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लोहे के टावर पर भारी लकड़ी का खूंटा, जानिए क्यों गांवों का बना सूचना दूत - wooden peg tower

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By ETV Bharat Chhattisgarh Team

Published : Apr 8, 2024, 5:54 PM IST

छत्तीसगढ़ में सूचना और क्रांति को लेकर सरकार ने कई सारे प्रयास किए हैं. इंटरनेट और मोबाइल नेटवर्क उन इलाकों में पहुंचा है जहां इंसानों का आना और जाना कभी दूर की सोच हुआ करती थी. छत्तीसगढ़ बनने के बाद साल दर साल हर सरकार ने इस दिशा में काम किया है. लेकिन आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां पर मोबाइल टावर शोपीस बनकर अपनी शोभा बढ़ा रहे हैं.क्योंकि इन टावर्स को जिस सिग्नल के लिए लगाया गया है,वो आसपास मौजूद किसी भी गांव तक नहीं पहुंचता. हर हाथ मोबाइल और डिजिटल पेमेंट का सपना गांव के लोगों ने भी देखा था,लेकिन जब टावर लगने के बाद भी नेटवर्क नहीं आया तो सभी की उम्मीद टूट गई. लिहाजा ग्रामीणों ने कुछ ऐसा कारनामा किया,जो अब दूसरे गांवों में भी फेमस हो चुका है. आज हम आपको ऐसे ही गांव की तस्वीर दिखाएंगे जहां मशीन तंत्र पर जुगाड़ मंत्र भारी पड़ गया है.

Wooden pegs became information messengers
लोहे के टावर पर भारी लकड़ी का खूंटा

लोहे के टावर पर भारी लकड़ी का खूंटा

मनेंद्रगढ़ चिरमिरी भरतपुर : छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले का सोनहत विकासखंड में प्रदेश की पहली विधानसभा भरतपुर सोनहत आता है.ये विधानसभा सिर्फ अपने क्षेत्र नंबर में ही पहले स्थान में है.बाकी यहां की सुविधाएं और व्यवस्थाएं की बात करें तो शायद ही किसी अंक तक पहुंचा जा सकता है.जहां भारत के लोग 5G नेटवर्क से लैस हैंडसेट चला रहे हैं,वहीं सोनहत विकासखंड के एक दर्जन से ज्यादा गांवों में नेट की स्पीड क्या होती है,ये नहीं पता.इन गांवों के आसपास ऊंचे-ऊंचे लोहे के टावर सीना ताने खड़े हैं.लेकिन जिस काम के लिए टावर लगे हैं,शायद वो काम भूलकर बाकी सारे काम हो रहे हैं.

मोबाइल टावर से नहीं निकलता सिग्नल : सोनहत विकासखंड का ऐसा ही एक गांव सिंघोर है. जहां मोबाइल टावर का ढांचा कई वर्षों से खड़ा है.लेकिन ना ही इसमें फ्रीक्वेंसी जेनरेट करने के लिए मशीनें लगी हैं और ना ही इसे किसी ने चालू करने की जहमत उठाई है.हालात ये है कि गांववालों के पास महंगे हैंडसेट तो हैं,लेकिन टावर और नेटवर्क नहीं होने से वो काम के नहीं. फिर भी यहां के ग्रामीणों ने खुद का दिमाग लगाकर कुछ ऐसा जुगाड़ किया है,जिससे इंटरनेट तो नहीं फिर भी दूसरे गांव या शहर में बात करने में दिक्कत नहीं होती है. ईटीवी भारत को जब इस जुगाड़ के बारे में पता चला तो वो मौके पर पहुंची और इस अनोखे दृश्य को कैमरे में कैद किया.

Wooden pegs became information messengers
खूंटे पर रखा ग्रामीणों का मोबाइल

मशीन तंत्र पर हावी हुआ जुगाड़ मंत्र : ईटीवी भारत को पता चला कि सिंघोर ग्राम पंचायत में लोग खूंटे के सहारे अपने करीबियों से बात करते हैं.सुनने में अजीब जरुर लग रहा हो लेकिन ये सच है.गांव के कई हिस्सों में लकड़ी के खूंटे गाड़े गए हैं. इन खूंटों की खास बात ये है कि जब तक मोबाइल फोन इनके ऊपर रहता है,तब तक आप मोबाइल पर बात कर सकते हैं.जैसे ही खूंटे से मोबाइल फोन हटाया,तो समझिए कनेक्शन कट हो गया. हमारी टीम जब गांव के खैरवारी पारा पहुंची तो देखा कि एक ग्रामीण खूंटे पर मोबाइल रखकर बात कर रहा था.ईटीवी भारत ने जब लकड़ी के बने टॉवर के स्टैंड पर जब अपना मोबाइल रखा तो मोबाइल में एक नेटवर्क आने लगा और कॉल होने लगी. लेकिन नेट नहीं चल रहा था.इसके बाद हम गांव के दूसरे हिस्से में पहुंचे.यहां पर खूंटे पर एक व्यक्ति मोबाइल रखकर बात करता हुआ मिला.

क्यों लगाए गए हैं खूंटे ?: इस गांव में खूंटों का रहस्य जानने के लिए हमने स्थानीय लोगों से बात की.उन्होंने बताया कि गांव में दूर दराज में लगे टावर के नेटवर्क कई हिस्सों में आते हैं. जिन हिस्सों में नेटवर्क आते हैं,वहां पर गांव के युवकों ने निशान लगाए.इसके बाद जहां-जहां मोबाइल का सिग्नल मिला,वहां-वहां खूंटे गाड़ दिए.आज यहीं खूंटे ग्रामीणों की जानकारी एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का जरिया बने हुए हैं. मोबाइल नेटवर्क ना होने पर सबसे ज्यादा परेशान ऑनलाइन राशन लेने में होती है.क्योंकि बिना थंब इंप्रेशन के राशन नहीं मिलता.

'' यहां के ग्रामीणों को राशन लेने में दो दिन लग जाते हैं. सरकारी राशन को लेने के लिए पहले दिन गांव से लगभग 6 किलोमीटर दूर पहाड़ पर जाकर जहां मोबाइल नेटवर्क आता है,वहां राशन दुकान ग्रामीणों का थंब लगवाते हैं.इसके बाद जब सभी लोगों का थंब लग जाता है तो अगले दिन गांव आकर राशन बांटते हैं.'' संतकुमार ,ग्रामीण

आज शिक्षा ऑनलाइन हो गई है,लेकिन सिंघोर गांव के बच्चों के लिए ऑनलाइन शिक्षा मानों सपना है.ये पूरा क्षेत्र मोबाइल नेटवर्क विहीन है. सिंघोर, अमृतपुर, सेमरिया, सुकतरा, उधैनी, उज्ञाव जैसे इलाके मोबाइल नेटवर्क ना होने का दंश झेल रहे हैं.इंटरनेट ना होने से ऑनलाइन ली जाने वाली हर सेवा के लिए करीब 5 हजार ग्रामीणों को पसीना बहाना पड़ता है.आज भी डिजिटल लेनदेन क्या होता है,ग्रामीणों को नहीं पता है.

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