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संघर्ष और शहादत की कहानी, कब बनेगा 'सपनों का उत्तराखंड'?

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Published : Nov 9, 2020, 8:01 AM IST

Updated : Nov 18, 2020, 4:50 PM IST

उत्तराखंड 20 साल का हो चुका है, लेकिन 20 सालों बाद भी शहीद और आंदोलनकारियों के सपने का उत्तराखंड आज तक नहीं बन पाया है. जानिए उत्तराखंड गठन के पीछे की कहानी.

देहरादून
सपनों का उत्तराखंड

देहरादून: उत्तराखंड राज्य स्थापना के 20 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन जिस उत्तराखंड का सपना राज्य आंदोलनकारियों ने देखा था. वह आज तक पूरा नहीं हो पाया है. उत्तराखंड राज्य गठन के पीछे दो सदियों का संघर्ष है. कई राज्य आंदोलकारियों की शहादत है, जिसके बदौलत आज उत्तराखंड अपने अस्तित्व में आया है, लेकिन अभी भी सपनों का उत्तराखंड अधूरा है. जानिए राज्य स्थापना के पीछे की कहानी.

उत्तराखंड राज्य ऐसे ही नहीं बना है. इसके पीछे दो सदी की संघर्ष की कहानी है. माताओं-बहनों का अपमान, गोलीकांड, लाठीचार्ज और कई शहादतें इसमें शामिल हैं. राज्य स्थापना के 20 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन सपनों का उत्तराखंड की तलाश अभी जारी है. दर्द इस बात की है कि प्रदेश में इन 20 सालों के दौरान चौथी निर्वाचित सरकार बन चुकी है, लेकिन राज्य निर्माण आंदोलन कार्यों के सवाल आज भी जस के तस बने हुए हैं.

उत्तराखंड राज्य निर्माण के दौरान तमाम घटनाओं में 40 राज्य आंदोलनकारियों ने अपनी जान गंवाई थी, जिसका रिकॉर्ड सरकारी खातों में दर्ज है. इसमें मुजफ्फरनगर कांड, मसूरी और खटीमा कांड में सबसे ज्यादा आंदोलनकारी शहीद हुए थे. शहीद राज्य आंदोलनकारियों पर गौर करें तो 1 सितंबर 1994 को खटीमा गोलीकांड हुआ, जिसमें 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए थे. खटीमा में हुए इस गोलीकांड के दौरान राज्य आंदोलनकारी बेहद शांति के साथ अपना आंदोलन कर रहे थे. तभी अचानक से पुलिस फोर्स की तरफ से गोलियों चलाई गई, जिसमें 7 आंदोलनकारियों को अपनी जान गंवानी पड़ी.

संघर्ष और शहादत की कहानी.

खटीमा गोलीकांड के ठीक एक दिन बाद ही 2 सितंबर 1994 को मसूरी गोलीकांड की घटना हुई. जिससे उत्तराखंड राज्य आंदोलन की आग और ज्यादा फैल गई. लोगों में नए राज्य स्थापना को लेकर आक्रोश और ज्यादा बढ़ गया. मसूरी गोलीकांड में भी 7 आंदोलनकारी शहीद हुए थे. अपने चरम पर चल रहे राज्य आंदोलन को इस गोलीकांड ने और हवा दे दी. जिससे पूरे गढ़वाल और कुमाऊं मंडल में आंदोलन तेज हो गया.

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राज्य निर्माण आंदोलन अपने चरम पर था और दिल्ली कूच की तरफ राज्य आंदोलनकारी निकल पड़े थे, इस दौरान आंदोलनकारियों ने दिल्ली की तरफ कदम बढ़ाए ही थे कि मुजफ्फरनगर में पहले से तैयार पुलिसकर्मियों ने आंदोलनकारियों को खदेड़ना शुरू कर दिया. पुलिस कर्मियों का यह विरोध और दमन केवल गोलियां चलाने और लोगों को मारने तक कि नहीं था, बल्कि राज्य अधिकारियों की मानें तो इस दौरान आंदोलन में शामिल महिला के साथ अभद्रता की गई. 1 और 2 अक्टूबर 1994 को मां बहनों के अपमान के साथ उत्तर प्रदेश पुलिस का अमानवीय चेहरा पूरे देश ने देखा. पुलिसिया दमन के दौरान 6 आंदोलनकारियों ने अपनी जान गंवाई. यही नहीं इस दौरान तीन आंदोलनकारी लापता हो गए, जिनका आज तक पता नहीं चल पाया है.

3 अक्टूबर 1994 को करणपुर में भी गोलीकांड हुआ. इस दौरान राजेश रावत आंदोलनकारी की जान चली गई. आरोप लगा कि तत्कालीन सपा नेता सूर्यकांत धस्माना आदेश के पर उनके गनर ने आंदोलनकारी पर गोली चलाई थी. हालांकि मामले में लंबे समय तक जांच चली, जिसमें सूर्यकांत धस्माना को क्लीन चिट मिल गई. 3 अक्टूबर 1994 को ही जोगीवाला गोलीकांड भी हुआ. यहां पर आंदोलनकारी राजेश वालिया को पुलिस ने गोली मार दी, जिसमें राजेश वालिया शहीद हो गए. 3 अक्टूबर 1994 को कोटद्वार में पुलिस लाठीचार्ज के बाद राकेश देवरानी शहीद हो गए थे. 10 नवंबर 1994 को श्री यंत्र कांड श्रीनगर में हुआ. यहां पर भी पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिसमें कई आंदोलनकारी नदी में डूब कर शहीद हो गए.

इतनी शहादतों के बाद आखिरकार 9 नवंबर 2000 को राज्य की स्थापना हुई. वहीं, 20 साल बाद भी शहीदों और राज्य आंदोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड नहीं बन पाया है. हैरत इस बात की है कि आज तक राज्य आंदोलनकारियों की मांगों को कोई सरकार पूरा नहीं कर पाई है. राज्य आंदोलनकारियों का कहना है कि सरकारों ने सत्ता के लालच में शहीदों के सपनों को भुला दिया है. कांग्रेस और भाजपा ने बारी-बारी प्रदेश पर राज तो किया, लेकिन दिल्ली की जी हजूरी के चक्कर में प्रदेश के विकास और शहीदों के सपनों को नेता भुला बैठे.

Last Updated :Nov 18, 2020, 4:50 PM IST

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