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शरीर में मौजूद रसायन से जापानी इंसेफेलाइटिस का इलाज संभव, DDU के शोध को मिली मान्यता, पढ़िए डिटेल

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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Feb 23, 2024, 12:58 PM IST

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जापानी इंसेफेलाइटिस की बीमारी की रोकथाम में पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय (encephalitis disease) के भौतिक विभाग के प्रोफेसर के शोध को बड़ी सफलता मिली है. यह शोध प्रपत्र इंटरनेशनल जनरल में प्रकाशित होने के साथ ही पुणे की लेबोरेटरी से भी प्रमाणित हुआ है.

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गोरखपुर : पूर्वांचल में महामारी का रूप धारण करने वाली जापानी इंसेफेलाइटिस की रोकथाम में पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के भौतिक विभाग के प्रोफेसर के शोध को बड़ी सफलता मिली है. उन्होंने शरीर के ही रसायन में इलाज का तत्व ढूंढ निकाला है. इसके माध्यम से इस वायरस को निष्क्रिय करने में सफलता मिलेगी. उनका यह शोध प्रपत्र इंटरनेशनल जनरल में प्रकाशित होने के साथ ही पुणे की लेबोरेटरी से भी प्रमाणित हुआ है. इसके आधार पर निर्मित होने वाली दवाएं इस बीमारी की चपेट में आने वाले बच्चों की जान को बचा सकेंगी.

शोधकर्ता टीम के प्रमुख प्रोफेसर डॉ. राकेश तिवारी का कहना है कि जापानी इंसेफेलाइटिस को नियंत्रित करने के लिए जो टीके बनाए गए वह भारत में इतने कारगर इसलिए नहीं साबित होते थे, क्योंकि इसका वायरस म्यूटेट करके भारत में आया था. इसकी वजह से यह गंभीर रूप लेता था और वैक्सीन भी काम नहीं करती थी. अब उनकी टीम के शोध कार्य में परिणाम मानव शरीर के अंदर ही विद्यमान होना पाया गया है. इसके अनुरूप तैयार होने वाली मेडिसिन उसके जीवन को रक्षा देने में कामयाब होगी.

दो प्रोटीन श्रेणी के माइटेन डोमेन निभाते हैं अहम भूमिका : इस शोध के संदर्भ में प्रोफेसर राकेश तिवारी ने बताया कि इंसेफेलाइटिस का वायरस आरएनए प्रोटीन से बना है. यह वायरस मनुष्य के शरीर में प्रवेश करते ही कोशिकाओं के संपर्क में आ जाता है. इसके बाद वायरस कोशिकाओं से मिलकर तेजी से विकसित होने लगता है. इसमें अहम भूमिका निभाते हैं वायरस के दो प्रोटीन श्रेणी के माइटेन डोमेन, जिनका नाम है 'एनएस थ्री' और 'एनएस फाइव'.

प्रोफेसर तिवारी ने बताया कि अगर इनके विकास को रोक दिया जाए तो वायरस मानव शरीर में स्वत: खत्म हो जाएगा. इससे शरीर में कोई बीमारी नहीं होगी. उन्होंने बताया कि 'एडिनोसिल रसायन' इसमें अहम भूमिका निभाता है. इसको कहीं अलग से तलाशने की जरूरत नहीं है. यह शरीर में ही पाया जाने वाला एक प्रकार का रसायन है. दिमाग में भी इसका प्रभाव बना रहता है. इस रसायन के संपर्क में आते ही वायरस की सारी गतिविधियां बंद हो जाती हैं. यह शोध में देखने को मिला है.

चल रही पेटेंट की प्रक्रिया : उन्होंने बताया कि इसका प्रयोग जेई के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवाओं में हो सकता है. साथ ही यह जेई पीड़ित के इलाज के लिए इंजेक्शन बनाने में भी उपयोग किया जा सकता है. उन्होंने बताया कि यह रिसर्च अंतरराष्ट्रीय जनरल फ्रंटियर केमिस्ट्री में नवंबर के अंक में प्रकाशित हुई है. इसके पेटेंट की प्रक्रिया चल रही है. उन्होंने बताया कि खास बात यह है कि यह रसायन शरीर में ही मौजूद है. इसके संपर्क में आते ही वायरस निष्क्रिय हो जाता है. उसका सुरक्षा कवच टूट जाता है.

उन्होंने बताया कि उनकी टीम में शोध छात्र विनायक पांडेय, इसके अलावा डॉ. हर्षित श्रीवास्तव, प्रो. अमरीश कुमार श्रीवास्तव और डॉ विष्णु दत्त पांडेय भी शामिल रहे हैं. इस रिसर्च को पूरा होने में करीब 5 साल की प्रक्रिया अपनानी पड़ी है. उन्होंने शोध में पाया कि एनएस-5 को तोड़ने के लिए करीब 904 प्रकार के रसायन से क्रिया कराई गई. इसमें सफलता एडिनोसिल डिरेटिव से मिली. खास बात यह है कि एडिनोसिल से रिएक्शन के बाद एनएस-5 निष्क्रिय हो गया और वायरस की सारी गतिविधियां बंद हो गईं.

कुलपति ने टीम की सराहना की : प्रोफेसर राकेश तिवारी ने बताया कि इसके लिए उन्हें लैबोरेट्री पुणे का सहयोग लेना पड़ा, क्योंकि देश में सुपर कंप्यूटर की सुविधा वहीं पर है. जिसके माध्यम सीएडीटी सुपर कंप्यूटर में इसका सिमुलेशन किया गया. इसमें क्वांटम मैकेनिक्स, मॉलेक्युलर्स डायनामिक सिमुलेशन का भी प्रयोग हुआ है, जिससे इस प्रयोग को सफलता मिली है.

उन्होंने बताया कि पूर्वांचल में जापानी इंसेफेलाइटिस करीब 45 वर्षों से कहर बरपा रहा है. बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इसके मरीज वर्ष 1978 से भर्ती हो रहे हैं. करीब सवा लाख मासूम इस बीमारी के चपेट में अब तक आ चुके हैं और 40 हजार से अधिक मासूमों की मौत हो चुकी है. 50 हजार से अधिक दिव्यांग हो चुके हैं.

पूरी तरह कारगर होगी दवा : उन्होंने कहा कि मौजूदा प्रदेश की योगी सरकार इसके नियंत्रण के लिए प्रभावी कदम उठा रही है. सफलता भी मिल रही है. लेकिन, उनके शोध से तैयार होने वाली मेडिसिन इसमें पूर्णतया कारगर होगी यह उनके शोध से सिद्ध हुआ है. वहीं, विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफेसर पूनम टंडन ने इस शोध को पूर्ण करने वाली टीम की सराहना की है. भविष्य में भी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर समाज की जरूरत पर अपने शोध को अंजाम दें, यही समय की जरूरत है.

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