ग्वालियर। राजनीति हर किसी को लुभाती है खासकर युवा एक बेहतर भविष्य की उम्मीद में सियासत की ओर खिंचे चले आते है. इसका सटीक उदाहरण मध्य प्रदेश के ग्वालियर-चंबल अंचल में मिल रहा है. जहां 3 अलग-अलग लोकसभा क्षेत्र में 3 ऐसे प्रत्याशी हैं जो हाईली एजुकेटेड होने के साथ-साथ लाखों के सैलरी पैकेज छोड़कर जनसेवा की राह में राजनीतिक भविष्य तलाश रहे हैं. जहां देवाशीष जरारिया भिंड लोकसभा में बसपा के प्रत्याशी हैं, अर्चना राठौर राष्ट्रीय समाज पार्टी से ग्वालियर में चुनाव लड़ रही हैं तो वहीं सूरज कुशवाहा मुरैना से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में हैं. ऐसे में ईटीवी भारत ने इन युवा प्रत्याशियों से जानने की कोशिश कि आख़िर नौकरी छोड़कर राजनीति में एंट्री की वजह क्या रही.
लाखों का छोड़ा पैकेज
देवाशीष जरारिया, अर्चना राठौर, सूरज कुशवाहा ये वो युवा चेहरे हैं जो इंजीनियर बनने के बाद कॉर्पोरेट सेक्टर में लाखों की सैलरी छोड़कर राजनीति में उतरे हैं. कोई पहली बार तो कोई दूसरी बार लोकसभा का चुनाव लड़ रहा है. ये युवा चहरे ग्वालियर चंबल अंचल की अलग-अलग लोकसभा से चुनाव मैदान में हैं और राजनीति में आने की सबकी अपनी वजह है.
भिंड से चुनावी मैदान में इंजीनियर देवाशीष जरारिया
देवाशीष जरारिया 32 साल की उम्र में भिंड-दतिया लोकसभा क्षेत्र से बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) से चुनाव लड़ रहे हैं. ये उनका दूसरा लोकसभा चुनाव है. इससे पहले 2019 में देवशीष ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था, 3 लाख से अधिक वोट मिले थे. हालांकि पहली बार नया चहरा होने के बाद भी इतना समर्थन छोटी बात नहीं थी बावजूद इसके उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद क्षेत्र में कांग्रेस के आश्वासन पर 2024 के चुनाव के लिए 5 साल मेहनत की लेकिन अंत में पार्टी ने टिकट काट दिया, जिससे आहत देवशीष जरारिया ने कांग्रेस से हाथ जोड़ लिये और बसपा के हाथी पर सवार होकर एक बार फिर चुनाव मैदान में उतर गये. उनके इस निर्णय से भिंड लोकसभा क्षेत्र में मुक़ाबला अब त्रिकोणीय हो चुका है.
देवाशीष ने भोपाल से की है इंजीनियरिंग
राजनीति में आने को लेकर देवशीष कहते हैं कि उन्होंने 2013 में भोपाल से इंजीनियरिंग की डिग्री ली लेकिन शुरू से ही उन्हें प्राइवेट सेक्टर में नौकरी की कोई मंशा नहीं थी इसलिए वे 2014 में UPSC की तैयारी करने के लिए दिल्ली चले गए यहां उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से LLB की पढ़ाई की. यहां बहुजन समाज पार्टी के सोशल मीडिया वॉलेन्टियर के तौर पर काम करना शुरू किया और इसके बाद वे मीडिया और बसपा में ग्राउंड से जुड़े और धीरे धीरे उनका झुकाव राजनीति की ओर हो गया.
'जनता के हाथ में होता है राजनीतिक भविष्य'
देवाशीष जरारिया कहते हैं कि "आमतौर पर किसी भी फील्ड में आपकी मेहनत और नसीब आपके हाथ में है. राजनीति में आपको मेहनत भी करनी है आर्थिक परेशानियां भी झेलनी पड़ती हैं और आपका नसीब भी आपके हाथ में नहीं होता. यहां आपका भविष्य तय करना जनता के हाथ में होता है लेकिन इस सब को पीछे छोड़कर हमें मेहनत करनी होती है आगे बढ़ना होता है क्योंकि इसी का नाम राजनीति और इसी का नाम ज़िंदगी है."
अर्चना सिंह ने छोड़ा 12 लाख का पैकेज
देवाशीष की तरह ही ग्वालियर लोक सभा से राष्ट्रीय समाज पार्टी की प्रत्याशी हैं अर्चना सिंह राठौर. अर्चना ग्वालियर लोक सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाली सबसे कम उम्र की प्रत्याशी हैं. 34 साल की अर्चना सिंह पेशे से एक सिविल इंजीनियर हैं वह एक नामी गिरामी कंपनी में देश की राजधानी दिल्ली में तक़रीबन 12 लाख रुपये सालाना सैलरी पर काम करती थीं. उन्होंने भोपाल AIIMS से लेकर सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट तक में अपनी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभाई. मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट्स पर काम करने की वजह से वह भाजपा की नजर में आयी थी.
'गरीबों की मदद के लिए राजनीति में कदम'
अर्चना सिंह राठौर कहती हैं कि "वे शिवपुरी के करैरा क्षेत्र की रहने वाली हैं. उनके पिता राजनीति से जुड़े थे जिसकी वजह से उन्हें भी गरीब असहाय और ज़रूरतमंदों की मदद करना अच्छा लगता था. कई बार क्षेत्र के गरीब या ज़रूरतमंद लोगों की गंभीर बीमारियों के इलाज के संबंध में केंद्रीय मंत्रियों से भी मुलाक़ात होती रहती थी थी जिसकी वजह से यह अहसास हुआ कि लोगों की मदद और समाज सेवा के लिए राजनीति एक अच्छा जरिया है. वे पहले अपने गांव से सरपंच का चुनाव भी लड़ चुकी हैं."
चंबल के तीसरे इंजीनियर प्रत्याशी हैं सूरज कुशवाहा
लोकसभा चुनाव में चंबल के तीसरे इंजीनियर प्रत्याशी हैं सूरज कुशवाहा. सूरज मुरैना जिले के सबलगढ़ क्षेत्र के एक छोटे से गांव के रहने वाले हैं. मुरैना-श्योपुर लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं. सूरज दिल्ली की एक आईटी कंपनी में जॉब करते हैं. सालाना 10 लाख रुपये की सैलरी है लेकिन अब राजनीति में उतर आए हैं. सूरज ने ईटीवी भारत को बताया कि "जिस तरह आज देश में युवा बेरोज़गार हैं सरकारें रोज़गार नहीं दे पा रही हैं. क्योंकि नेताओं को पता ही नहीं है कि काम कैसे करें. इसलिए उनके मन में चुनाव लड़ने का विचार आया और अब वे निर्दलीय चुनाव में उतर गये हैं."