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सत्ता रूठी तो हिल गयी कांग्रेस की आर्थिक बुनियाद, बिना प्रचार कैसे तोड़ेगी मोदी का तिलिस्म

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Published : Aug 24, 2021, 2:46 PM IST

Updated : Aug 24, 2021, 7:57 PM IST

सत्ता से वनवास कितना मुश्किल होता है यह बात आज कांग्रेस से बेहतर कौन जान सकता है. इन सालों में ही पार्टी नेताओं ने ऐसे हालात महसूस किए हैं, जिसकी कल्पना शायद ही कभी की गई हो. स्थिति ये है कि आज संगठन चलाने तक के लिए पैसा जुटाना भारी पड़ने लगा है. उधर, उत्तराखंड समेत पांच राज्यों में मोदी के करामाती तिलिस्म को बेअसर करना इन हालातों में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.

economic crisis on congress
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देहरादून: गरीबी और तंगहाली के क्या मायने होते हैं, इस बात को आज देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अच्छे से महसूस कर रही है. पाई-पाई बचाने की कीमत को पार्टी नेताओं ने भी समझ लिया है. दरअसल, सत्ता से दूर होने के बाद पार्टी की कमाई जिस तेजी से कम हुई है, उससे पार्टी के लिए आर्थिक रूप से संसाधनों को जुटाना काफी मुश्किल हो रहा है. खास तौर पर तब, जब महंगाई के साथ चुनाव भी महंगे हुए हैं और चुनाव की तैयारियां भी.

प्लेन छोड़ो ट्रेन पकड़ो: यह सब सुनने में थोड़ा अजीब जरूर लगेगा, लेकिन यह बिल्कुल सच है कि आज कांग्रेस पाई-पाई के लिए मोहताज हो गई है. ऐसा न होता तो पार्टी अपने खर्चों में कटौती करने को मोहताज नहीं होती. जानकारी के अनुसार, ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी ने पार्टी पदाधिकारियों की यात्राओं को लेकर दी जाने वाली रकम में कटौती की है. पार्टी पदाधिकारियों को हवाई जहाज की जगह ट्रेन को वरीयता दिए जाने की सलाह भी दी जा रही है.

कांग्रेस के सामने आर्थिक संकट गहराया.

माली हालत भी खराब: बहरहाल, ये तो ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बात है. अगर हम राज्य स्तर पर उत्तराखंड की बात करें तो यहां भी कांग्रेस की माली हालत को लेकर कई बार बातें सामने आती रही हैं. कांग्रेस से जुड़े लोग बताते हैं कि उत्तराखंड में कांग्रेस संगठन को चलाने के लिए हर महीने करीब ₹4 लाख ही संगठन को मिल पाते हैं. हालांकि, चुनाव नजदीक आते-आते अब इस रकम में बढ़ोत्तरी कर 5 लाख किए जाने की खबर है.

वैसे ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य को ₹600 सालाना और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्यों को ₹300 सालाना पार्टी फंड में जमा करना होता है. उधर, मंत्रियों विधायकों और सांसदों को अपनी एक महीने की तनख्वाह पार्टी फंड में देनी होती है. राज्य में सरकार होने पर तो संगठन ठीक से चल पाता है, लेकिन जिस राज्य में कांग्रेस की सरकार नहीं वहां पर ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी से हर महीने संगठन को चलाने के लिए कम से कम रकम ही भेजी जाती है. इस रकम में पार्टी कार्यालय का रख-रखाव, स्टेशनरी, कार्यालय में काम करने वाले कर्मियों का वेतन और फर्नीचर समेत दूसरी जरूरी चीजों की पूर्ति की जाती है.

उत्तराखंड कांग्रेस कोष में सिर्फ 14 लाख: मौजूदा समय में उत्तराखंड कांग्रेस के कोष में महज 14 लाख रुपये की पूंजी बची है, जबकि विधानसभा चुनाव नजदीक है. ऐसे में कांग्रेस के लिए चुनाव संपन्न कराना भी किसी चुनौती से कम नहीं है. बात करें चुनावी चंदे की कांग्रेस पार्टी में प्रदेश में चंदा लेने की कोई परंपरा नहीं है, यानी पार्टी प्रदेश में कोई भी चंदा नहीं लेती है. फिर भी अगर पार्टी किसी से चंदा लेती है तो केंद्रीय स्तर.

वहीं, अगर चुनावी खर्चे की बात करें तो कांग्रेस चुनाव के दौरान प्रत्येक प्रत्याशी को 28 लाख रुपये देती है. प्रत्याशी की इसी फंड में चुनाव संपन्न कराना होता है. हालांकि, चुनाव के दौरान 28 लाख रुपये से कहीं ज्यादा खर्च होता है. चुनाव के दौरान विधानसभा स्तर पर प्रत्याशियों की ही पोस्टर और बैनर लगाने की जिम्मेदारी होती है. प्रत्याशी का चुनाव में 28 लाख से ज्यादा कहीं ज्यादा खर्च होता है.

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पार्टी हाईकमान भी नहीं करता मदद: पार्टी हाईकमान की तरफ से प्रत्याशी के खाते में करीब 28 लाख रुपए तक की राशि चुनाव लड़ने के लिए दी जाती है. हालांकि, 2017 में कांग्रेस से चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी कहते हैं कि उनको चुनाव में पार्टी हाईकमान से एक रुपया भी चुनाव लड़ने के लिए नहीं दिया गया. पार्टी की आर्थिक कमजोर हालात को लेकर कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता पवन खेड़ा से जब ईटीवी भारत ने बात की तो उन्होंने कहा कि कांग्रेस सीमित संसाधनों में चुनाव लड़ती है और वह धनबल का अनुचित इस्तेमाल नहीं करती.

बीजेपी का पलड़ा भारी: उत्तराखंड में भाजपा पिछले 5 सालों में कई बार सहयोग राशि जुटाने को लेकर अभियान चला चुकी है. इस दौरान पिछले अभियान में पार्टी ने करीब ₹25 करोड़ भी इकट्ठा किए थे. उधर, राष्ट्रीय स्तर पर भी दानदाताओं की पहली पसंद भाजपा ही रही है. शायद इसीलिए बीजेपी प्रत्याशी से हटकर प्रदेश में बैनर और पोस्टर पर 50 लाख रुपये से ज्यादा खर्च करती है. चंदे के रूप में भारतीय जनता पार्टी को बाकी पार्टियों के मुकाबले प्रमुखता दी है.

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एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले करीब 5 गुना कम चंदा मिल पाया था. उत्तराखंड के स्तर पर बात करें तो पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को पार्टी विधायकों और सांसदों समेत पार्टी नेताओं को भी बार-बार यह पत्र जारी करना पड़ा था कि वह पार्टी फंड में सहयोग राशि जमा करें, लेकिन इसके बावजूद भी कुछ खास रकम पार्टी को नहीं मिल पाई थी.

वैसे आपको बता दें कि सांसदों, मंत्रियों और विधायकों समेत पार्टी पदाधिकारियों को देर सवेर इस रकम को पार्टी फंड में देना ही होता है. ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले सम्मेलन में उन्हीं मंत्रियों विधायकों और पदाधिकारियों को शामिल होने की अनुमति होती है, जो पार्टी फंड में अपनी सभी पुरानी देनदारियां क्लियर करते हैं.

भाजपा कहीं आगे निकली: इस मामले में भाजपा पार्टी फंड इकट्ठा करने में कांग्रेस से कहीं आगे है. प्रचार-प्रसार में भी सत्ताधारी भाजपा कांग्रेस से कई गुना आगे दिखाई देती है. इस स्थिति को कांग्रेस जहां गरीब की एक अमीर पार्टी से लड़ाई के रूप में प्रचारित करती है, तो वहीं भाजपा इस मामले पर कांग्रेस के नेताओं को आड़े हाथ लेते हुए उस विवादित पुराने वीडियो का जिक्र करती है, जिसमें हरीश रावत मंत्रियों से करोड़ों के लेन-देन की बात कहते हुए दिखाई देते हैं. सरकार के शासकीय प्रवक्ता सुबोध उनियाल कहते हैं कि इस मामले में हाथी के दिखाने के दांत कुछ और खाने के कुछ और हैं.

अब भाजपा कुछ भी कहे लेकिन सामने तो यही स्थिति दिख रही है कि संगठन चलाने तक के लिए कांग्रेस को पैसा जुटाना भारी पड़ने लगा है. ऐसी ही स्थिति रही तो उत्तराखंड समेत पांच राज्यों में मोदी के तिलिस्म को बेअसर करना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है.

Last Updated : Aug 24, 2021, 7:57 PM IST
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