नई दिल्ली : उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों से जुड़े अधिकतर मामलों में पुलिस की जांच पर कड़कड़डूमा कोर्ट की टिप्पणी से दिल्ली पुलिस पर सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं. वकीलों का कहना है कि दिल्ली पुलिस को जांच में पेशेवर तरीका अपनाना चाहिए था न कि नेताओं के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, काम करना चाहिए था. कुछ वकीलों का कहना है कि अधिकांश मामलों में अभियोजन के केस के हारने की वजह उनकी जांच को लेकर लचर रवैया रहा है.
साकेत कोर्ट के वकील कामोद कुमार का कहना है कि दिल्ली पुलिस की जांच निष्पक्ष नहीं है. आधी-अधूरी जांच की वजह से कई बार पुलिस को कोर्ट ने फटकार लगाई है. वकील अरुण कुमार गुप्ता ने कहा कि न केवल दिल्ली दंगों के मामले में बल्कि अधिकांश मामलों में दिल्ली पुलिस और जांच अधिकारियों की जांच लचर होती है. जांच अधिकारी तो कोर्ट को ये तक नहीं बता पाते कि किस आरोपी के खिलाफ पहले से कितने मामले दर्ज हैं. उनके इस रवैये की वजह से कई आरोपियों को जमानत मिल जाती है.
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अरुण कुमार गुप्ता बताते हैं कि जांच अधिकारी चाहे तो नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो से किसी अपराधी के खिलाफ दर्ज पहले के मामलों का पता लगा सकते हैं, लेकिन कुछ हाईलाईटेड मामलों को छोड़कर वे ऐसी जहमत नहीं उठाते. जब कोई आरोपी कोर्ट में जमानत याचिका दायर करता है तो याचिका की एक प्रति जांच अधिकारी को भेजी जाती है. जांच अधिकारी को कोर्ट में उपस्थित होना होता है, लेकिन कई मामलों में तो जांच अधिकारी पेश भी नहीं होते. यहां तक कि जमानत याचिका की प्रति मिलने के बाद उन्हें शिकायतकर्ता को भी पाबंदीनामा के जरिये सुनवाई की सूचना देनी होती है, लेकिन जांच अधिकारी शिकायतकर्ता को ये बताते भी नहीं है कि उनके मामले के आरोपी की जमानत याचिका कोर्ट में सुनवाई के लिए लिस्टेड है.
ऐसे में शिकायतकर्ता कोर्ट में आरोपी की जमानत याचिका का विरोध नहीं कर पाता और आरोपी को जमानत मिल जाती है. आपराधिक मामले की सुनवाई वाले दिन सुबह में जांच अधिकारी सरकारी वकील को केस के बारे में पूरी सूचना देता है, लेकिन आम तौर पर जांच अधिकारी सरकारी वकील को केवल चार्जशीट की कॉपी ई-मेल कर देते हैं. चार्जशीट में सारी बातें नहीं लिखी होती हैं. कई बातें जांच अधिकारी और सरकारी वकील के बीच बातचीत के बाद पता चलती हैं, लेकिन ऐसा होता नहीं है.