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मृत आत्मा की शांति के लिए कोरकू आदिवासियों की अनोखी 'गाथा' प्रथा, पचमढ़ी में मौजूद है पवित्र स्थान

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Published : Nov 26, 2020, 7:53 AM IST

प्रदेश के अदिवासी अपनी कई अलग प्रथाओं के लिए जाने जाते हैं, जिन्हें वे अभी भी निभा रहे हैं. ऐसी ही प्रथा है 'गाथा'. जिसे इस समाज के लोगों द्वारा सदियों से निभाया जा रहा है.. जानिए क्या है गाथा प्रथा.......

Hoshangabad
गाथा प्रथा

होशंगाबाद। भारत के आदिवासियों की कई प्राचीन परंपरा ऐसी है, जिन्हें आज भी हमारा समाज पूरी तरह से नहीं जान पाया है. जिसे जंगल में रहने वाले आदिवासी कई पीढ़ियों से निभाते आ रहे हैं, जिनमें अपने पेड़ पौधों को आराध्य मानकर वे उनकी पूजा करते हैं. ऐसी ही एक आदिवासी की प्रथा है 'गाथा' जिसमें वे अपने परिजनों की मृत्यु के बाद उनकी आत्मा की शांति के लिए ये परंपरा निभाते हैं, वे मानते हैं कि ऐसा करने से उनके परिजनों की आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ती होती है.

गाथा प्रथा

200 से ज्यादा गांव के आदिवासी निभा रहे गाथा प्रथा

इस प्रथा को निभाने वाले अदिवासियों का ऐसा एक स्थान पचमढ़ी में मौजूद है, जिसे जयस्तंभ चौक के नाम से जाना जाता है, जहां करीब 200 से अधिक गांव के आदिवासी इस प्रथा को पूरा करने के लिए आते हैं, और इसके लिए वे एक विशेष आम के पेड़ को पवित्र मानकर पूजा करते हैं. ऐसे किसी आदिवासी की मृत्यु होने के 11वें दिन या उसके बाद इस विशेष प्रथा को निभाया जाता है. इस स्तंभ चौक को लोकल प्रशासन द्वारा संरक्षित किया गया है.

लकड़ी के पटियों पर करते हैं कलाकृतियों का निर्माण

आदिवासी समाज के कोरकू जाति के परिवार लकड़ी पर मृतक व्यक्ति का नाम लिखकर अनोखी कलाकृति बनाते हैं. जिसमें विशेष रूप से पशुओं की कलाकृति को बनाया जाता है. जिसको रखकर करीब एक दिन तक उसका घर में ही पूजन किया जाता है, उसे बाद पचमढ़ी में जय स्तंभ चौक पर लाकर आराधना की जाती हैं. इस दौरान आदिवासी पारंपरिक लोक नृत्य भी करते हैं. इस कार्यक्रम में कोरकू जाति के सभी आदिवासी पहुंचते हैं. इस पूरी विधि को आदिवासियों द्वारा निभाया जाता है, जिसे गाथा प्रथा कहा जाता है. आदिवासियों का मानना है कि गाथा करने से मृत आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है.

पिंडदान की तरह है गाथा प्रथा

जिस प्रकार हिंदू धर्म के अनुसार पूर्वजों की मोक्ष प्राप्ति के लिए गया में जाकर पिंडदान का किया जाता है, उसी प्रकार आदिवासी इस गाथा की परंपरा को सालों से निभाते आ रहे हैं. स्थानीय निवासी नीरज उदय बताते हैं, कि पचमढ़ी सहित सतपुड़ा में 18वीं शताब्दी में आदिवासी राजा भभूतसिंह का साम्राज्य था. 1862 मे स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे की खोज में ब्रिटिश केप्टन जमस्फोरटेड पचमढ़ी पहुंचे थे, जिन्होंने पचमढ़ी की खोज की थी, तब से यहां के आदिवासी इस प्रथा को निभाते आ रहे हैं.

इस दौरान पवित्र स्थल को अब लोकल प्रशासन द्वारा संरक्षित किया गया है. साथ ही इसे संरक्षित क्षेत्र भी घोषित कर दिया गया है. वहीं कोरकू आदिवासी राजू बताते हैं कि यह परम्परा सदियों से चली आ रही है. सभी लोग आसपास के क्षेत्र से यहां एकत्रित होते हैं, और करीब 200 गांव के आदिवासी यहां पहुंचते हैं और इस परंपरा को निभाते हैं, जिसमें मृतक की आत्मा की शांति के लिए कलाकृति बनाकर रखा जाता है.

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