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हिरोशिमा-नागासाकी विनाश की 75वीं वर्षगांठ विनाश से सबक सीखने का वक्त

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Published : Aug 6, 2020, 9:00 AM IST

Updated : Aug 6, 2020, 12:31 PM IST

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हिरोशिमा की 75वीं बरसी

हिरोशिमा पर पहला परमाणु बम गिराने की आज 75वीं वर्षगांठ है. यह काफी संतोष की बात है कि अगस्त 1945 में हिरोशिमा-नागासाकी के बाद परमाणु बम का कभी उपयोग नहीं हुआ है. यह अनुमान लगाया गया था कि इस परमाणु प्रलय में 120,000 से अधिक निर्दोष जापानी नागरिक मारे गए थे और कई अधिक लोग झुलस गए थे. उस बंजर रेडियोधर्मी कब्रिस्तान में जो मशरूम के बादल से बाहर निकले उनके लिए यह एक ऐसा कडुआ सच बन गया, जिसमें जीवित मृतकों को अपने से ज्यादा भाग्यशाली मानने लगे.

हिरोशिमा पर पहला परमाणु बम गिराने की आज 75 वीं वर्षगांठ है. यह काफी संतोष की बात है कि अगस्त 1945 में हिरोशिमा-नागासाकी के बाद परमाणु बम का कभी उपयोग नहीं हुआ है. यह अनुमान लगाया गया था कि इस परमाणु प्रलय में 120,000 से अधिक निर्दोष जापानी नागरिक मारे गए थे और कई अधिक लोग झुलस गए थे. उस बंजर रेडियोधर्मी कब्रिस्तान में जो मशरूम के बादल से बाहर निकले उनके लिए यह एक ऐसा कडुआ सच बन गया, जिसमें जीवित मृतकों को अपने से ज्यादा भाग्यशाली मानने लगे.

1945 से 75 वर्षों के बाद भाग्यवश और प्रमुख शक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ के बीच रणनीतिक विवेक के संयोजन के सराहनीय संयम के कारण दुनिया में आज तक कभी फिर से परमाणु बम का इस्तेमाल नहीं किया गया. हालांकि ऐसी एक स्थिति 1962 में क्यूबा मिसाइल संकट के दौरान फिर से उपस्थित हो गई थी. नागासाकी में 9 अगस्त, 1945 में अणुबम गिराने के बाद कभी दूसरी बार इस भीषण अस्त्र का प्रयोग नहीं किया गया.

लेकिन दुनिया की वर्त्तमान परमाणु परिस्थिति को देख कर इस बात की आशा करना मुश्किल लगता है कि हिरोशिमा की 80वीं साल गिरह तक दुनिया अपने इस कीर्तिमान को कायम रख पाएगी. गुत्थी में एक चिंताजनक बात तीन अगस्त को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद द्वारा सुपुर्द एक विश्वस्त रिपोर्ट में कही गई है कि परमाणु हथियार से लैस उत्तर कोरिया ने संभवतः ऐसे लघु अणुबम बना लिए हैं जिन्हें बैलिस्टिक मिसाइल में लगाया जा सकता है.

इस रिपोर्ट की सत्यता की जांच संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद करेगी जिसका भारत एक अस्थायी सदस्य बनने वाला है. प्योंगयांग ने बहुत अशांत क्षेत्र में अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जो कदम उठाए हैं वे केवल हिमशैल की शिखर मात्र हैं. दुनिया के सबसे शक्तिशाली और राजनीतिक रूप से मुखर राष्ट्र (सुरक्षा परिषद के पांच सदस्य) और सबसे समृद्ध (जी 20) देश अभी भी अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए परमाणु हथियार पर भरोसा करते हैं जो पारस्परिक विनाश को सुनिश्चित करते हैं.

संज्ञानात्मक स्तर पर, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़े पैमाने पर विनाश के हथियार से डर को कम करने के लिए परमाणु हथियारों की संख्या बढ़ाने को जायज माना जाता है. ज्यादा को बेहतर समझा जाता है भले ही कम हथियार से उतनी ही सुरक्षा क्यों न मिलती हो और महाशक्तियों में परमाणु हथियार के मामले में एक सीमा तय करने का लक्ष्य पूरा न हो सकता हो.

इस हद तक उत्तर कोरिया और उससे अधिक परमाणु शक्ति की क्षमता वाले संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के बीच असुरक्षा पर पत्राचार असंगत और अकाट्य हो गए हैं.

शीत युद्ध की चरम स्थिति के दौरान दोनों महाशक्तियों के बीच 55,000 से अधिक सूटकेस 'संस्करण सहित सामरिक परमाणु आयुध थे. दिसंबर 1991 में सोवियत रूस के विघटन और शीत युद्ध के बाद के विश्व में, परमाणु हथियारों में एक बड़ी कमी को लागू किया गया था. भारत ने 1974 में परमाणु परीक्षण किया था लेकिन अपनी इस क्षमता को हथियार में नहीं बनाया था और उसकी परमाणु स्थिति निलंबित रही.

परमाणु स्थिरता को 1970 में औपचारिक रूप से परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) द्वारा बनाए रखा गया था. संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच एक समझौता हुआ जिसमें वैश्विक परमाणु क्लब को सीमित और अनन्य रखने का तय किया गया. एनपीटी का प्राथमिक उद्देश्य पराजित धुरी शक्तियों (जर्मनी, जापान और इटली) को इस क्षमता को प्राप्त करने से रोकना था. इसके पीछे तर्क यह था कि प्रमुख महाशक्तियों को अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु हथियार आवश्यकता हैं और वे उन लोगों को मदद करेंगे जिन्हें इसकी आवश्यकता होगी. यदि अन्य सभी राष्ट्र अपनी असुरक्षाओं के बावजूद परमाणु हथियार हासिल करने के अधिकार का त्याग कर देंगे तो दुनिया एक सुरक्षित स्थान बन जाएगी.

स्पष्ट था कि ऐसी व्यवस्था व्यावहारिक नहीं थी. शीत युद्ध के बाद के समय में भारत, पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया ने परमाणु परीक्षण करके यह साबित कर दिया कि उनमें भी बड़े पैमाने के संहारक हथियार रखने की क्षमता है.

इजरायल ने एक अपारदर्शी स्थिति प्राप्त की और इराक, ईरान और लीबिया जैसे देशों को परमाणु हथियार के रास्ते पर आगे बढ़ने से अलग रूप से रोका गया. संक्षेप में, वैश्विक परमाणु क्लब को राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा के अधिकार के एकपक्षीय दावे से विस्तारित किया गया और परमाणु शक्ति अभेद्य सुरक्षा कवच का पर्याय बन गया.

एक विचलित करने वाले पैटर्न में, परमाणु हथियार का मुख्य मिशन, जो 'अन्य' के परमाणु ताकत को रोकना था, पिछले दो दशकों में कमजोर पड़ गया, विशेष रूप से वैश्विक आतंकवाद द्वारा उत्पन्न चुनौती के बाद जैसा कि 2001 के 9/11 और 2008 के मुंबई आतंकी हमला में प्रकट हुआ था. परमाणु हथियार सक्षम आतंकवाद एक जटिल चुनौती बन गया है. कुछ राज्य नेताओं की जटिलता आगे चलकर इस क्षेत्र को प्रभावित करती है. इसके अलावा, तकनीकी विकास के कारण ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जहां गैर-राज्य व्यक्ति भी फिशाइल सामग्री का उपयोग कर सकते हैं और सामाजिक स्थिरता के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं.

मशरूम के बादल के बिना दुनिया फिर से हिरोशिमा की 75 वीं वर्षगांठ पर पहुंच गई, क्योंकि प्रमुख शक्तियों के बीच विश्वास था कि परमाणु हथियार एक वर्जित शब्द है और राजनीतिक और सुरक्षा कलह के बावजूद दुसरे स्तरों पर काम किया जाएगा. दुर्भाग्य से 2020 में ऐसा नहीं है जैसा कि अमेरिका और रूस के बीच और चीन और अमेरिका के बीच तनाव में प्रतिबिंबित हो रहा है.

अफसोस है कि कई शक्तियां अब मानती हैं कि सामरिक परमाणु हथियार एक विकल्प है और योग्य परमाणु प्रयोग करने के लिए नीतियों को आगे बढ़ाया जा रहा है. उत्तर कोरिया असुरक्षा के कारण परमाणु हथियार का उपयोग करने में अकेला नहीं है. निश्चित रूप से दुनिया पर अगले छह अगस्त तक परमाणु शक्ति के काले बादल धीरे-धीरे इकट्ठा होते जा रहे हैं. दुनिया का नेतृत्व हिरोशिमा से सबक सीखाने में कमजोर नजर आ रहा है.

(लेखक- सी उदय भास्कर)

Last Updated :Aug 6, 2020, 12:31 PM IST
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