर रही है. जिसके कारण स्थानीय मुद्दे और सोच कहीं पीछे छूटते दिखाई दिए हैं. उत्तराखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले आंदोलनकारी मंच के जिलाध्यक्ष प्रदीप कुकरेती कहते हैं कि किसी भी राज्य में क्षेत्रीय दल का एक अहम रोल होता है.

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प्रदीप कुकरेती कहते हैं राष्ट्रीय दल राष्ट्रीय मुद्दों पर ही चर्चा करने में अपनी प्राथमिकता दिखाते हैं. लिहाजा उत्तराखंड के लोगों के हक-हकूक और क्षेत्रीय समस्याओं पर राष्ट्रीय दलों की सरकारें काम नहीं कर पाती हैं. इस कारण क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ जाती है.

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उत्तराखंड क्रांति दल के लिए राज्य में पहले चुनाव से ही दिक्कतें शुरू हो गई थी. इसकी शुरुआत तब हुई जब यूकेडी ने प्रदेश में 4 विधानसभा सीटें जीतकर सरकार के साथ मलाई खाने का फैसला किया. बस सरकार को समर्थन के इसी फैसले ने धीरे-धीरे यूकेडी को खत्म कर दिया.

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1990 के बाद उत्तर प्रदेश से अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड को स्थापित करने के लिए छोटे-छोटे आंदोलनों की शुरुआत हुई. 1994 में इन आंदोलनों ने बड़ा रूप लिया. उत्तराखंड क्रांति दल के बैनर तले पुलिस की लाठियों और गोलियों को खाते हुए नए राज्य को स्थापित करने की तरफ आंदोलनकारी बढ़े. राज्य स्थापना के बाद 2002 में हुए पहले चुनावों में ही उत्तराखंड क्रांति दल ने 62 सीटों पर प्रत्याशी उतारकर महज 4 सीटें ही जीती.

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अब वक्त राजनीतिक संघर्ष का था, लेकिन उस दौरान उत्तराखंड क्रांति दल ने संघर्ष का रास्ता छोड़कर सरकार के साथ सत्ता का सुख भोगने का फैसला लिया. यहीं से उत्तराखंड क्रांति दल का पतन शुरू हुआ. साल 2002 में यूकेडी को 5.59% वोट मिले. अगला चुनाव 2007 में हुआ. जब यूकेडी ने 61 प्रत्याशी उतारे और महज 3 सीटें ही जीती. इस साल यूकेडी का मत प्रतिशत भी घटा. अब राज्य में 4.7% वोट ही यूकेडी को मिले. 2002 में कांग्रेस के साथ सरकार बनाने वाली यूकेडी ने 2007 में भाजपा की सरकार आने पर भी सत्ता का साथ दिया. साल 2012 में फिर चुनाव हुए. इस बार महज 44 सीटों पर ही यूकेडी ने प्रत्याशी उतारे. इस बार यूकेडी के हालात और खराब हुए. यूकेडी 1 सीट ही जीत पाई. उनका मत प्रतिशत घटकर अब 1.93% रह गया.

चिंता की बात यह रही कि जिस 1 सीट को यूकेडी के सिंबल पर प्रीतम सिंह ने जीता उन्होंने भी पार्टी का दामन छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी. इसके बाद साल 2017 में अगला चुनाव हुआ. तब 59 सीटों पर यूकेडी ने प्रत्याशी उतारे. इस बार यूकेडी किसी भी सीट पर जीत हासिल नहीं कर पाई. नोटा से भी कम प्रतिशत वोट हासिल कर पाई. इस बार यूकेडी को 0. 7% वोट ही मिल पाए.

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अब राज्य में 2022 में चुनाव होने हैं. उत्तराखंड क्रांति दल इन चुनावों की तैयारी में जुट गया है. पार्टी के हालात इतने खराब हैं कि सभी 70 सीटों पर पार्टी को प्रत्याशी तक नहीं मिल पा रहे हैं. यही नहीं, संगठन स्तर पर प्रदेश भर में सभी बूथों पर बूथ अध्यक्ष भी शायद ही पार्टी अब तक तैयार कर पाई है. ऐसे में यूकेडी के वरिष्ठ नेता शांति प्रसाद भट्ट कहते हैं कि पार्टी की तैयारी पूरी है. इस बार पार्टी पुरजोर तरीके से चुनाव लड़ेगी. उन्होंने कहा क्षेत्रीय मुद्दों पर उत्तराखंड क्रांति दल के अलावा कोई पार्टी आगे नहीं आती है. भाजपा, कांग्रेस और अब आम आदमी पार्टी प्रदेश वासियों को ठगने के लिए ही राज्य में राजनीति करने आई है.

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यह बात ठीक है कि यूकेडी के नेताओं की वजह से ही आज यूकेडी की यह दुर्गति हुई है, लेकिन इस बात पर भी यकीन करना होगा कि क्षेत्रीय विचारधारा और मुद्दों पर बात करके ही प्रदेश का विकास सभंव है, जो कि क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी के कारण ही संभव है. लिहाजा जरूरत उत्तराखंड क्रांति दल की तरफ से ज्यादा राजनीतिक प्रयास करने की है. जिससे आने वाले विधानसभा चुनावों में यूकेडी अपने को रसातल से COME BACK कर एक बार फिर से राज्य के स्थानीय मुद्दों के साथ और भी मजबूती से खड़ी हो सके.

Last Updated :Jul 22, 2021, 9:32 PM IST
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