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छोटी लाइन की बड़ी कहानी भाग-3: अकाल के दौर में खुशियां बरसाती छुक-छुक करती चली 'नैनो' ट्रेन

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Published : Jul 10, 2021, 7:45 AM IST

Updated : Jul 22, 2021, 7:20 PM IST

प्राकृतिक संकट के दौर में जब तत्कालीन ग्वालियर राज्य में छुक-छुक करती ट्रेन चली तो मानो प्रकृति ने भी इसका इस्तकबाल किया. ट्रेन के आने से जहां ग्वालियर की शान में चार चांद लग गया, वहीं आम आदमी की जीवनशैली में बदलाव भी आने लगा. साथ ही उस दौर की लग्जरी यात्रा का आनंद भी कम खर्च में मिलने लगा. नैरोगेज ट्रेन की विशेष कहानी के भाग तीन में इसकी पहुंच, विशेषताओं और खर्च का वर्णन है...

special story of narrow gauge train
छोटी लाइन की बड़ी कहानी

ग्वालियर। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ग्वालियर क्षेत्र अकाल की चपेट में था और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित भी. तब रियासत के महाराजा माधोराव सिंधिया ने इस क्षेत्र के विकास के लिए रेलवे के जरिए दूसरे क्षेत्रों से जोड़ने का विचार किया, ताकि सेना, यात्री और सामान को आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सके. तब श्योपुर कलां सिंधिया राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी. यह प्रोजेक्ट चार चरणों में पूरा हुआ.

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ग्वालियर से जौरा तक परियोजना का पहला चरण जनवरी 1904 तक पूरा हो गया था. जौरा से सबलगढ़ तक दूसरा चरण दिसंबर 1904 तक पूरा हो गया था. तीसरा चरण सबलगढ़ से बीरपुर तक पूरा हुआ. इसके तैयार होने में वर्षों लग गए, जिसमें कुनू नदी पर बने पुल का इंजीनियरिंग कार्य भी शामिल है. यह मार्ग नवंबर 1908 में खोला गया था, जबकि प्रस्तावित ट्रैक का चौथा और अंतिम भाग जून 1909 तक उपयोग के लिए तैयार हो गया था. ट्रैक बिछाने में कुल 1.872 मिलियन रुपए की लागत आई थी. इस ट्रेन से जुड़े विशेष कोच का उपयोग महाराजा और उनके अधिकारियों द्वारा शिकार और कर (लगान) संग्रह के दौरान यात्रा करने के लिए किया जाता था.

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नैरोगेज ट्रैक पर रोजाना पांच ट्रेनें दौड़ती थी. सुबह छह बजे एक ट्रेन ग्वालियर से और दूसरी श्योपुर से चलती थी. करीब 11 घंटे में ट्रेन रोजाना 198.5 किमी की दूरी तय करती थी. बाकी की तीन ट्रेनें दिन में आधे रूट को कवर करती थी, एक ट्रेन के कोचों की कुल संख्या छह से सात के बीच होती थी. बी-श्रेणी के 14 और डी-श्रेणी के 14 स्टेशनों को मिलाकर कुल 28 स्टेशन थे, जहां पर ट्रेनों का ठहराव होता था. रेलवे रूट पर कुल 322 पुल हैं, जिसमें 8 प्रमुख पुल भी शामिल हैं, इनमें से कुछ पुलों का निर्माण पीडब्ल्यूडी और रेलवे के साझा सहयोग से कराया गया है. ट्रेन की अधिकतम गति सीमा 50 किमी/घंटा थी और एक बार में 630 लीटर डीजल भरकर चलती थी, जिसमें 33-34 किलोलीटर प्रति माह के हिसाब से ईधन की खपत होती थी.

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इस ट्रेन के संचालन से लोगों को आजीविका चलाने में आसानी हो गई. साथ ही भारतीय डाक सेवा गांवों से आसानी से जुड़ गया. स्थानीय खुदरा सामान विक्रेता और फेरीवाले इसी ट्रेन से सामान लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाते थे. यह ट्रेन सरकारी सेवाओं को आदिवासी क्षेत्रों में कल्याणकारी कार्यक्रम शुरू करने में सक्षम बना रही थी. किसान उपज और उर्वरक आदि इसी ट्रेन से ले जाते थे. उस समय कोटा (राजस्थान) इस क्षेत्र का प्रमुख वस्तु व्यापार केंद्र था.

पटरी पर दौड़ती नैरोगेज ट्रेन

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नैरोगेज ट्रेन के संचालन से उस समय ग्वालियर का नाम भी अगड़े रियासतों में गिना जाने लगा. साथ ही वहां के लोगों की जीवनशैली में क्रांतिकारी बदलाव आया और व्यापार का दायरा बढ़ने से लोगों की आमदनी भी बढ़ी और राज्य के राजस्व में भी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई थी.

खाली प्लेटफार्म

दो फीट चौड़ी पटरी पर 100 साल से अधिक समय से दौड़ती नैरोगेज ट्रेन 200 किमी के दायरे के 250 से अधिक गांवों की आबादी को रोजाना उनकी मंजिल तक पहुंचाती रही है. पर अब ये ट्रेन सिर्फ तस्वीरों में दिखेगी और किताबों में पढ़ी जाएगी क्योंकि अब नैरोगेज को ब्रॉडगेज में कन्वर्ट करने की तैयारी हो चुकी है.

Last Updated : Jul 22, 2021, 7:20 PM IST

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