श्रीनगर: उत्तराखंड में आजकल एवलॉन्च (Avalanche in Uttarakhand) की घटनाएं बढ़ गई हैं. पहले केदारघाटी में 11 दिन में 4 बार हिमस्खलन (Avalanche 4 times in 11 days in Kedar Ghati) हुआ. उसके बाद उत्तरकाशी के द्रौपदी का डांडा-2 में एवलॉन्च के कारण बड़ा हादसा हो गया. द्रौपदी का डांडा-2 में एवलॉन्च (Draupadi Danda 2 Avalanche) में अब तक 10 शव बरामद हुए हैं. 14 पर्वतारोहियों का रेस्क्यू किया गया है. 20 लापता लोगों की तलाश अभी भी जारी है. मगर बर्फीले तूफान के कारण राहत बचाव कार्यों में यहां परेशानी आ रही है. हिमालय के हाई एल्टीट्यूड क्षेत्रों में अक्सर एवलॉन्च (what is avalanche) की घटनाएं होती रहती हैं. ये घटनाएं क्यों होती हैं, ये घटनाएं किस ओर इशारा करती हैं, आइये आपको बताते हैं.
बर्फ से ढके हिमालय में समय-समय पर एवलॉन्च (हिमस्खलन) आते रहते हैं. इन क्षेत्रों में मानव गतिविधि शून्य होने की वजह से इसका पता नहीं चल पाता. विशेषज्ञों के अनुसार, एवलॉन्च आने के चार महत्वपूर्ण कारक हैं. इनमें से किसी भी वजह से एवलॉन्च आ सकते हैं.
एवलॉन्च आने के कारण तापमान में वृद्धि के साथ ही बारिश और बर्फबारी के पैट्रर्न में आ रहे बदलाव हो सकते हैं. सतोपंथ ग्लेशियर में पिछले सितंबर माह गई टीम को भी ऐसे अनुभव से गुजरना पड़ा. यहां आमतौर पर सितंबर माह में बारिश और बर्फबारी नहीं होती है. मगर यहां लगातार दो दिन तक बारिश और बर्फबारी हुई. टीम के अनुसार यहां दो दिन में लगभग डेढ़ फीट बर्फ ग्लेशियर के ऊपर जमा हो गई.
क्या होता है एवलॉन्च: किसी ढलान वाली सतह पर तेजी से हिम के बड़ी मात्रा में होने वाले बहाव को एवलॉन्च कहते हैं. यह आमतौर पर किसी ऊंचे क्षेत्र में उपस्थित हिमपुंज में अचानक अस्थिरता पैदा होने से आरम्भ होता है. शुरु होने के बाद ढलान पर नीचे जाता हुआ हिम गति पकड़ने लगता है. इसमें बर्फ़ की और भी मात्रा शामिल होने लगती है. इनके रास्ते में जो कुछ भी आता है उसे अपने साथ ले जाती हैं. हर साल सैकड़ों लोगों की जान लेने वाले ये बर्फीले तूफान प्राकृतिक तौर पर भी आते हैं. इंसानी गतिविधी भी इसकी वजह बन सकती है. ऐसा जलवायु परिवर्तन, भारी हिमपात या फिर ऊंचे शोर की वजह से होता है.
एचएनबी गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय (HNB Garhwal Central University) का भूविज्ञान विभाग वर्ष 2005 से बदरीनाथ क्षेत्र में सतोपंथ ग्लेशियर पर अध्ययन कर रहा है. अलकनंदा नदी का उद्गम स्थल सतोपंथ ग्लेशियर चौखंबा पर्वत की पूर्व दिशा में 13 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है. इसी ग्लेशियर के निचले हिस्से में सतोपंथ ताल है. भूविज्ञान विभाग के जियोलॉजिस्ट प्रो. एचसी नैनवाल (Geologist Professor HC Nainwal) बताते हैं कि ज्यादातर एवलॉन्च ताजा गिरी बर्फ से आते हैं. यह बर्फ बहुत हल्की और भुरभुरी होती है. कई सालों बाद यह आइस (बर्फ का क्रिस्टल रुप) का रूप लेती है. यदि किसी कारणवश कहीं से बर्फ खिसकती है, तो यह बहुत तेजी से अपना स्थान छोड़ देती है. इसका नतीजा एवलॉन्च के रूप में सामने आता है.
जियोलॉजिस्ट प्रोफेसर एचसी नैनवाल (Geologist Professor HC Nainwal) ने बताया कि एवलॉन्च आने के चार महत्पूर्ण कारक हैं. इसमें भू आकृति का सबसे अहम रोल है. जितना ज्यादा ढाल होगा, बर्फ उतनी तेजी से खिसकेगी. सूर्य की ओर मुख वाली चोटियों में भी ज्यादा एवलॉन्च आते हैं. सूर्य की किरणों की तपिश से बर्फ तेजी से पिघलती है. बर्फ गिरने और पिघलने की दर भी एवलॉन्च को प्रभावित करती है. इसके अलावा तापमान व हवा की गति से भी बर्फ अपने स्थान से खिसक जाती है.
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प्रोफेसर नैनवाल के अनुसार, आमतौर पर सितंबर और अक्टूबर माह के दौरान ना तो बारिश होती है और ना ही बर्फ गिरती है. नवंबर से फरवरी माह के दौरान ही बर्फबारी होती है. जनवरी से मार्च के बीच एवलॉन्च आते हैं. लेकिन देखने में यह आ रहा है कि अब सितंबर व अक्टूबर माह में भी बारिश व बर्फबारी हो रही है. तापमान में काफी उतार-चढ़ाव की वजह से यह बर्फ एवलॉन्च का रूप ले रही है.
बता दें बीते दिनों केदारनाथ की पहाड़ियों पर हुए हिमस्खलन ने भी आम लोगों के साथ सरकार की चिंताएं भी बढ़ा दी थी. जब इस बारे में वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों से बात की गई तो उन्होंने केदारनाथ धाम को इसकी वजह बताया. वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने कहा ये तूफान केदारनाथ में अंधाधुंध हो रहे कार्यों के कारण आ रहा है. वैज्ञानिक ये मान रहे हैं की ये तो सिर्फ ट्रेलर है. अभी कुछ ऐसा हो सकता है जिसकी हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं. इसलिए विकास के साथ-साथ हमें पहाड़ों का भी ध्यान रखना होगा.