हरदोई: उत्तर प्रदेश की हरदोई सदर विधानसभा सीट और यहां की राजनीति हमेशा से ही बेहद खास और चर्चित रही है. आजादी के बाद इस सीट पर सपा, कांग्रेस, बसपा यहां तक कि निर्दलीय तक को यहां से सफलता मिल चुकी है, लेकिन ये अजब संयोग है कि भाजपा या जनसंघ कभी यहां कमल नहीं खिला सकी है. बीते कई वर्षों से ये सीट एक परिवार में ही सिमट कर रह गयी है. यहां की राजनीति में नरेश अग्रवाल और उनके परिवार का ही दबदबा रहा है. वर्तमान में इस सीट पर उनके बेटे नितिन अग्रवाल इस समय विधायक हैं, जिन्होंने भाजपा की लहर में हुए चुनावों में सपा से चुनाव लड़कर विधायकी हासिल की थी.2022 में होने वाले चुनावों में भाजपा को यहां से जीत मिलेगी या नहीं, ये देखने वाली बात जरूर होगी.
सदर विधानसभा सीट की राजनीतिक पृष्ठभूमि
हरदोई जिले में आठ विधानसभा सीटें आती हैं. इसमें हरदोई सदर सीट प्रमुख है. आजादी के बाद से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के इतिहास में देंखे तो 1951 में हरदोई (पूर्वी) नाम से पहचान वाली यह सीट आरक्षित श्रेणी में थी और सबसे पहले चुनाव में बाबू किन्दर लाल 21247 मत हासिल कर विधायक बने थे. इसी वर्ष किन्दर लाल सांसद भी चुने गए और उपचुनाव हुआ तो कांग्रेस के चंद्रहास 27160 मत विजयी हुए. इसके बाद 1957 में हुए चुनावों में कांग्रेस के बाबू बुलाकी राम ने इस सीट पर चुनाव लड़ा और 42,530 वोट प्राप्त किए और विधायक बने. इसके उपरांत सन 1962 में भी कांग्रेस ने ही इस सीट पर अपना आधिपत्य जमाया. इस चुनाव में महेश सिंह ने 13,510 मत हासिल कर अपनी जीत पक्की की और विधानसभा पहुंचे. 1967 में हुए चुनाव में हरदोई के दिग्गज नेता धर्मगज सिंह ने इस सीट पर निर्दलीय चुनाव लड़ा और 12,953 मतों के साथ जीत हासिल की. 1969 में धर्मगज सिंह की पत्नी आशा मैदान में उतरी और कांग्रेस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हुए 19,392 मत हासिल कर विधानसभा पहुंची. वहीं 1974 के चुनाव में कांग्रेस के श्रीशचंद्र अग्रवाल ने 16,663 मत पाकर जीत हासिल की. इसके बाद 1977 में हुए चुनावों में धर्मगज सिंह ने 27,117 मतों के साथ यह सीट कांग्रेस की झोली में डाल दी.
नरेश अग्रवाल ने की राजनीति की शुरुआत
इसके बाद सन् 1980 बाबू श्रीशचंद्र अग्रवाल के पुत्र नरेश अग्रवाल को कांग्रेस से चुनाव लड़ाया गया. जिन्होंने 28,597 वोट हासिल कर विधानसभा में कदम रखा. इस चुनाव में भाजपा के दिग्गज नेता गंगाबक्श सिंह 14,295 मत पाकर दूसरे स्थान पर रहे थे. 1985 में कांग्रेस ने नरेश अग्रवाल के स्थान पर उमा त्रिपाठी को टिकट दिया और वे भी 24,039 वोटों से जीत कर विधायक बनीं. सन 1989 में नरेश अग्रवाल का दबदबा दिखना शुरू हुआ. जब कांग्रेस ने सन 1989 में भी नरेश को निकट न देकर दोबारा उमा त्रिपाठी को टिकट दिया और नरेश अग्रवाल को दूसरे जिले भेजने की बात कही, तब नरेश ने कांग्रेस छोड़ कर निर्दलीय चुनाव लड़ा और 36,402 वोटों से सदर सीट पर अपना आधिपत्य स्थापित किया. उस चुनाव में कांग्रेस की उमा 26,207 मतों को पाकर दूसरे स्थान पर रही थीं. अब सन् 1991 में कांग्रेस ने फिर से नरेश अग्रवाल को प्रत्याशी बनाया. इस चुनाव में मुकाबला बेहद टक्कर का रहा था. हालांकि जीत नरेश के हिस्से में ही आयी थी. फिर सन 1993 के चुनावों में सपा और बसपा का गठबंधन देखने मिला और कांग्रेस के नरेश अग्रवाल के विपक्ष में सपा और बसपा का गठजोड़ वाला प्रत्याशी चुनावी मैदान में था. हालांकि इस चुनाव में भी नरेश अग्रवाल ने 41,605 वोट पाकर जीत हासिल की.
अब आते हैं 1996 के चुनावों की तरफ, जब नरेश अग्रवाल ने कांग्रेस और बसपा के हुए गठबंधन के बाद सदर सीट पर दोनों पार्टियों का प्रतिनिधित्व करते हुए चुनाव लड़ा और भारी मतों से (56744) जीत हासिल की. इस बीच नरेश अग्रवाल को ऊर्जा मंत्री बनाया गया. हालांकि कुछ दिनों बाद ही उन्हें इस मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया. तब 2002 में उन्होंने सपा सरकार के साथ अपनी राजनीति को आगे बढ़ाया. 2002 में सदर सीट से सपा का प्रतिनिधित्व करते हुए नरेश अग्रवाल ने चुनाव लड़ा और 63 हज़ार से अधिक मत पाकर जीत हासिल की. 2007 में भी नरेश ने सपा से चुनाव लड़ा और 67 हज़ार से अधिक वोट पाकर विधायक बने.