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World Theatre Day 2022: कभी रायपुर शहर में हुआ करता था थियेटरों का ग्रुप लेकिन आज...

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Published : Mar 27, 2022, 10:03 AM IST

विश्व रंगमंच दिवस पर ETV भारत रंगकर्मियों से खास बातचीत के अंश आपके साथ साझा कर रहा है. आप भी जानिए छत्तीसगढ़ में रंगमंच का इतिहास कितना पुराना है.

World Theatre Day 2022
विश्व रंगमंच दिवस पर रंगमंच से जुड़े कलाकारों से खास बात

रायपुर: समय के साथ-साथ मनोरंजन के माध्यम में तेजी से बदलाव आया है. इस बदलाव का असर मनोरंजन के सबसे सशक्त माध्यम पर भी पड़ा है. जिसे देखने के लिए कभी लोग तरसते थे. उस माध्यम का हिस्सा बनना एक गर्व का विषय होता था. हम बात कर रहे हैं रंगमंच की. आज विश्व रंगमंच दिवस है. (World Theatre Day 2022 ) ऐसे में ये बताना जरूरी है कि जो मंच कभी मनोरंजन के साथ समाज के गंभीर विषयों को बड़ी सरलता के साथ लोगों तक पहुंचाता था आज वो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है. शायद इसी वजह से इसके लिए एक दिन निर्धारित कर दिया गया. रंगमंच का छत्तीसगढ़ से काफी पुराना नाता रहा है. जिनमें एक जाना-माना नाम हबीब तनवीर का है.

विश्व रंगमंच दिवस पर रंगमंच से जुड़े कलाकारों से खास बात

समृद्ध था रायपुर का थिएटर: किसी जमाने में रायपुर में बड़ी संख्या में थिएटर ग्रुप हुआ करते थे. लेकिन बदलते वक्त के कारण आज बहुत कम ही थिएटर ग्रुप रह गए हैं. लंबे समय से थिएटर कर रहे शकील साजिद का कहना है कि 'थिएटर का एक बहुत बड़ा कैनवास होता है. उसको किसी तरह से वर्गों में बांटा जाए तो शायद उसके साथ इंसाफ करना नहीं होगा. इसमें कोई शक नहीं है कि पुराने दौर में रायपुर का थिएटर बहुत समृद्ध था. पुराने दौर की बात की जाए तो यहां की यात्रा में बहुत सारे बड़े-बड़े कलाकार जिनमें हबीब तनवीर साहब (Theater artist Habib Tanveer from Chhattisgarh) से लेकर मिर्जा मसूर, बोस साहब, दास गुप्ता साहब, मुखर्जी दादा, राजकमल नायक, मिनाज़ असद, महाराष्ट्र मंडल के काले साहब, कालीबाड़ी के ग्रुप इन सभी ने नाटक को बहुत समृद्ध किया. उस दौरान डेडिकेटेड टीम काम करती थी. आज के डिजिटल मीडिया के जमाने में नाटक के लिए मेहनत करने वाले लोग कम हो गए हैं.

World Theatre Day 2022
विश्व रंगमंच दिवस
छत्तीसगढ़ी फिल्म एंड विजुअल आर्ट सोसायटी के अध्यक्ष सुभाष मिश्र कहना है कि 'पहले हमारे पास मनोरंजन के बहुत कम साधन हुआ करते थे. सबसे ज्यादा प्रभावी और जीवंत साधन थिएटर था. आज बहुत सारे विकल्प आ गए हैं. लोग धीरे-धीरे उनपर शिफ्ट हो रहे है. जहां पर समाज का हर वर्ग मौजूद है. ये वर्ग कला और संस्कृति में ज्यादा रुचि लेता है. बंगाली समाज, मराठी समाज को देखते हैं. तो वहां थिएटर बहुत लोकप्रिय है. लेकिन जैसे ही हम हिंदी पट्टी में आते हैं. वहां थोड़ी तकलीफ है. छत्तीसगढ़ की बात की जाए तो यहां थिएटर की लंबी परंपरा रही है. यहां से हबीब तनवीर ,सत्यदेव, विभु खरे, जैसे बड़े नाम आते है. रायपुर में बंगाली थिएटर बहुत एक्टिव हुआ करता था. हिंदी भाषा के थिएटर ग्रुप भी बहुत एक्टिव थे. समय के साथ यह चीजें महंगी भी हुई है और युवा पीढ़ी अपने करियर को लेकर सजग हुई है. हालांकि छत्तीसगढ़ सिनेमा आने के बाद जो लोग भी नाटक में जुड़े हैं उन्हें फिल्मों में काम मिल रहा है'. छत्तीसगढ़ में थिएटर ग्रुप को कोई अनुदान नहीं: सुभाष मिश्रा ने बताया कि 'भारत सरकार थिएटर ग्रुप को ग्रांट देती है. इसके अलावा बहुत सारे राज्य है जो थिएटर को ग्रांट देते हैं. छत्तीसगढ़ में उस तरह की जागरूकता नहीं है और ना ही ऐसी संस्थाएं हैं. जिन्होंने ग्रांट लेकर काम कर रहे हो. जो लोग थिएटर कर रहे हैं वे अपने बूते पर काम कर रहे है और थिएटर के लिए इतना संसाधन जुटाना मुश्किल होता है. छत्तीसगढ़ में सिनेमा को लेकर नीति बनी है लेकिन थिएटर के लिए कोई नीति नहीं है. छत्तीसगढ़ में जो लोग रंगकर्म कर रहे हैं. वह जुनून की वजह से ही कर रहे हैं. उन्हीं लोगों के कारण थिएटर बचा हुआ है'.
World Theatre Day 2022
रायपुर में बड़ी संख्या में थिएटर ग्रुप थे

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पिछले 50 सालों में थिएटर में सक्रिय निर्देशक राज कमल नायक बताते हैं कि 'साहित्य और कला मनुष्य का मानसिक आहार है. हमारे छत्तीसगढ़ में थिएटर का इतिहास 100 बरस पुराना है. यहां तमाम तरह की बाहरी मंडलिया आती रही है. पारसी रंगमंच के जमाने में पारसी थिएटर भी यहां आए. रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ में उनके प्रदर्शन भी हुए. पृथ्वीराज कपूर भी यहां आए और उनके नाटकों के भी प्रदर्शन हुए. भारतेंदु हरिश्चंद्र के मित्र ठाकुर जगमोहन सेन यहा रहे. उन्होंने भी बहुत से नाटक लिखे हैं. भारतेंदु का बहुत प्रभाव था इसलिए छत्तीसगढ़ की कलाओं में कोई ना कोई प्रभाव भारतेंदु हरिश्चंद्र का देखने को मिलता है. खा तौर पर छत्तीसगढ़ी नाटकों में यह प्रभाव देखने को मिलता है'.

'मुझे 50 साल इस फील्ड में हो गए हैं. छत्तीसगढ़ में तमाम तरह की शैलियों में प्रदर्शन हुए. रियलिस्टिक थिएटर यथार्थवादी रंगमंच, स्टरलाइज, शैलीबद्ध, लोकनिबद्ध नाटक हुए. कई तरह से नाटकों से गुजरती हुई हमारी लंबी रंग यात्रा रही है. यहां के नाटक बाहर भी गए और कई जगहों पर उनके प्रदर्शन हुए. मैंने भी लंबे समय तक काम किया और बाद में निष्कर्ष यह निकला कि मुझे कुछ यूनिक करना था. इसलिए मैंने कविता का रंगमंच करना शुरू किया जो काफी पॉपुलर हुआ और देश भर में इसके लिए मैं जाना जाता हूं'.

'जब रेडियो आया था. तब बड़ी चुनौती पैदा की थी. लोग रेडियो सुनेंगे और नाटक देखने नही आएंगे. जब टेलीविजन आया. उस दौरान लोगों ने कहा कि थिएटर अब मर गया है. टेलीविजन में लोग उलझे हुए हैं. लगातार मनोरंजन के माध्यम में भी बदलाव आया है. इसके बावजूद थिएटर कहीं नहीं मरा है. कई जगहों पर बड़ा जोर पकड़ रहा है. अगर हम अपने पड़ोसी राज्य की बात करें तो मध्यप्रदेश में बहुत नाटक हो रहे हैं और पेशेवर रंग दल बन गए हैं. जो तमाम तरह के ग्रांट लेकर लगातार वहां नाटक कर रहे हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ थोड़ा उपेक्षित हुआ है'.

एक नाटक में 60 हजार से 90 हजार का खर्च: राजकमल बताते हैं कि 'एक नाटक करने में 60 हजार से 70 हजार रुपये खर्च हो रहे हैं. ये एडजस्ट करके जब खर्च करते हैं तो 60000 खर्च होते हैं और अगर सारे प्रॉपर्टी और कॉस्टयूम, मेकअप, सेट बनाए तो 90 हजार रुपये तक खर्च आएंगे. इतना रुपया भी कोई लगाने वाला होना चाहिए. सन 1970 से1980 के बीच की बात की जाए उस समय 25 से 30 संस्थाएं निरंतर काम करती थी और वे सभी सक्रिय थी. बहुत अच्छे-अच्छे नाटक हुआ करते थे, वर्तमान में संस्थाओं की संख्या बहुत कम हो गई है'.

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थिएटर आजीविका तब बनेगा जब आप शिद्दत से काम करें: राजकमल ने कम होते रंगमंच का कारण बताया कि आज के समय में युवा पीढ़ी को अपने आजीविका की तलाश के लिए इधर-उधर भटकना पड़ रहा है , और तमाम तरह की व्यवधान उनके सामने आ रहे हैं उसे यह समझ नहीं आता है कि अगर वह थिएटर में रहकर उसे आजीविका का साधन नहीं बना पाए तो कैसे होगा,, लेकिन यह आजीविका तब बनेगी जब आप शिद्दत से ईमानदारी से डिबेटेड होकर इसको अपनी दिनचर्या में शामिल करेंगे, मेरा यह मानना है कि हॉबी को हैबिट में बदलना आना चाहिए,,


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रंगमंच अभिनय का प्लेटफॉर्म: निर्देशक योग मिश्र कहते है कि 'यह देखा गया है कि हम जिस की दुर्गति कर देते हैं उसके लिए एक दिन निश्चित कर देते हैं. उदाहरण के लिए हिंदी दिवस, महिला दिवस उसी तरह से रंगमंच दिवस, रंगमंच का एक स्वर्णिम काल रहा है. पारसी थिएटर के दौरान रंगमंच के जो कलाकार हुआ करते थे. उनकी स्टार वैल्यू हुआ करती थी और वे सभी पेड कलाकार हुआ करते थे. लेकिन जब सिनेमा बनना शुरू हुआ तब वहां पारसी थिएटर के सारे कलाकार सिनेमा में चले गए. वहां से जो अभिनेता का संकट रंगमंच में आया है जो अभी तक खत्म नहीं हुआ है. रंगमंच अभिनेता का माध्यम है लेकिन अभिनेता ही रंगमंच से दूर होता गया है. आज रंगमंच की स्थिति सुधर रही है. रंगमंच में कलाकार आ रहे हैं. रंगमंच, कलाकारों के लिए अभिनय करने के लिए एक प्लेटफार्म है. यहां से सीख कर लोग सिनेमा में जाते हैं. बहुत सारे जो सिनेमा बन रहे हैं उनमें रंगमंच के कलाकारों को पूछा जाता है. लेकिन आज रंगमंच अभिनेताविहीन हो गया है. अगर अभिनेता यहां टिक कर रहेगा तो रंगमंच अपने पुराने वैभव को प्राप्त कर सकता है'.


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