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SPECIAL: पिसता हूं...टूटता हूं...तकदीर से हारा मजबूर हूं मैं...मजदूर हूं मैं

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Published : May 1, 2020, 12:10 AM IST

Updated : May 1, 2020, 11:23 AM IST

रोज कमा कर जिंदगी जीने वालों की लाचारी के लिए याद किया जाएगा. सड़कों पर उतरे लाखों मजदूरों, रोते बच्चे, बदहवास महिलाओं, भूखे पेटों और प्यासे गलों ने ये बता दिया कि राज करने वाला बदलता जाएगा लेकिन मजदूरों का हाल कभी नहीं बदल पाएगा. विश्व श्रम संगठन (आई एल ओ) की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के 1 अरब 60 करोड़ मजदूरों का कामकाज चौपट हो चुका है.

international labour day
अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस

बिलासपुर: हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे...इक खेत नहीं, इक देश नहीं,हम सारी दुनिया मांगेंगे"...मशहूर शायर फ़ैज अहमद 'फ़ैज़' के ये शब्द कहते तो मजदूरों की रचनात्मकता और मेहनत की कहानी है लेकिन ये भी बताते हैं कि समाज ने उनका हक कैसे छीन लिया है. वर्षों, दशकों और सदियों से उपेक्षित ये वर्ग आज भी अपने हिस्से की जमीन और आसमान के लिए तरस रहा है.

अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस

साल 2020 हमेशा कोविड 19 महामारी और रोज कमा कर जिंदगी जीने वालों की लाचारी के लिए याद किया जाएगा. सड़कों पर उतरे लाखों मजदूरों, रोते बच्चे, बदहवास महिलाओं, भूखे पेटों और प्यासे गलों ने ये बता दिया कि राज करने वाला बदलता जाएगा लेकिन मजदूरों का हाल कभी नहीं बदल पाएगा. विश्व श्रम संगठन (आई एल ओ) की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के 1 अरब 60 करोड़ मजदूरों का कामकाज चौपट हो चुका है.

भारत में भी कई मजदूरों का रोजगार छिना

सामाजिक और राजनीतिक जानकार नंद कश्यप बताते हैं कि अपने ही देश में संगठित और असंगठित मजदूरों को मिलाकर बात करें तो लगभग 50 करोड़ मजदूर और कामगार वर्ग के हाथों में अभी काम नहीं है और बहुतायत तादात में पलायन कर रहे मजदूर फिलहाल सड़क पर आ चुके हैं. वर्तमान में विषम परिस्थिति के कारण आज तक के इतिहास में मई दिवस सड़कों पर मनते पहली बार नहीं देखा जा रहा है. विश्व के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के आधे कामगार काम से दूर हो चुके हैं और अमेरिका भयंकर बेरोजगारी के संकट को झेल रहा है.

पूंजीवादी व्यवस्था बेनकाब

जानकार बताते हैं कि कोविड-19 के कारण पूंजीवादी व्यवस्था बेनकाब हुई है और दुनिया को एकबार फिर से समाजवादी चिंतन को लेकर प्रेरित किया है. आलोचकों का मानना है सड़कों पर आए श्रमिकों को देखकर ऐसा लगता है कि सचमुच इनके लिए सरकारों के पास कोई विजन था ही नहीं. दुनियाभर में मजदूरों का इस कदर सड़क पर आ जाना समाज के वर्गीय असंतुलन को बताता हैं जिसे खत्म करके ही हम बेहतर समाज बना सकते हैं.

जानकार बड़ी संख्या में मजदूरों के ग्रामीण क्षेत्र में पलायन को एक अलग नजरिए से देखते हैं. उनका मानना है कि संभव है कि आने वाले दिनों में इन कारणों से भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो जाए. जानकारों की मानें तो वर्तमान में मजदूर असमानता का अनुभव लेकर आगे नई राजनीतिक चेतना को जन्म दे सकते हैं और मजदूरों के हक में गैरपूंजीवादी विचारधारा खड़ी हो सकती है.

किसी ने लिखा है कि खाली हाथ, आंखों में सैलाब, चेहरे पर चिंता की लकीरें, पेट में भूख की आग..पिसता हूं, टूटता हूं, तकदीर से हारा मजबूर हूं मैं...मजदूर हूं मैं.

Last Updated :May 1, 2020, 11:23 AM IST
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