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यूपी में अपना वजूद खो चुकी वामंपथियों को अब 'साइकिल' का सहारा

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Published : Nov 9, 2021, 7:55 PM IST

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उत्तर प्रदेश में जमीन खो चुके वामपंथियों के लिए साइकिल की सवारी एक बेहतर विकल्प है. वामपंथी विचारक, विश्लेषक और समाज वैज्ञानिक प्रो. रमेश दीक्षित ने इसकी वकालत की है. उनका कहना है कि समाजवादी पार्टी के सहारे उनका सत्ता से वंचित रहने का वनवास खत्म हो सकता है. इससे, वामपंथी विचारधारा को एक बार फिर खड़ा किया जा सकेगा.

लखनऊ : वामपंथी विचारक और विश्लेषक प्रो. रमेश दीक्षित का कहना है कि उत्तर प्रदेश में जमीन खो चुके वामपंथियों के लिए साइकिल की सवारी एक बेहतर विकल्प है. ETV Bharat से खास बातचीत के दौरान उन्होंने इस बात पर जोर दिया. प्रो. रमेश दीक्षित ने कहा- 'उत्तर प्रदेश में पिछली कई विधानसभाओं से एक भी सदस्य नहीं है. न सीपीआई का और न ही सीपीएम का.

बिहार में दीपांकर गुप्ता का जो लिब्रेशन ग्रुप है उनको सीट मिल गई है. यहां 25-30 साल पहले तीन विधायक थे. इसलिए, मुझे नहीं लगता कि विधानसभा चुनाव 2022 में वामपंथी कोई बड़ा फर्क डाल पाएंगे. हां, एक गुंजाइश है... संयुक्त मोर्चा की राजनीति. इस समय गैर-भाजपा के रूप में सबसे बड़ी पार्टी समाजवादी पार्टी उभर का सामने आई है. इससे गठबंधन बेहतर विकल्प हो सकता है.'

यूपी में अपना वजूद खो चुकी वामंपथियों को अब 'साइकिल' का सहारा

राम मंदिर मुद्दा उठा तो गिर गया वामपंथियों का ग्राफ

दरअसल, उत्तर प्रदेश में वामपंथी अपनी जमीन खो चुके हैं. चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो राम मंदिर मुद्दा उठने के साथ ही इनका ग्राफ तेजी से गिरा है. प्रो. रमेश दीक्षित कहते हैं कि मंडल कमीशन के बाद से गरीब, मजदूर की पहचान खत्म हो गई. लोग जाति से पहचाने जाने लगे. इसमें ध्रुवीकरण शुरू हुआ. राम मंदिर मुद्दे ने इसे बढ़ावा दिया. कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) और कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) दोनों ही 1990 के दशक में धराशाही होना शुरू हो गईं. 2007 के विधानसभा चुनावों में सीपीआई का वोट शेयर 1.78 प्रतिशत और सीपीएम का 8.64 प्रतिशत होने के बाद भी एक भी सीट नहीं मिली.

  • कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) वर्ष 1951 से राष्ट्रीय दल के रूप में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में शामिल हो रही है. 1951 के चुनाव में पार्टी ने 43 विधानसभा सीट से अपने प्रत्याशी उतारे. नतीजे चौंकाने वाले थे. एक भी सीट पार्टी को नहीं मिली. करीब 38 सीट पर जमानत जब्त तक हो गई.
  • 1957 के चुनाव में तस्वीर बदलनी शुरू हुई. पहली बार उत्तर प्रदेश में सीपीआई के 9 प्रत्याशियों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की वाराणसी, मोहम्मदाबाद, घोसी जैसी सीट पर जीत हासिल की. वर्ष 1962 के चुनाव में यह संख्या बढ़कर 14 हो गई. पूर्वी उत्तर प्रदेश की कोलअसला विधानसभा सीट उनका गढ़ रही है. 1985 के चुनाव को छोड़ दिया जाए तो 1993 तक ऊदल कोलअसला विधानसभा सीट से विधायक रहे हैं. सीपीएम 1967 में उत्तर प्रदेश की राजनीति में उतरी. 57 प्रत्याशियों को मैदार में उतारा. एक ने जीत हासिल की.
  • 1974 तक पहुंचते-पहुंचते सीपीआई का वोटर शेयर बढ़ने लगा. इस चुनाव में 18 सीट वामपंथी संगठनों के खाते में गई. 16 सीपीआई और 2 सीपीएम के पास थी. सीपीआई का वेटर शेयर भी 25 प्रतिशत तक पहुंच गया. 1977 में मित्रसेन यादव ने फैजाबाद की मिल्कीपुर सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. इस चुनाव में सीपीआई को 9 सीट मिली लेकिन, वोट प्रतिशत बढ़कर 35 के आसपास पहुंच गया. सीपीएम का एक प्रत्याशी ही जीत दर्ज कर पाया.
  • 1980 सीपीआई के लिए बेहद खराब साबित हुआ. मिल्कीपुर से मित्रसेन यादव और कोलअसला से ऊदल के साथ 7 सीट मिली. बड़ी संख्या में प्रत्याशियों की जमानत ही जब्त हो गई. 1985 में माफिया मुख्तार अंसारी ने सीपीआई के टिकट पर मऊ के मोहम्मदाबाद सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. अब पार्टी के वोटर शेयर में भारी गिरावट आई. यह 8.1 प्रतिशत के आसपास पहुंच गया.
  • 1991 में सीपीआई के चार और सीपीएम का एक विधायक था. इसी दौरान सीपीआई (एम-एल) भी तस्वीर में आई. राम मंदिर मुद्दे के उठने के बाद पहला चुनाव 1993 में हुआ. सीपीआई के खाते में तीन और सीपीएम के पास एक सीट आई. 1996 में सीपीआई का आंकड़ा गिरकर एक सीट पर पहुंच गया. यहां सीपीएम को चार सीट मिलीं. 2002 में सीपीआई का खाता बंद हो गया. सीपीएम के पास दो सीट थी. 2007 के चुनाव में यह खाता तक नहीं खोल पाए.
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