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दिल्ली कहां गईं तेरे कूचों की रौनकें...

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Published : Apr 22, 2022, 4:52 PM IST

Updated : Apr 22, 2022, 5:27 PM IST

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दंगों की आंच में पहले भी दिल्ली जली थी. उस दर्द के जख्म अभी हरे हैं और फिर ये वाकए, जो बता रहे हैं कि हर तबके के अच्छे लोगों ने खामोशी ओढ़ ली है. उत्पाती लोग आततायी बनते जा रहे हैं. दिल्ली की गली-चौराहों पर बैठे लोगों की सुनिए. कुछ बिल्कुल एक तरफा होंगे तो कुछ लोग दिल्ली की परवाह लिए अपनी बात रख रहे होंगे. आपको तय करना है कि हमें किसकी बात सुननी है.

- विशाल सूर्यकांत

अपने-अपने जीने का तरीका, अपनी-अपनी जद्दोजहद में दशकों से चली जा रही थी जिदंगियां. मगर आम लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ पर धर्म-मजहब का चोला ओढ़े सियासत ने अपना ऐसा घर बना लिया है कि वहां बस्तियां उजड़ गईं. कसूर सिर्फ सरकारी बुलडोजर को मत दीजिएगा. क्योंकि पहले तो जहांगीरपुरी के लोगों ने आपसी भाईचारा ख़त्म कर अपनी शांत बस्ती को अशांत किया है. किसने क्या किया, कौन क्या बोला...ये सब बातें बेमानी हो जाया करती हैं. जब नतीजा ये हो जाए कि दर्जनों घरों में मौत सा सन्नाटा है. लोग मरे नहीं, लेकिन उनकी जिंदगी जीने का हौसला मानो मर गया. एक दुकान सिर्फ कारोबार की जगह नहीं हुआ करती. नुक्कड़ पर लगी एक गुमटी भी किसी के जज्बे की निशानी है. किसी की ख्वाहिशों की ताबीर है. वो आत्मनिर्भरता की मिसाल भी है, स्वाभिमान का प्रतीक भी है. मगर दोनों ओर की भीड़ इतनी उन्मादी हो गई कि सपने बिखर गए. एक-एक मोती की मानिंद पिरोई जिंदगी, एक झटके में टूटकर दूर तक बिखर गई. इसे फिर बटोरने-संवारने में कई साल लगेंगे. सिर्फ दुकानें नहीं टूटीं, सिर्फ सामान ही नहीं लूटा...दिल के रिश्ते टूटे हैं, विश्वास की डोर लूट ली गई है. लुटेरे कौन हैं. इस सवाल का जवाब किसी और के धर्म-मजहब के लोगों में नहीं, बल्कि अपने गिरेबां में झांककर खोजिए. अगर वाकई पूरी शिद्दत से गिरेबां में झांका तो सही-सही जवाब मिलेगा. न राम ने चाहा कि दंगे फसाद हों, न रहीम अपनी जिंदगी का सुकून खोना चाहता है. तो फिर पहचानिए वो कौन लोग हैं, जो दोनों तबकों में छिपे बैठे हैं. ऐसे जाहिलों को तलाशिए, उन्हें पहचानिए. कुछ न कर पाएं तो उनकी बातों को अनसुना कर दीजिए. दिल्ली तो सबकी है.. तो फिर जहांगीरपुरी कैसे अलग हो गई?

दंगों की आंच में पहले भी दिल्ली जली थी. उस दर्द के जख्म अभी हरे हैं और फिर ये वाकए, जो बता रहे हैं कि हर तबके के अच्छे लोगों ने खामोशी ओढ़ ली है. उत्पाती लोग आततायी बनते जा रहे हैं. दिल्ली की गली-चौराहों पर बैठे लोगों की सुनिए. कुछ बिल्कुल एक तरफा होंगे तो कुछ लोग दिल्ली की परवाह लिए अपनी बात रख रहे होंगे. आपको तय करना है कि हमें किसकी बात सुननी है. अगर आपको लगता है कि दंगे-फसाद के उन्माद में कुछ नहीं होता तो ये दिल्ली के कारोबार से जुड़ी संस्था चैंबर ऑफ कॉमर्स का ही आंकडा़ है कि दिल्ली दंगों में करीब 25 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो गया. पुलिस की रिपोर्ट बताती है कि 167 लोग गिरफ्तार हुए. 885 लोगों को हिरासत में लिया गया. पुलिसिया कार्रवाई की गिरफ्त में आना जिंदगी भर की तोहमत है. उन्मादी लोगों को इस बात को समझना होगा. सवाल ये भी उठता है कि ऐसे मौकों पर मोहल्लों की शांति समितियां व रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन क्यों नेपथ्य में डाल दी जाती हैं. ऐसे मौक़ों के लिए ही भाईचारा समिति व मोहल्ला शांति समितियां बनाई जाती हैं. राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता अपने बीच में घुस आने वाले उन उग्र चेहरों को बेनकाब क्यों नहीं करते?

लोकतंत्र है, एक बस्ती में कई राजनीतिक दलों के जमीनी कार्यकर्ता होते हैं. अगर वाकई राजनीति ये नहीं चाहती कि फसाद हो. ये शर्तिया दावा है कि फसाद हो नहीं सकता. इस मर्म को समझिए कि राजनीति को मुद्दों का शिकार चाहिए. आप कहीं उनकी चाहतों का निवाला तो नहीं बन रहे. आज दिल्ली में हर नेता का रुख जहांगीरपुरी की ओर है. जो सत्ता में हैं, उनका भी, जो दिल्ली की सत्ता में नहीं हैं, उनका भी. आखिर इनकी नीयत क्या है? जख्म तो कल भी इनके दिलों में थे, गरीबी का दर्द हर पल इनको खाए जा रहा था. हाशिए पर होने का दंश कल भी इन्हें सताता था. बेबसी के उस आलम और दर्द की आज के शिद्द करे बीच. टूटे मकानों, ध्वस्त दुकानों, और बिखरे अरमानों के सिवाय क्या अलग है. ये जख्म हरा है, जिसमें दबी सिसकियां कल की टीस से कहीं भी तो जुदा नहीं हैं.

कोमल मनों और उनकी धड़कनों, नाजुक लबों तक बहकर आए आंसुओं की धार और बिखरकर खामोश हुए सपनों में आज भी जान है. आज भी जीने की चाह और आगे बढ़ने की हरारत है. कहीं ऐसा तो नहीं इन्हीं सिसकियों की गरमाहट आज की राजनीति अपने वजूद, अपनी बका और अपने कल के लिए करने की कपट मंशा दिलों में छुपाए है. जो बैठे जुबानी जुमलों को गोले फेंक रहे हैं और जो करीब आकर मरहम की सियासी परत रखने की कोशिश कर रहे हैं. इन दोनों की नीय़त जहांगीरपुरी को भांपनी होगी. इनकी हकीकत को समझना होगा. इसके लिए सबसे पहले वक्त बे वक्त दिलो दिमाग, नजर और नजरिए पर नफरत का चश्मा जो दशकों के सफर में लगाया गया है. उसे उसे उतारना होगा. नफरत के घिनौने चीथड़ों को जलाकर ये महसूस करना होगा कि हम हिंदू भी हैं औऱ मुसलमान भी हैं. लेकिन एक साथ, दो जिस्म एक जान भी हैं. क्योंकि रिवायतें, पाबंदियां और तौर-तरीके दिलों को कभी नहीं बांटते. तफरका डालने का काम तो सदियों से ये राजनीति ही करती आई है. जिसका उद्भव अति महत्वाकांक्षा और विद्वेश भावनाओं के मिलन से हुआ है. इसी की आगोश में आने के बाद हमारी और आपकी संवेदनाएं कई बार सर्द हो जाया करती हैं. लिहाज़ा अपनी शिनाख्त, अपनी रिवायतें और अपनी मजहबी पाबंदियों और आजा़दियों के साथ इन संवेदनाओं को भी जिंदा रखिए. यही आपके वजूद और इस समाज के सुर्ख तानेबाने को मजबूती दे सकती है.

आज लोकतंत्र का तकाजा है कि ऐसी घटनाओं का राजनीतिक दल संज्ञान लेते हैं. लेकिन बात शांति, सद्भाव की हो, बात इंसान और इंसानियत की हो. राजनीतिक दलों के नुमाइंदों से जहांगीरपुरी के लोग क्या इतनी उम्मीद लगा सकते हैं कि जख्मों को कुरेदा न जाए, जख्मों पर मरहम लगाया जाए. क्योंकि जख्म केवल एक बस्ती ने ही नहीं बल्कि उस शहर ने खाए हैं. जो सभी को संभालता है...उसका हुनर और उसकी कशिश ऐसी है कि वो पूरे देश की सियासत को संभालता है...अगर लोग संजीदगी से काम लें तो एक मामूली फसाद कतई शहर की शांति पर हावी नहीं हो सकता.

चलते-चलते, आखिरी बात कि कवि-शायर दो लफ्जों में ही दिल-ओ-दिमाग़ का हाल बता देते हैं. ऐसे दो फनकार और उनकी रचनाओं का जिक्र होना जरूरी है, जिनके दिल में दिल्ली बसती है. रामावतार त्यागी दिल्ली के सपनों का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि -

'' मैं दिल्ली हूँ मैंने कितनी, रंगीन बहारें देखी हैं। अपने आँगन में सपनों की, हर ओर कितारें देखीं हैं ।। "

वहीं जां निसार अख्तर दिल्ली से कहते हैं कि " दिल्ली कहाँ गईं तिरे कूचों की रौनक़ें , गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं "

दिल्ली के होने और अपने दिल्ली में होने का लुत्फ उठाइए, ये शहर सबमें समाता है, सबको अपनाता है. इसकी ये आदत मत बदलिए...

Last Updated :Apr 22, 2022, 5:27 PM IST
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