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Himalaya Day: ब्लैक कार्बन से ग्लेशियर को खतरा, हिमालय तक पहुंचा 'काला दुश्मन'

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Published : Sep 9, 2021, 2:12 PM IST

ग्लोबल वॉर्मिंग तो ग्लेशियरों की दुश्मन बनी ही थी, अब ब्लैक कार्बन भी नया शत्रु बनकर सामने आया है. ब्लैक कार्बन ने चुपके से हिमालय तक पैठ बना ली है. ये कैसे ग्लेशियरों तक पहुंच रहा है और उन्हें किस तरह नुकसान पहुंचा रहा है, पढ़िए ये खास रिपोर्ट...

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हिमालय दिवस

देहरादून: दुनिया भर के क्लाइमेट में हो रहा बदलाव एक गंभीर समस्या बनती जा रही है. हालांकि, क्लाइमेट चेंज को लेकर वैज्ञानिक लगातार अपने तर्क दे रहे हैं. बावजूद इसके क्लाइमेट चेंज को रोकने के लिए कोई भी पहल कारागार साबित नहीं हो पाई है. वहीं, क्लाइमेट चेंज होने में ग्रीन हाउस गैसों के बाद ब्लैक कार्बन बड़ी भूमिका निभा रहा है. जिससे न सिर्फ जलवायु परिवर्तन की समस्या उत्पन्न हो रही है, बल्कि पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाने वाले जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों को तो नुकसान हो रहा है. इसके साथ ही इसका सीधा असर ग्लेशियर पर भी पड़ रहा है.

वाडिया के वैज्ञानिकों द्वारा की गई रिसर्च के अनुसार ब्लैक कार्बन की वजह से ग्लेशियर रेखा पीछे की ओर खिसक रही है. क्या है ब्लैक कार्बन, ब्लैक कार्बन से किस तरह ग्लेशियर को हो रहा है नुकसान. कितने समय तक वातावरण में मौजूद रहता है ब्लैक कार्बन. ब्लैक कार्बन को नियंत्रित करने के क्या है उपाय? देखिए ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट...

हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर मानव जीवन समेत जीव जंतुओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है. क्योंकि, यह ग्लेशियर एक तरह से रिजर्व वाटर है, जो नदियों को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाता है. हालांकि, ग्लेशियर का पिघलना और ग्लेशियर का बढ़ना, यह एक नेचुरल प्रक्रिया है. लेकिन इससे अलग ग्लेशियरों के मेल्ट होने के भी कई कारण भी हैं, जिसमें मुख्य वजह क्लाइमेट चेंज है. वही, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी द्वारा किए गए रिसर्च के अनुसार ब्लैक कार्बन की वजह से ग्लेशियर पीछे की ओर खिसक रहे हैं, जो एक बहुत गंभीर समस्या है.

क्या है ब्लैक कार्बन: जीवाश्म ईंधन, लकड़ी और अन्य ईंधन के अपूर्ण दहन से उत्सर्जित कणिकीय पदार्थ (Particulate Matter) ब्लैक कार्बन कहलाता है. ब्लैक कार्बन वातावरण में आने के साथ ही वायुमंडल में तापमान में बृद्धि कर देता है. हालांकि, ब्लैक कार्बन, वायुमंडल में उत्सर्जन के कुछ सप्ताह तक स्थिर रहता है. यानी, यह एक अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक है. जो कुछ ही दिनों में जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियर मेल्टिंग, कृषि और मानव के स्वास्थ्य पर किसी न किसी रूप में असर डालता है. क्योंकि ब्लैक कार्बन, सूर्य से आने वाली ऊर्जा को अवशोषित कर लेता है, जिसके चलते वातावरण के तापमान में बृद्धि हो जाती है.

ब्लैक कार्बन का ग्लेशियर पर असर: ब्लैक कार्बन, बादल निर्माण के साथ-साथ क्षेत्रीय परिसंचरण और वर्षा को भी प्रभावित करता है. इसके साथ ही बर्फ और ग्लेशियर की सतह पर ब्लैक कार्बन निक्षेपित (बैठने) होने पर, ब्लैक कार्बन और सह-उत्सर्जित कण, एल्बिडो (सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने की क्षमता) के प्रभाव को कम कर देता है. जिससे बर्फ और ग्लेशियर के सतह के तापमान में वृद्धि हो जाती है. जिसके कारण हिमालई क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर और ग्लेशियर क्षेत्रों के बर्फ पिघलने लगती है. यही नहीं जब ब्लैक कार्बन उच्च हिमालई क्षेत्रों तक पहुंचता है तो ऐसे में वहां गर्मी इतनी बढ़ जाती है कि धीरे-धीरे वहां मौजूद ग्लेशियर की रेखा ऊपर की ओर खिसकने लगती है. इसके साथ ही उच्च हिमालई क्षेत्रों में पाए जाने वाली अमूल्य जड़ी-बूटियां भी विलुप्त होने लग जाती हैं.

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ब्लैक कार्बन की वजह से हो सकती हैं तमाम बीमारियां: ब्लैक कार्बन और इसके सह-प्रदूषक सूक्ष्म कणिकीय पदार्थ (PM2.5) वायु प्रदूषण के प्रमुख घटक हैं. यह ना सिर्फ ग्लेशियर, बर्फ, वनस्पति समेत जड़ी-बूटियों को प्रभावित करता है बल्कि किसी ना किसी रूप में मानव जीवन के स्वास्थ्य पर भी बड़ा असर डालता है. ब्लैक कार्बन की वजह से हृदय और फेफड़े के रोग के साथ ही स्ट्रोक, हार्टअटैक, सांस संबंधी समस्या के साथ ही तमाम बीमारी होने के आसार रहते हैं. यानी कुल मिलाकर देखें तो अगर ब्लैक कार्बन मानव शरीर के अंदर जाता है तो वह कई तरह की बीमारियां उत्पन्न कर सकता है.

ब्लैक कार्बन को नियंत्रित करने के उपाय: मुख्य रूप से देखें तो ब्लैक कार्बन लकड़ी जलाने, जंगलों में आग लगने, इंडस्ट्री से निकलने वाला धुंआ, ईट भट्ठों, खेतों में पराली जलाने, कूड़ा करकट को जलाने, वाहनों से निकलने वाला धुंआ आदि से उत्पन्न होता है. ऐसे में खाना बनाने के लिए लकड़ियों की जगह बायोमास स्टोव, एलपीजी का इस्तेमाल करना चाहिए. इसके अतिरिक्त उद्योगों में सॉफ्ट ईट भट्टों का प्रयोग किया जाना चाहिए. कार्बन उत्सर्जन मुक्त बसों और ट्रकों को भी अनुमति देनी चाहिए. खेतों में पराली जलाए जाने की परंपरा पर प्रतिबंध लगाना चाहिए. नगरपालिका द्वारा अवशिष्ट को खुले में जलाए जाने पर प्रतिबंध लगान चाहिए. जंगलों में आग लगने की घटना को रोकने के साथ ही वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर तमाम सुझाव भी दिए जाते रहे हैं, जिन्हें मुख्य रूप से पालन करने की आवश्यकता है.

जलवायु परिवर्तन करने में सेकंड मोस्ट इंर्पोटेंट एंथ्रोजेनिक एजेंट है ब्लैक कार्बन: ज्यादा जानकारी देते हुए वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी ने बताया कि ब्लैक कार्बन, वातावरण के तापमान को बढ़ाता है. क्योंकि ब्लैक कार्बन सूर्य की ऊष्मा को अवशोषित कर लेता है. जिससे आसपास के वातावरण का तापमान इनक्रीस हो जाता है.

पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन करने में सेकंड मोस्ट इंर्पोटेंट एंथ्रोजेनिक एजेंट है. हालांकि, जलवायु परिवर्तन करने में ग्रीन हाउस गैस पहले नंबर पर आती है. वातावरण गर्म होने की वजह से, हिमालयन इको सिस्टम पर सीधा असर पड़ता है. साथ ही बताया कि वातावरण का तापमान बढ़ने की कई अन्य वजह भी हैं. लेकिन मुख्य वजह ब्लैक कार्बन ही है. हिमालयन इको सिस्टम प्रभावित होने से हिमालई क्षेत्रों में पाए जाने वाले पेड़-पौधों के साथ ही बर्फ और ग्लेशियर सीधे तौर से प्रभावित हो रहे हैं.

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हिमालयी क्षेत्रों तक पहुंच गया है ब्लैक कार्बन: साथ ही पूर्व वाडिया वैज्ञानिक पीएस नेगी ने बताया कि वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी ने पहली बार हिमालयी क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन की स्थिति को जानने के लिए गंगोत्री ग्लेशियर के पास दो उपकरण लगाए हैं. पहला भोजवासा और दूसरा चीड़वासा में मॉनीटरिंग स्टेशनों की निगरानी के लिए स्थापित किया गया है. हालांकि इससे पहले ग्लेशियर के आसपास ब्लैक कार्बन का क्या कंसंट्रेशन है किसी को पता ही नहीं था. ग्लेशियर के समीप उपकरण स्थापित करने के बाद यह पता चला कि ग्लेशियर के समीप तक ब्लैक कार्बन पहुंच चुका है. 0.01 माइक्रोग्राम से लेकर 4.62 माइक्रोग्राम तक वेरिएशन पाया गया है. हालांकि, जो इंस्ट्रूमेंट लगाए गए हैं यह वातावरण से सैंपल कलेक्ट कर वातावरण में मौजूद ब्लैक कार्बन की स्थिति को बताते हैं.

ग्लेशियर के समीप मौजूद ब्लैक कार्बन उस क्षेत्र के इको सिस्टम को कर रहा है प्रभावित: साथ ही बताया कि गंगोत्री ग्लेशियर की पास स्थापित किए गए उपकरण का रिपोर्ट दो बार ही कलेक्ट किया जा सकती है. यही वजह है कि वाडिया के वैज्ञानिक साल में दो बार अक्टूबर और मई-जून में रिपोर्ट कलेक्ट करने जाते हैं. क्योंकि, इससे पहले और बाद में पूरा क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है. इस वजह से वहां जाना नामुमकिन है. साथ ही बताया कि हाल ही में जो रिपोर्ट मिली है उसके अनुसार 0.01 माइक्रोग्राम से लेकर 4.62 माइक्रोग्राम तक वेरिएशन पाया गया है. लेकिन उसका कितना प्रभाव पड़ रहा है यह एक शोध का विषय है. लेकिन यह तय हो गया है कि ग्लेशियर के पास ब्लैक कार्बन मौजूद है. जिस वजह से वातावरण को गर्म कर रहा होगा. इस वजह से उस के इको सिस्टम पर सीधा असर पड़ेगा।

करीब 7 दिन तक वातावरण में सक्रिय रहता है ब्लैक कार्बन: साथ ही पूर्व वाडिया वैज्ञानिक पी एस नेगी ने बताया कि ब्लैक कार्बन एक पार्टिकुलेट मैटर है. जिस वजह से पेड़ पौधे इसे अवशोषित नहीं कर पाते हैं. लेकिन ब्लैक कार्बन की सबसे बड़ी बात यह है कि यह वातावरण में कुछ हफ़्तों तक सक्रिय रहता है. इसके बाद वह फिर प्रिस्पिटेट हो जाता है. लेकिन विश्व के अन्य क्षेत्रों और देश की तमाम जगहों से ब्लैक कार्बन हवा के माध्यम से उड़कर हिमालय क्षेत्र में पहुंच जाता है.

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जब मानसून 'अरेबियन सी' और 'वे ऑफ़ बंगाल' से आता है तो उसके साथ भी ब्लैक कार्बन के कुछ पार्टिकुलेट मैटर भी आ जाते हैं. ये फिर अपना प्रभाव डालते हैं. लेकिन अगर ब्लैक कार्बन लिविंग कंडीशन में किसी बर्फ या फिर ग्लेशियर के अंदर दब जाता है, तो वह लंबे समय तक लिविंग कंडीशन में ही रहता है. फिर ब्लैक कार्बन आसपास के वातावरण को गर्म करना शुरू कर देता है, जिससे बर्फ और ग्लेशियर के पिघलने की प्रक्रिया तेज हो जाती है.

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