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'वोट के बदले नोट मामले में अब नहीं बच पाएंगे नेता', जानें सुप्रीम कोर्ट ने क्यों पलटा 26 साल पुराना फैसला

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Mar 4, 2024, 2:28 PM IST

NO Immunity To Legislators On Bribery
सीता सोरेन और शिबू सोरेन. (IANS)

NO Immunity To Legislators On Bribery: वोट के बदले नोट मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 26 साल पुराने अपने फैसले को पलट दिया. अब घूस लेकर सदन में वोटिंग करेंगे, तो आप पर आपराधिक मुकदमा चलेगा. 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने जेएमएम नेता शिबू सोरेन पर आपराधिक मामला चलाने की अनुमति नहीं दी थी. उन पर घूस लेकर संसद में वोटिंग करने का आरोप था. कोर्ट ने इसे सदन के अंदर का मामला बताया था. 26 साल बाद अब कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया. और संयोग यह है कि इस बार भी मामला सोरेन परिवार से ही जुड़ा है. पढ़ें विस्तार से आखिर कोर्ट ने इस फैसले को क्यों पलटा ?

हैदराबाद : भारतीय राजनीति में एक से एक अनूठे और अचंभित करने वाले वाकये हुए हैं. लेकिन आज सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया, जिसने करीब 30 साल पहले के एक किस्से को फिर से ताजा कर दिया. सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की एक बेंच ने सोमवार को एक फैसला सुनाया. अपने फैसले में साल 1998 में सुप्रीम कोर्ट के ही पांच जजों वाली संविधान पीठ के 3:2 के बहुमत से हुए फैसले को पलट दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने साल 1998 में पूर्व पीएम पीवी नरसिम्हा राव मामले में अपने ही पूर्ववर्तियों के फैसले को पलट दिया. इस मामले में तथ्य यह है कि साल 1998 के फैसले में जहां शिबू सोरेन को सुप्रीम कोर्ट से राहत मिली थी, वहीं उसी फैसले के तहत राहत की मांग करने वाली शिबू सोरेन की बहू सीता सोरेन के मामले में सुनवायी करते हुए कोर्ट ने पुराने फैसले को पलट दिया.

NO Immunity To Legislators On Bribery
शिबू सोरेन फाइल फोटो. (IANS)

क्या है पीवी नरसिम्हा राव केस : पीवी नरसिम्हा राव केस 1993 के जेएमएम रिश्वत मामले से जुड़ा है. जिसमें शिबू सोरेन और उनकी पार्टी के कुछ सांसदों पर तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट करने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 105(2) के तहत छूट का हवाला देते हुए झामुमो सांसदों के खिलाफ मामले को रद्द कर दिया था.

इतिहास की नदी फिर अपने रास्ते पर लौटी : साल 2012 में एक बार फिर झामुमो विधायक सीता सोरेन के खिलाफ रिश्वतखोरी के आरोप से संबंधित एक और मामला सामने आया. उनपर 2012 के राज्यसभा चुनाव में एक स्वतंत्र उम्मीदवार को वोट देने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगा. यह चुनाव बाद में नये सिरे से कराया गया. सीता सोरेन ने अनुच्छेद 194 (2) के प्रावधानों का हवाला देते हुए उनके खिलाफ आरोप पत्र और आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए झारखंड उच्च न्यायालय (एचसी) का रुख किया था, लेकिन हाईकोर्ट ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. लेकिन पहले जान लेते हैं 1993 में क्या हुआ था.

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शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन फाइल फोटो. (IANS)

1991 का लोकसभा चुनाव राजीव गांधी हत्याकांड के बाद हुआ था. कांग्रेस 1989 में बोफोर्स और कई आरोपों के बीच चुनाव हार गई थी. लेकिन फिर 1991 में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. उसने जिन 487 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से 232 सीटें हासिल कीं. फिर भी वह बहुमत के लिए जरूरी 272 की संख्या को पार नहीं सकी. उस दौरान पी वी नरसिम्हा राव कांग्रेस के लिए संकट मोचक बन कर उभरे और प्रधानमंत्री बने. राव का कार्यकाल चुनौतियों से भरा रहा. देश के सामने एक बहुत बड़ा आर्थिक संकट था जो देश की व्यापक आर्थिक स्थिरता को खतरे में डाल रहा था. राव के कार्यकाल में 1991 में आर्थिक उदारीकरण के कदम उठाए गए.

लेकिन सिर्फ राव के सामने सिर्फ आर्थिक संकट ही नहीं थे. बल्कि राजनीतिक मोर्चे पर भी देश तेजी से बदल रहा था. भाजपा आक्रमक रूप से रामजन्मभूमि आंदोलन से जुड़ गई थी. 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ. देश में सांप्रदायिक तनाव फैल गया.

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शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन फाइल फोटो. (IANS)

अविश्वास प्रस्ताव और मामले की जड़ : 1991 में आर्थिक उदारीकरण और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस पी वी नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का आधार बने. यह प्रस्ताव 26 जुलाई, 1993 को मानसून सत्र में सीपीआई (एम) के अजॉय मुखोपाध्याय ने पेश किया. तब लोकसभा में 528 सदस्य थे, जिसमें कांग्रेस (आई) की संख्या 251 थी. इसका मतलब था कि पार्टी के पास साधारण बहुमत के लिए 13 सदस्य कम थे. तीन दिन तक बहस चलती रही. उस साल 28 जुलाई को जब अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हुई तो अविश्वास प्रस्ताव 14 वोटों से गिर गया, जबकि पक्ष में 251 और विपक्ष में 265 वोट पड़े.

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शिबू सोरेन फाइल फोटो. (IANS)

तीन साल बाद आया सामने आया रिश्वत का मामला : राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के रवींद्र कुमार ने 1 फरवरी, 1996 को केंद्रीय जांच ब्यूरो में एक शिकायत दर्ज करायी. अपनी शिकायत में उन्होंने आरोप लगाया कि आरोप लगाया गया कि 28 जुलाई जुलाई 1993 को एक आपराधिक साजिश के तहत पीवी नरसिम्हा राव, सतीश शर्मा, अजीत सिंह, भजन लाल, वी सी शुक्ला, आर के धवन और ललित सूरी ने विभिन्न राजनीतिक दलों के संसद सदस्यों को रिश्वत देकर सदन में सरकार का बहुमत साबित करने की साजिश रची. पार्टियों, व्यक्तियों और समूहों की ओर से 3 करोड़ रुपये से अधिक की राशि और उक्त आपराधिक साजिश को आगे बढ़ाने के लिए 1.10 करोड़ रुपये की राशि उपरोक्त व्यक्तियों की ओर से सूरज मंडल को सौंपी गई थी. सीबीआई ने सूरज मंडल, शिबू सोरेन, साइमन मरांडी और शल्लेंद्र महतो सहित झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों के खिलाफ मामले दर्ज किए. तब संसद में झामुमो के कुल छह सांसद थे.

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शिबू सोरेन फाइल फोटो. (IANS)

इस मामले में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि उसके पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि झामुमो नेताओं ने प्रस्ताव के खिलाफ वोट करने के लिए अवैध रिश्वत स्वीकार की और, उनके वोटों और कुछ अन्य वोटों के कारण, राव के नेतृत्व वाली सरकार बच गई.

इस मामले में पांच सदस्यीय पीठ की ओर से पारित फैसले में, न्यायमूर्ति एसपी भरूचा ने अंततः कहा था कि कोई भी सदस्य (संसद का) संसद में उसने जो कहा है उसके लिए कानून की अदालत या किसी समान न्यायाधिकरण में जवाबदेह नहीं है. यह फिर से इस तथ्य की मान्यता है कि एक सदस्य को अपने खिलाफ कार्यवाही के डर से संसद में जो सही लगता है उसे कहने की स्वतंत्रता की आवश्यकता है. वोट, चाहे आवाज से या इशारे से या मशीन की सहायता से डाला गया हो, भाषण के विस्तार या भाषण के विकल्प के रूप में माना जाता है और उसे बोले गए शब्द की तरह ही सुरक्षा दी जानी चाहिए.

न्यायमूर्ति एसपी भरूचा ने अपने फैसले में कहा था कि हम अपराध की गंभीरता के बारे में हम पूरी तरह से सचेत हैं. यदि यह सच है, तो उन्होंने (रिश्वत लेने वालों ने) जनता की ओर से किए गए भरोसे का सौदा किया. वह जनता जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं. उन्हें प्राप्त धन के कारण, उन्होंने एक सरकार को जीवित रहने में सक्षम बनाया. फिर भी, वे उस सुरक्षा के हकदार हैं जो संविधान उन्हें स्पष्ट रूप से प्रदान करता है. हमारे आक्रोश की भावना को हमें प्रभावी संसदीय भागीदारी और बहस की गारंटी को खराब करते हुए, संविधान को संकीर्ण रूप से समझने के लिए प्रेरित नहीं करना चाहिए.

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शिबू सोरेन फाइल फोटो. (IANS)

'रिश्वतखोरी सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को नष्ट करती है'

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सांसदों और विधायकों को सदन में वोट डालने या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के मामले में अभियोजन से छूट नहीं होती. प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) रिश्वत मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनाए गए 1998 के फैसले को सर्वसम्मति से पलट दिया. पांच न्यायाशीधों की पीठ के फैसले के तहत सांसदों और विधायकों को सदन में वोट डालने या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के मामले में अभियोजन से छूट दी गई थी.

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शिबू सोरेन फाइल फोटो.

प्रधान न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए कहा कि रिश्वतखोरी के मामलों में संसदीय विशेषाधिकारों के तहत संरक्षण प्राप्त नहीं है और 1998 के फैसले की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के विपरीत है. अनुच्छेद 105 और 194 संसद और विधानसभाओं में सांसदों और विधायकों की शक्तियों एवं विशेषाधिकारों से संबंधित हैं. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पीठ के लिए फैसले का मुख्य भाग पढ़ते हुए कहा कि रिश्वतखोरी के मामलों में इन अनुच्छेदों के तहत छूट नहीं है क्योंकि यह सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को नष्ट करती है.

30 साल, सुप्रीम कोर्ट और शिबू सोरेन से लेकर सीता सोरेन तक जेएमएम का सफर : शिबू सोरेन की बहू सीता सोरेन पर 2012 के राज्यसभा चुनाव में एक स्वतंत्र उम्मीदवार को वोट देने के लिए रिश्वत लेने का आरोप था. सीता सोरेन ने अनुच्छेद 194 (2) के प्रावधानों पर भरोसा करते हुए, उनके खिलाफ आरोप पत्र और आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए झारखंड उच्च न्यायालय (एचसी) का रुख किया था. लेकिन एचसी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था. इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां सितंबर 2014 में दो जजों की बेंच ने राय दी कि चूंकि यह मुद्दा 'पर्याप्त और सामान्य सार्वजनिक महत्व का' था, इसलिए इसे तीन जजों की बड़ी बेंच के सामने रखा जाना चाहिए.

7 मार्च, 2019 को, जब तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अपील पर सुनवाई की, तो उसने कहा कि HC का फैसला नरसिम्हा राव के फैसले से संबंधित है, और इसलिए इसे एक बड़ी पीठ के पास भेजा जाना चाहिए. मामले को उठाते हुए, 5-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस ए एस बोपन्ना, एम एम सुंदरेश, जे बी पारदीवाला और मनोज मिश्रा भी शामिल थे, ने कहा कि हमारा विचार है कि पी वी नरसिम्हा राव के मामले में बहुमत का दृष्टिकोण सही है. मामले पर सात न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए. इसमें कहा गया था कि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो हमारी राजनीति से संबंधित है.

जेएमएम का राजनीतिक इतिहास : जेएमएम, जिसका गठन 1973 में एक अलग झारखंड राज्य की स्थापना के लिए किया गया था. साल 2000 में इसका उद्देश्य पूरा हुआ. जेएमएम के पास राज्य में पांच बार सीएम पद रहे हैं. शिबू सोरेन - 2 मार्च 2005 से 12 मार्च 2005; शिबू सोरेन - 27 अगस्त 2008 से 18 जनवरी 2009 तक; हेमन्त सोरेन - 13 जुलाई 2013 से 28 दिसम्बर 2014 तक; हेमन्त सोरेन - 2019 से 2024 फरवरी तक)

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