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कटाव की कसक और पलायन की पीड़ा.. डूबते बिहार की दोमुंही राजनीति

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Published : Aug 27, 2021, 9:43 PM IST

जाति की राजनीति और वोट के सवाल पर बिहार में सभी पार्टियां एकजुट हो गईं. दिल्ली तक की डगर को चंद दिनों में नाप दिया. लेकिन 1972 से बाढ़ से जूझने वाले बिहार को बचाने के लिए कोई दल एकजुट नहीं हैं. बिहार की यही दोमुंही राजनीति बिहार को 'डुबाए' जा रही है. पढ़ें पूरी रिपोर्ट-

politics on flood in bihar
politics on flood in bihar

पटना: बिहार में जहां भी बाढ़ (Flood in Bihar) आती है बिहार के लोगों को अथाह दर्द और पीड़ा दे जाती है. बाढ़ से कटाव (Floods And Erosion) में अपना सब कुछ गंवाकर बाढ़ पीड़ित अंतहीन पीड़ा झेलने को लोग मजबूर हैं. कहने के लिए उनकी एक सरकार है जो बाढ़ पीड़ितों के दर्द के लिए दिन रात काम करती है. लेकिन उसी सरकार की दोमुंही राजनीति ने इन्हें बड़ा दर्द दे दिया है. ऐसा कोई एक दो साल से नहीं बल्कि दशकों से चला आ रहा है.

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बाढ़ पीड़ितों के लिए अगर बताने को कुछ है तो सब कुछ गंवा कर पलायन करना, कटाव में अपना सब कुछ गंवा देना, खेती खत्म हो जाना और शिक्षा की व्यवस्था से महरूम हो जाना है. बिहार के कटाव पीड़ितों का यह दर्द इतना पुराना है कि हर नई राजनीति करने वाला बयानों का एक समंदर खड़ा कर देता है. बस बाढ़ के पानी को रोकने का कोई उपाय आज तक बिहार नहीं बना पाया. जो उपाय बिहार के लिए बनाए गए उसपर भी बिहार की गद्दी पर बैठे नेता कुंडली मारकर बैठे रहे. बंद कमरे में बिस्किट खा कर चाय पीते रहे और बाढ़ की बात बताते रहे.

बिहार में बाढ़ 1972 से जोड़ा जाने लगा. नदियों में बहने वाला पानी जब सामान्य क्षेत्र में बढ़ने लगा तो चर्चा होने लगी कि बिहार में बाढ़ को रोकना होगा. हालांकि यह बात यहीं तक नहीं थी. केंद्र तक इसकी बात गई और आज से 49 साल पहले 1962 में नदी जोड़ो योजना के लिए पहला डीपीआर तैयार किया गया. 1972 में थोड़ा बहुत काम भी शुरू किया गया. सरकारी फाइलों में ही रहकर बंद हो गई.

जेपी आंदोलन ने पूरे देश को विकास की बजाय जाति के जिस आंदोलन की राह पर लाकर खड़ा किया उसका सबसे बड़ा खामियाजा बिहार भुगत रहा है. यहां ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि जिस विकास की बानगी देकर जेपी के दुलारे गद्दी पर बैठे थे उन्हीं लोगों ने ही आज बिहार को 'डूबा' दिया. अभी इस शब्द को कहने में कोई गुरेज नहीं है क्योंकि 1972 से पहले बिहार के 5 जिले ऐसे थे जो बाढ़ की चपेट में थे. आज जेपी के उन्हीं नुमाइंदों के हाथ में बिहार की कमान है, जिसके चलते बिहार के 26 जिले बाढ़ की चपेट में है. यहां जिंदगी पानी पर तैर रही है लेकिन बयानों में बातें बड़ी बड़ी होती हैं.

ऐसा नहीं है कि बिहार में बाढ़ को लेकर के चिंता नहीं जताई जाती. जिस नेता से भी बाढ़ के बारे में पूछ लीजिए उसे ऐसा लगता है कि हर बाढ़ पीड़ितों का दर्द उसी का है. लेकिन काम करने के नाम पर दिल्ली से बिहार तक चल रही दो इंजन की सरकार सिर्फ दो मुंही राजनीति को कर रही हैं. बात नीतीश सरकार की ही कर लें तो फरक्का डैम को लेकर 2016-17 में काफी चर्चा हुई थी. जल पुरुष राजेंद्र प्रसाद बिहार आए थे. हवाई सर्वे भी हुआ था. इस मुद्दे पर भी बड़ी चर्चा हुई थी लेकिन जिस चर्चा को बड़ा करना था आज तक वह सिर्फ फाइलों में दौड़ लगा रही है.

बिहार की दो बड़ी योजना जिसमें कोसी मेची लिंक और बूढ़ी गंडक लिंक योजना आज भी फाइलों में चक्कर लगा रही है. अगर इन योजनाओं को जमीन पर उतार दिया गया होता तो बिहार को बड़ी बाढ़ से राहत मिल जाती. अब तो बाढ़ बिहार के लिए नीयती बन गई है कि कब नेपाल से पानी आएगा और घरों में रहने वाले लोग बेघर हो जाएंगे. यह इतनी बड़ी हकीकत बन चुका है कि शुक्रवार को नेपाल से छोड़े गए चार लाख क्यूसेक से ज्यादा पानी के कारण एक बड़ी आबादी बांध पर जिंदगी काट रही है.

बाढ़ पर नेताओं के बयान भी गजब हैं कि 'पेड़ ज्यादा काट लिए गए' जिसके चलते दिक्कत हो रही है. 'विकास के बांध की भीत' इन नेताओं ने ही बनाई है जिसमें सड़क चौड़ीकरण के नाम पर तो पेड़ काटे जाएंगे क्योंकि कंक्रीट का नया शहर सड़क से जुड़ना है. लेकिन जो कुछ कट जा रहा है उसको बचाने के लिए इनके पास कोई उपाय नहीं है. दलील भी इतनी खोखली है कि जिस सड़क को बनाने के लिए यह नेता विकास के बानगी की पीठ थपथपाते हैं उसी सड़क को बनाने में कटने वाले पेड़ बाढ़ का कारण बनते जा रहे हैं. अंदाजा लगा सकते हैं कि बिहार के लोगों के साथ सियासत किस तरह का मजाक कर रही है.

जाति की राजनीति पर सभी नेता एक साथ दिल्ली में जाकर नरेंद्र मोदी से मिले हैं. बिहार डूब रहा है तो जरूरत इस बात की है कि दिल्ली एक बार फिर जाया जाए, लेकिन इस बार जाति की राजनीति के लिए नहीं बल्कि बिहार बचाने के लिए. चाहे सिंचाई मंत्रालय की बात हो या फिर नमामि गंगे की या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की, जहां से भी बिहार को बाढ़ से निजात दिलाने का रास्ता निकल सके वहां इसकी फरियाद होनी जरूरी है. विरोध भी होना जरूरी है और इसके लिए संघर्ष करने की भी जरूरत है.

अगर आज यह नहीं शुरू किया गया तो कल का बिहार बचेगा ही नहीं. क्योंकि बाढ़ 5 से 26 जिले तक पहुंच गई है. अब जो बचा है वह सिर्फ और सिर्फ दिखावे का एक ऐसा सर्कल है जहां 26 जिले के लोग मुफलिसी की जिंदगी जीने को विवश हैं. जिन लोगों ने '15 साल पहले की सियासत' की और जो '15 सालों से सियासत' कर रहे हैं उन्हें भी इसपर सोचना होगा क्योंकि बाढ़ हर साल बिहार को डुबा रही है. कटाव से बिहार को अपने आगोश में लेती जा रही है.

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