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Holi Festival 2023: त्रेतायुग से चली आ रही परंपरा, जानें होली का महत्व

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Published : Mar 7, 2023, 8:24 PM IST

होली को धुलीवंदन और धूलेड़ी भी कहते हैं. इसकी शुरुआत त्रेतायुग में भगवान विष्णु जी ने की थी. यह पावन पर्व फाल्गुन मास में मनाया जाता है. Dhulivandan and Dhuledi

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8 मार्च को मनाई जाएगी होली

8 मार्च को मनाई जाएगी होली, जानिए कैसे मनाए त्यौहार

रायपुर : उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र, शूल योग, बालव और कौलव करण का सुंदर प्रभाव है. होली को बसंत उत्सव के नाम से भी जाना जाता है. पर्व में पवित्र होली यानी चिकनी मिट्टी, मुल्तानी मिट्टी या शुद्ध मिट्टी का सनातन काल से उपयोग होता रहा है. मुल्तानी मिट्टी, चिकनी मिट्टी और शुद्ध मिट्टी शरीर के लिए लाभदायक है. शरीर के दुर्गुणों का नाश करती है. ऐसी होली से पूरे शरीर को रमाया जाता है या लगाया जाता है.



नैचुरल तरीके से मनाए होली : ज्योतिष एवं वास्तुविद पंडित विनीत शर्मा ने बताया कि "आज के संदर्भ में हल्दी, मुल्तानी मिट्टी पदार्थों से होली मनाने की परंपरा रही है. वास्तव में यह शुद्धिकरण, शोधन, शुद्ध स्नान, शुद्ध सोच की महान परंपरा का पर्व है. आज के दिन टीसू के फूलों के रंग से होली मनाने की परंपरा रही है. टीसू के फूलों को 1 दिन पहले से ही उपयुक्त पानी में भिगोकर रखा जाता है, और शुद्ध जल से एक दूसरे को रंग लगाकर आनंद के साथ धुलीवंदन मनाया जाता है. यह धुलेडी पर्व मित्रता संबंधों के नवीनीकरण समस्त दुर्भावना को दूर करने और महान संबंधों के स्थापना का पर्व माना गया है. इस पर्व के द्वारा आपसी शत्रुता दुश्मनी और वैमनस्य को समाप्त किया जाता है."

आपस में प्रेम स्नेह और बंधुत्व का होता है विकास: पंडित विनीत शर्मा के मुताबिक "एक दूसरे को रंग लगाने से प्रेम की भावना बलवती होती है. आज के समय में अबीर गुलाल रंग लगाकर धुलीवंदन का पर्व मनाया जाता है. आज के दिन दुश्मन भी सारी दुश्मनी भूलकर एक हो जाते हैं. मित्रता के ढांचे में आगे बढ़ते हैं. यह महापर्व संबंधों को सुधारने नवीनीकरण करने और नैतिक मूल्यों के साथ उच्च मानवीय संबंधों को प्राप्त करने का पर्व है. यह पर्व बलिदान त्याग और समरसता को बढ़ावा देने का पर्व है."



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पुरातन काल से चली आ रही परंपरा: ज्योतिष एवं वास्तुविद पंडित विनीत शर्मा ने बताया कि "ऐसी मान्यता है कि भगवान श्री कृष्ण ने आज ही के दिन राधा रानी को शुद्ध मिट्टी से रंग लगाया था. तब से ही यानी द्वापर से यह परंपरा चली आ रही है. आज के दिन वार्निश या केमिकल से बने हुए पदार्थों का बिल्कुल त्याग कर देना चाहिए. नुकसानदायक मिट्टी, धूल, कीचड़ आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए. आज के दिन ढोल नगाड़ा बजाकर एक दूसरे के यहां जाते हैं, और ढोल नगाड़ों के साथ नृत्य और आनंद बांटते हैं."

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