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उत्तराखंड चुनाव में पहाड़ों से पलायन बड़ा मुद्दा, लेकिन सुध लेने वाले खुद कर गए 'पलायन'

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Published : Aug 16, 2021, 9:33 PM IST

Updated : Aug 16, 2021, 10:04 PM IST

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उत्तराखंड में पॉलिटिक्स के लिए पलायन कर गये नेता

आज 21 सालों बाद भी पहाड़ों में पलायन सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है. पहाड़ी राज्य के नेता और नौकरशाह भी इसमें पीछे नहीं रहे. हरीश रावत और रमेश पोखरियाल निशंक भी पहाड़ के इलाकों को छोड़कर चुनाव जीतने के लिए मैदानी सीटों की ओर रुख किया है.

देहरादून: उत्तराखंड में राज्य सरकारें पलायन आयोग बनाकर आम लोगों के पलायन को रोकने के बड़े-बड़े दावे करती हैं, लेकिन हकीकत कुछ और ही है. सरकार के मंत्री, विधायक ही खुद पहाड़ों से पलायन कर गये. प्रदेश के वरिष्ठ नेता हरीश रावत और डॉ रमेश पोखरियाल निशंक जैसे दिग्गज नेता पहाड़ों से अपनी सीट छोड़कर मैदानों की तरफ बढ़ चुके हैं. यहीं, नहीं गैरसैंण की बात करने वाली यूकेडी भी देहरादून में बैठकर ही पहाड़ की बात करती है.

9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड की स्थापना हुई. नए राज्य की परिकल्पना इससे कई साल पहले कर ली गई थी. एक सपना था जिसे राज्य की जनता के साथ ही आंदोलनकारियों ने भी देखा था. वो सपना लखनऊ से दूर पहाड़ी जिले में बेहतर मूलभूत सुविधाएं देने का था. सपना पहाड़ों पर रोजगार और स्वास्थ्य सुविधाएं देने का भी था. इस सपने को पाने के लिए भरसक प्रयास किए गए. तब जाकर आखिरकार साल 2000 में नए पहाड़ी राज्य के निर्माण हुआ. आज 21 सालों बाद भी उस सपने को पूरा करने के दावे हवा-हवाई होते दिखाई दे रहे हैं.

सुध लेने वाले खुद कर गए 'पलायन'.

पहाड़ी राज्य के नेताओं और नौकरशाहों का सुख सुविधाओं के लिए मैदानों की ओर पलायन करना इन सपनों पर पलीता लगा गया. वैसे आम लोगों के पलायन को रोकने के लिए तमाम सरकारों ने अपने प्रयासों को दोहराया, लेकिन जब सरकार ही पलायन कर रही हो तो आम जनता के पलायन को कैसे रोका जाएगा?

त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार में तो पहाड़ के सुदूरवर्ती क्षेत्रों से पलायन को रोकने के लिए बकायदा पलायन आयोग बनाया गया. इसके जरिए तमाम क्षेत्रों का आकलन कर रिपोर्ट भी तैयार की गई, लेकिन इससे बड़ा मजाक क्या होगा कि पलायन आयोग के कार्यालय ने ही पौड़ी से पलायन कर देहरादून में शरण ले ली.

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जाहिर है कि न तो राजनेता पहाड़ों पर जाना चाहते हैं और न ही अधिकारी, फिर कैसे पलायन को रोका जा सकता है. कांग्रेस नेता इस बात को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि राजनेताओं और अधिकारियों का मैदानों की तरफ पलायन करना दुर्भाग्यपूर्ण है.

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हरदा और निशंक, तमाम मंत्रियों और विधायकों का पलायन: जिस प्रदेश में सत्ता में रहने वाली राजनीतिक पार्टियों के आला नेता ही अपनी विधानसभा सीटों से पलायन कर रहे हो वहां सरकारों का पलायन के प्रति गंभीर होना बेमानी ही कहा जाएगा. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत भी पलायन पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, स्थानीय उत्पादों के जरिए पहाड़ को महत्व देने की भी सोशल मीडिया पर खूब चर्चाएं करते हैं.

लेकिन हरीश रावत खुद अपनी पलायन विरोधी बातों पर कायम नहीं दिखाई देते. हरीश रावत पहाड़ की सीट छोड़कर लोकसभा में हरिद्वार सीट की तरफ पलायन कर गए. जब विधानसभा की बात आई तो भी उन्होंने हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा जैसे मैदानी क्षेत्रों को चुना. भाजपा के डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक भी पहाड़ से पलायन कर मैदान में चुनाव लड़ने लगे. डॉ निशंक फिलहाल हरिद्वार लोकसभा सीट से सांसद हैं.

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यदि मंत्रियों की बात करें तो सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल, धनसिंह नेगी, खजानदास, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत, विजय बहुगुणा, ऋतु खंडूरी का नाम शामिल हैं. इसके अलावा भी कई विधायक ऐसे हैं जिन्होंने देहरादून में या तो जमीनें ली हैं या फिर उनके यहां बड़े-बड़े फ्लैट मौजूद हैं. वहीं, इस मामले पर जब भाजपा से बात की जाती है तो वह अपने पुराने विकास के दावों को रटते हुए नजर आते हैं और पहाड़ों के विकास में भाजपा सरकारों की भूमिका को गिनाने लगते हैं.

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इस मामले में एकमात्र क्षेत्रीय दल यूकेडी का चरित्र भी काफी संदेहात्मक नजर आता है. ऐसा इसलिए क्योंकि उत्तराखंड क्रांति दल गैरसैंण में राजधानी बनाने और पहाड़ों की बात करती है, मगर ये सब बातें देहरादून स्थित कार्यालय में बैठकर की जाती हैं. यानी इस मामले में उत्तराखंड क्रांति दल की करनी और कथनी में बड़ा अंतर नजर आता है.

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राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती इस बात से इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं कि पहाड़ों के लिए किसी की सरकार और किसी भी दल ने कुछ नहीं किया. उससे भी बुरी बात यह है कि बड़े-बड़े दावे और वादे करने वाले नेता और अधिकारी ही खुद पलायन कर गये, तो फिर किसी और के लिए क्या कहा जा सकता है.

Last Updated :Aug 16, 2021, 10:04 PM IST
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