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कोरोना काल में बढ़े नवजातों में डाउन सिंड्रोम के मामले, प्रेगनेंसी के दौरान इन बातों का रखें ख्याल

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Published : Sep 18, 2021, 7:29 PM IST

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बिहार में कोरोना काल में डाउन सिंड्रोम के मामले बढ़ने से गायनेकोलॉजिस्ट चिंतित हैं. इस बीमारी से ग्रसित बच्चे सामान्य बच्चों से बिल्कुल अलग होते हैं. एक्सपर्ट्स का कहना है कि गर्भावस्था के समय ही इस बीमारी का पता लगाया जा सकता है. उसके बाद निर्णय माता पिता को लेना होता है. पढ़िए पूरी रिपोर्ट..

पटना: कोरोना महामारी (Corona In Bihar) के दौरान प्रदेश में चिकित्सीय व्यवस्था काफी प्रभावित हुई और रेगुलर चेकअप और ओपीडी जैसे कार्य विशेष प्रभावित हुए. ऐसे में गर्भवती महिलाएं रूटीन चेकअप के लिए डॉक्टर से कंसल्ट नहीं कर पाईं. इन वजहों से प्रदेश में डाउन सिंड्रोम (Down Syndrome Cases In Patna) के मामले कुछ बढ़े हैं. इसे रोकने के लिए माता पिता की सक्रियता और जागरुकता काफी अहम है.

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कोरोना काल में ज्यादातर लोगों ने डॉक्टरों से टेलीफोनिक कंसल्ट ही किया. इनमें गर्भवती महिलाएं भी शामिल थीं. डाउन सिंड्रोम के केसेस को कंट्रोल करने के लिए, गर्भवती महिलाओं का विशेष रूप से रूटीन चेकअप आवश्यक है.

देखें रिपोर्ट

फिलहाल कोरोना संक्रमण की रफ्तार प्रदेश में धीमी पड़ गई है. ऐसे में गायनेकोलॉजिस्ट, डाउन सिंड्रोम के बढ़ते मामलों को लेकर चिंतित हैं. गायनेकोलॉजिस्ट, गर्भवती महिलाओं से गर्भावस्था के तीसरे और चौथे सप्ताह में डॉक्टर से कंसल्ट करने की अपील कर रहे हैं. साथ ही इनका कहना है कि जो जरुरी जांच होते हैं, वह जांच जरूर कराएं. इन टेस्टों से पता चल सकेगा कि बच्चे में डाउन सिंड्रोम की बीमारी है या नहीं.

पटना की प्रख्यात गायनेकोलॉजिस्ट डॉक्टर मोनालिसा सिंह ने कहा कि डाउन सिंड्रोम एक बहुत बड़ी परेशानी है. इस बीमारी से ग्रसित बच्चे के पैदा होने के बाद माता-पिता को काफी तरह की समस्याएं होती है. ऐसे बच्चों का सर्वाइवल 10 से 12 साल का ही होता है और यह 10 से 12 साल की जो लाइफ है, वह काफी मुश्किलों भरी होती है.

"35 साल के बाद अगर कोई महिला गर्भवती होती है, तो उसमें डाउन सिंड्रोम का रिस्क फैक्टर रहता है. इसके लिए गर्भावस्था के तीसरे से चौथे महीने के बीच ब्लड टेस्ट होता है और अल्ट्रासाउंड किया जाता है. इसके माध्यम से पता लगाया जाता है कि डाउन सिंड्रोम होने का रिस्क कितना है. यह प्रोटोकॉल में है कि हर गर्भवती महिला का इस अवस्था में एक स्क्रीनिंग टेस्ट होना चाहिए, जिसमें यह पता लगाया जा सके कि डाउन सिंड्रोम का रिस्क फैक्टर कितना है."- मोनालिसा सिंह, गायनेकोलॉजिस्ट

साथ ही गायनेकोलॉजिस्ट का मानना है कि अगर डाउन सिंड्रोम का रिस्क फैक्टर डिटेक्ट होता है तो समय रहते दंपत्ति की काउंसलिंग की जाती है. इस दौरान निर्णय लिया जाता है कि क्या पैरेंट्स इस प्रेगनेंसी को और आगे ले जाना चाहते हैं या नहीं. अगर नहीं चाहते हैं तो लीगल मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी का रास्ता अपनाया जाता है और उस फीटस को एबोर्ट किया जाता है.

डॉक्टर मोनालिसा सिंह ने कहा कि अभी के समय क्रोमोजोनल और जेनेटिक बीमारियों के रिस्क फैक्टर की बात करें तो अगर प्रॉपर स्क्रीनिंग नहीं की जाए तो पूरे पॉपुलेशन में से दो से तीन प्रतिशत में ये अभी भी है. उन्होंने कहा कि पहले की तुलना में डाउन सिंड्रोम के मामले कम हुए हैं. लेकिन यह और कम होने चाहिए. अगर गर्भवती महिला की समय पर स्क्रीनिंग की जाती है तो काफी हद तक डाउन सिंड्रोम को रोका जा सकता है. यह स्क्रीनिंग डाउन सिंड्रोम के रिस्क फैक्टर का पता लगाने में 90% से अधिक सेंसेटिव है. अगर प्रॉपर स्क्रीनिंग किया जाए तो डाउन सिंड्रोम के रिस्क फैक्टर को 0.5% से नीचे लाया जा सकता है.

आमतौर पर जन्म के समय डाउन सिंड्रोम वाले शिशुओं में कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं. फ्लैट चेहरा, बादाम शेप आंखें, उभरी हुई जीब, हाथों में लकीरें, सिर, कान, उंगलियां छोटी-चौड़ी होती हैं. बच्चों का कद छोटा होता है. इस बीमारी से पीड़ित बच्चे सामान्य बच्चों से अलग व्यवहार करते हैं. इन बच्चों का मानसिक और सामाजिक विकास दूसरे बच्चों की तुलना में देरी से होता है. ऐसे बच्चे बिना सोचे-समझे खराब निर्णय ले लेते हैं. एकाग्रता की कमी होने के कारण डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चे में सीखने की क्षमता भी कम होती है.

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