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चमोली के जिस रैंणी गांव से शुरू हुई आपदा की कहानी, जानें उसका इतिहास

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Published : Feb 7, 2021, 10:49 PM IST

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चमोली के जिस रैंणी गांव से शुरू हुई आपदा की कहानी

उत्तराखंड में जल प्रलय का पावर सेंटर रहे रैंणी गांव का इतिहास बहुत पुराना है. ये गांव इससे पहले चिपको आंदोलन को लेकर देश-दुनिया में सुर्खियां बटोर चुका है.

देहरादून: चमोली में ग्लेशियर फटने से बड़ी तबाही हुई है. चमोली जिले जोशीमठ में ग्लेशियर टूटने से धौलीगंगा नदी में बाढ़ आ गई. जिससे बड़ी तबाही हुई है. चमोली के जिस रैंणी गांव से इस घटना की शुरूआत हुई है. उत्तराखंड के इतिहास में ऐसा नहीं है कि रैंणी गांव पहली बार सुर्खियों में आ रहा है. इससे पहले ही चिपको आंदोलन को लेकर रैंणी गांव ने देश ही नहीं दुनिया में सुर्खियां बटोरी थी. पर्यवारण के लिहाज से यहां चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी. मगर अज उसी पर्यावरणीय मार के कारण एक बार फिर से रैंणी गांव चर्चाओं में है.

रैंणी गांव से शुरू हुई आपदा की कहानी

जोशीमठ से 26 किलोमीटर दूर है रैंणी गांव

रैणी गांव जोशीमठ ब्लॉक मुख्यालय से 26 किलोमीटर दूर है. रैंणी गांव के करीब ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट ग्लेशियर फटने से पूरी तरह तबाह हो गया है. इस प्रोजेक्ट को काफी नुकसान पहुंचा है. इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे करीब 150 लोग लापता बताए जा रहे हैं. इतना ही नहीं इस आपदा के बाद यहां से नीचे नदियों के किनारों पर बसे शहरों में भी इसके बाद से हड़कंप मचा हुआ है

रैंणी गांव से शुरू हुई आपदा की कहानी

1973 में देश में हुए चिपको आंदोलन को 48 वर्ष पूरे हो गए हैं. पेड़ों को कटने से बचाने के लिए 1970 के दशक में इस आंदोलन की शुरुआत हुई और धीरे-धीरे इसने व्यापक रूप ले लिया. इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन इसलिए पड़ा क्योंकि लोग पेड़ों को कटने से बचाने के लिए इनसे चिपक जाते थे. इस आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी को माना जाता है.

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चिपको आंदोलन.

गौरा देवी का जन्म 1925 में उत्तराखंड के लाता गांव के मरछिया परिवार में नारायण सिंह के घर में हुआ था. इनकी शादी मात्र 12 वर्ष की उम्र में मेहरबान सिंह के साथ कर दी गई थी, जो कि नजदीकी गांव रैंणी के निवासी थे. हालांकि शादी के 10 साल के बाद मेहरबान सिंह की मौत हो गई और गौरा देवी को अपने बच्चों के लालन-पालन में काफी दिक्कतें आईं. फिर भी उन्होंने उनका अच्छे से पालन-पोषण किया और अपने बेटे चंद्र सिंह को स्वालंबी बनाया. उन दिनों भारत-तिब्बत व्यापार हुआ करता था, जिसके जरिये गौरा देवी अपनी आजीविका चलाती थीं.

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ऋषिगंगा डैम.

1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बंद हो गया तो चंद्र सिंह ठेकेदारी, ऊनी कारोबार और मजदूरी के जरिये परिवार का खर्च चलाने लगे. इसके बाद गौरा देवी गांव के लोगों के सुख-दुख में सहभागी होने लगीं. इस बीच अलकनंदा नदी में 1970 में प्रलयंकारी बाढ़ आई. इस बाढ़ के बाद यहां के लोगों में बाढ़ के कारण और इसके उपाय के प्रति जागरूकता बढ़ी.

ऐसे पड़ी चिपको आंदोलन की नींव

भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार को चमोली की सुध आई और यहां पर सैनिकों के लिए सुगम मार्ग बनाने की योजना बनाई गई. इस योजना के तहत मार्ग में आने वाले पेड़ों की कटाई शुरू हो गई. इससे वहां के स्थानीय लोगों में इसे लेकर विरोध पनपने लगा. उन्होंने हर गांव में महिला मंगल दलों की स्थापना की. 1972 में गौरा देवी को रैंणी गांव की महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुना गया. इस दौरान ही वे चंडी प्रसाद भट्ट, गोविंद सिंह रावत, वासवानंद नौटियाल और हयात सिंह के संपर्क में आईं। जनवरी 1974 में रैंणी गांव के 2451 पेड़ों को कटाई के लिए चिह्नित किया गया. 23 मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों के काटे जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन किया गया, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया.

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रेस्क्यू ऑपरेशन.

पेड़ों की कटाई के लिए वन विभाग ने चली चाल

स्थानीय प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तारीख 26 मार्च तय की गई, जिसे लेने के लिए सभी को चमोली आना था। इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने के लिए ठेकेदारों को निर्देश जारी किया कि 26 मार्च को चूंकि गांव के सभी मर्द चमोली में रहेंगे और सामाजिक कायकर्ताओं को बातचीत के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जाएगा, इसलिए आप मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी चले जाओ और पेड़ों को काट डालो.

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रैंणी गांव से शुरू हुई आपदा की कहानी

21 महिलाओं संग पेड़ से चिपक गईं

जब उत्तराखंड के रैंणी गांव के जंगल के लगभग ढाई हज़ार पेड़ों को काटने की नीलामी हुई, तो गौरा देवी के नेतृत्व मे रैंणी गांव की महिला मंगल दल की 21 अन्य महिलाओं ने इस नीलामी का विरोध किया। इसके बावजूद सरकार और ठेकेदार के निर्णय में बदलाव नहीं आया. जब ठेकेदार के आदमी पेड़ काटने पहुंचे, तो गौरा देवी और उनकी 21 साथियों ने उन लोगों को समझाने की कोशिश की. जब उन्होंने पेड़ काटने की जिद की तो महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर उन्हें ललकारा कि पहले हमें काटो फिर इन पेड़ों को भी काट लेना. अंतत: ठेकेदार को जाना पड़ा. बाद में स्थानीय वन विभाग के अधिकारियों के सामने इन महिलाओं ने अपनी बात रखी. फलस्वरूप रैंणी गांव का जंगल नहीं काटा गया। इस प्रकार यहीं से 'चिपको आंदोलन' की शुरुआत हुई.

जंगल को बताती थीं अपना मायका

दस साल बाद गौरा देवी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि भाइयों ये जंगल हमारा मायका (मां का घर) जैसा है। यहां से हमें फल-फूल, सब्जियां मिलती हैं. यदि यहां के पेड़-पौधे काटोगे तो निश्चित ही बाढ़ आएगी. जो 7 फरवरी 2021 को सही साबित हुई.

Conclusion:

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