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Diwali 2021: जानिए आखिर क्यों दीपावली से ठीक एक दिन पहले मनाई जाती है नरक चतुर्दशी

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Published : Nov 3, 2021, 7:53 AM IST

हर साल दिवाली से ठीक एक दिन पहले छोटी दिवाली मनाई जाती है. जिसे कई लोग नरक चतुर्दशी भी कहते हैं. रिपोर्ट में जानें आखिर क्यों इसे दिवाली से ठीक एक दिन पहले मनाया जाता है.

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नरक चतुर्दशी

रायपुर: दीपावली से ठीक एक दिन पहले नरक चतुर्दशी मनाई जाती है. नरक चतुर्दशी का पर्व कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के दिन मनाया जाता है. इस दिन भगवान कृष्ण, हनुमान जी, यमराज और मां काली की पूजा की जाती है. इसे छोटी दिवाली भी कहते हैं. कई जगह इसे नरक चौदस या नर्क चतुर्दशी या नर्का पूजा के नाम से भी जाना जाता है. इसके साथ ही इस दिन रूप चौदस और काली चौदस जैसे कई त्योहारों का आयोजन होता है. इस साल 3 नवंबर 2021 को नरक चतुर्दशी का पर्व मानाया जाएगा.

क्यों मनाई जाती है नरक चतुर्दशी ?

प्राचीन काल में नरकासुर राक्षस ने अपनी शक्तियों से देवताओं और ऋषि-मुनियों को बंदी बना लिया था. साथ ही 16 हजार 100 सुंदर राजकुमारियों को भी बंधक बना लिया था. नरकासुर के अत्याचारों से त्रस्त देवता और साधु-संत भगवान श्री कृष्ण की शरण में पहुंचे. नरकासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था, इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की मदद से कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध किया. इस दौरान नरकासुर की कैद से 16 हजार 100 कन्याओं को आजाद कराया गया.

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जिसके बाद इन कन्याओं ने श्री कृष्ण से कहा कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा. इसलिए भगवान आप ही कोई उपाय करें. समाज में इन कन्याओं को सम्मान दिलाने के लिए सत्यभामा के सहयोग से श्री कृष्ण ने इन सभी कन्याओं से विवाह कर लिया. बाद में ये सभी भगवान श्री कृष्ण की 16 हजार 100 पटरानियां के तौर पर जानी जाने लगीं. नरकासुर से मुक्ति पाने की खुशी में देवगण और पृथ्वीवासी बहुत आनंदित हुए और उन्होंने यह पर्व मनाया. माना जाता है कि तभी से इस पर्व को मनाए जाने की परंपरा शुरू हुई. इस दिन श्रीकृष्ण की विशेष पूजा की जाती है. इस दिन नरक की यातनाओं की मुक्ति के लिए कूड़े के ढेर पर दीपक जलाया जाता है.

ज्योतिषाचार्य ने बताया कि माना जाता है कि महाबली हनुमान का जन्म इसी दिन हुआ था, इसीलिए इस दिन बजरंगबली की भी विशेष पूजा की जाती है. शास्त्रों में कहा गया है कि धन की देवी मां लक्ष्मी जी उसी घर में रहती हैं, जहां सुंदरता और पवित्रता होती है. लोग लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए घरों की सफाई और सजावट करते हैं. इसका अर्थ ये भी है कि वो नरक यानी के गंदगी का अंत करते हैं. इस दिन रात को तेल अथवा तिल के तेल के 14 दीपक जलाने की परंपरा है.

मान्यता के अनुसार, हिरण्यगभ नाम के एक राजा ने राज-पाट छोड़कर तप में विलीन होने का फैसला किया. कई वर्षों तक तपस्या करने की वजह से उनके शरीर में कीड़े पड़ गए. इस बात से दुखी हिरण्यगभ ने नारद मुनि से अपनी व्यथा कही. नारद मुनि ने राजा से कहा कि कार्तिक मास कृष्ण पक्ष चतुर्दशी के दिन शरीर पर लेप लगाकर सूर्योदय से पूर्व स्नान करने के बाद रूप के देवता श्री कृष्ण की पूजा करें. ऐसा करने से फिर से सौन्दर्य की प्राप्ति होगी. राजा ने सबकुछ वैसा ही किया जैसा कि नारद मुनि ने बताया था. राजा फिर से रूपवान हो गए, तभी से इस दिन को रूप चतुर्दशी भी कहते हैं.

जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर दैत्यराज बलि से तीन पग धरती मांगकर तीनों लोकों को नाप लिया तो राजा बलि ने उनसे प्रार्थना की- 'हे प्रभु! मैं आपसे एक वरदान मांगना चाहता हूं. आप मुझसे प्रसन्न हैं तो वर देकर कृतार्थ कीजिए. तब भगवान वामन ने पूछा- क्या वरदान मांगना चाहते हो, राजन? दैत्यराज बलि बोले- प्रभु! आपने कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से लेकर अमावस्या की अवधि में मेरी संपूर्ण पृथ्वी नाप ली है, इसलिए जो व्यक्ति मेरे राज्य में चतुर्दशी के दिन यमराज के लिए दीपदान करे, उसे यम यातना नहीं होनी चाहिए और जो व्यक्ति इन तीन दिनों में दीपावली का पर्व मनाए, उनके घर को लक्ष्मीजी कभी न छोड़ें. राजा बलि की प्रार्थना सुनकर भगवान वामन बोले- राजन! मेरा वरदान है कि जो चतुर्दशी के दिन नरक के स्वामी यमराज को दीपदान करेंगे, उनके पितर कभी नरक में नहीं रहेंगे और जो व्यक्ति इन तीन दिनों में दीपावली का उत्सव मनाएंगे, उन्हें छोड़कर मेरी प्रिय लक्ष्मी अन्यत्र न जाएंगी. भगवान वामन द्वारा राजा बलि को दिए इस वरदान के बाद से ही नरक चतुर्दशी के दिन यमराज के निमित्त व्रत, पूजन और दीपदान का प्रचलन आरंभ हुआ, जो आज तक चला आ रहा है.

कथा के मुताबिक, प्रागज्योतिषपुर नगर का राजा नरकासुर नामक दैत्य था. उसने अपनी शक्ति से इंद्र, वरुण, अग्नि, वायु आदि सभी देवताओं को परेशान कर दिया था. वह संतों को भी त्रास देने लगा. महिलाओं पर अत्याचार करने लगा. जब उसका अत्याचार बहुत बढ़ गया तो देवता व ऋषिमुनि भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गए. भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें नरकासुर से मुक्ति दिलाने का आश्वासन दिया, लेकिन नरकासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था. भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया तथा उन्हीं की सहायता से नरकासुर का वध किया. इस प्रकार श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर देवताओं व संतों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई. उसकी खुशी में दूसरे दिन अर्थात कार्तिक मास की अमावस्या को लोगों ने घरों में दीएं जलाए. तभी से नरक चतुर्दशी तथा दीपावली का त्योहार मनाया जाने लगा.

रूप चौदस की रात मान्यतानुसार, घर का सबसे बुजुर्ग पूरे घर में एक दिया जलाकर घुमाता है और फिर उसे घर से बाहर कहीं दूर जाकर रख देता है. इस दिये को यम दीया कहा जाता है. इस दौरान घर के बाकी सदस्य अपने घर में ही रहते हैं. ऐसा माना जाता है कि इस दिए को पूरे घर में घुमाकर बाहर ले जाने से सभी बुरी शक्तियां घर से बाहर चली जाती हैं.

इस दिन जहां घर की सफाई की जाती है, वहीं घर से हर प्रकार का टूटा-फूटा सामान भी फेंक देना चाहिए. घर में रखे खाली पेंट के डिब्बे, रद्दी, टूटे-फूटे कांच या धातु के बर्तन, किसी प्रकार का टूटा हुआ सजावटी सामान, बेकार पड़ा फर्नीचर व अन्य प्रयोग में न आने वाली वस्तुओं को यमराज का नरक माना जाता है, इसलिए ऐसी बेकार वस्तुओं को घर से हटा देना चाहिए.

इस दिन शाम को चार बत्ती वाला मिट्टी का दीपक पूर्व दिशा में अपना मुख करके घर के मुख्य द्वार पर रखें और ‘दत्तो दीप: चतुर्दश्यो नरक प्रीतये मया. चतुर्वर्ति समायुक्त: सर्व पापा न्विमुक्तये, मंत्र का जाप करें और नए पीले रंग के वस्त्र पहन कर यम का पूजन करें. जो व्यक्ति इन बातों पर अमल करता है उसे नर्क की यातनाओं और अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता.

इस दिन विशेष पूजा की जाती है, जो इस प्रकार होती है. सर्वप्रथम एक थाल को सजाकर उसमें एक चौमुख दिया जलाते हैं तथा सोलह छोटे दीप और जलाएं तत्पश्चात रोली खीर, गुड़, अबीर, गुलाल, तथा फूल इत्यादि से ईष्ट देव की पूजा करें. इसके बाद अपने कार्य स्थान की पूजा करें. पूजा के बाद सभी दीयों को घर के अलग-अलग स्थानों पर रख दें तथा गणेश एवं लक्ष्मी के आगे धूप दीप जलाएं. इसके पश्चात संध्या के समय दीपदान करते हैं, जो यम देवता, यमराज के लिए किया जाता है. विधि-विधान से पूजा करने पर व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो प्रभु को पाता है.

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