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छोटी लाइन की बड़ी कहानी भाग-1: जब राजा का 'शौक' बन गई 'प्रजा' के जीने का सहारा

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Published : Jul 8, 2021, 5:15 PM IST

Updated : Jul 22, 2021, 1:47 PM IST

वो खिलौना जिसे एक राजकुमार ने खुद के खेलने के लिए अपने मास्टरजी से इंग्लैंड से लाने का आग्रह किया. खिलौना भारत आ भी गया, पर राजकुमार को उससे खेलने में पापड़ बेलने पड़ गए. जिस टॉय ट्रेन में बैठकर राजकुमार महल के चक्कर लगाना चाहते थे, वह तमाम अड़चनों और लंबे वक्त के बाद पूरा हुआ. अंतत: टॉय ट्रेन 1893 में पटरी पर आ गई, जो देखते ही देखते लोगों के जीने का सहारा बन गई. यहां चरणबद्ध तरीके से आपको टॉय ट्रेन के सफर की कहानी बता रहे हैं. इससे आगे की कहानी अगले भाग में होगी...

meter gauge
डिजाइन फोटो

ग्वालियर। राजा जयाजीराव सिंधिया के बेटे राजकुमार माधोराव सिंधिया की शिक्षा-दीक्षा एक योजना के अनुसार चली. इसका उद्देश्य उन्हें शाही आदर्श की छवि में ढालना था. एक लड़के के रूप में सवारी, शूटिंग और प्यार करना सिखाया गया था. जब उन्होंने 'यांत्रिक शौक' में दिलचस्पी लेने की कोशिश की तो पाया कि उनके पास पर्याप्त यांत्रिकी नहीं हो सकती है. किसी मशीन या अन्य वस्तू के साथ छेड़छाड़ करते समय वह कभी खुश नहीं होता था. जब उनके अभिभावक जे.डब्ल्यू. जॉनस्टोन जिन्हें वे मास्टरजी कहते थे, छुट्टी पर इंग्लैंड गए तो उन्होंने उनसे केवल एक टॉय ट्रेन लाने के लिए कहा, जिसमें वो सवारी कर सकते थे.

नैरोगेज ट्रेन

मास्टरजी अपने शिष्य के लिए जो 'टॉय' ट्रेन लाए थे, उसमें एक स्टीम-इंजन, छह बोगियां और आधा मील लंबा रेलवे ट्रैक शामिल था, जो दो फीट के गेज में था. अगले कुछ हफ्तों के लिए माधोराव अपने महल के चारों ओर ट्रैक बिछाने और रास्ते में आने वाली परिसर के किसी भी दीवार को तोड़ने में व्यस्त रहे. हालांकि, जब ट्रेन का ट्रायल किया गया तो ट्रैक बहुत छोटा पड़ गया. इस दौरान ट्रेन पैलेस की दीवार से टकरा गई, जिसके बाद ट्रेन का ट्रायल रोकना पड़ा. बाद में दो मील ट्रैक बिछाने का आदेश दिया गया, क्योंकि महल के परिसर के भीतर इसके लिए पर्याप्त जगह नहीं थी. तब इसे मोरार के उपनगर तक बढ़ा दिया गया.

नैरोगेज ट्रैक

इससे महल और सरकार के बीच एक अजीब राजनीतिक स्थिति पैदा हो गई. एक ट्रेन जो यात्रियों और माल को ले जा सकती थी, उसे महज एक खिलौना समझा जा रहा था, यदि वह सिर्फ पैलेस परिसर में दौड़ती. जब ट्रेन शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक जाती तो यह एक 'रेलवे प्रणाली' बन जाती. लेकिन अंग्रेज शुरु से ही भारतीय राजकुमारों को रेलवे का निर्माण नहीं करने देने के बारे में सोच रहे थे. ऐसा इसलिए क्योंकि इससे शाही संरक्षण में रह रहे राजघरानों में ईर्ष्या का संचार होता.

नैरोगेज ट्रेन का कोच

सामान्य परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने मांग की कि ट्रैक को तोड़ा जाना चाहिए. चूंकि ट्रेन चलाना महाराजा की कार्यप्रणाली का एक हिस्सा था, इसलिए वे गलती को सुधारने के लिए तैयार थे. एक या दो साल बाद उन्होंने राजधानी से लगभग आठ मील की दूरी पर सुसेरा तक 'रेलवे सिस्टम' का विस्तार करने को मंजूरी दे दी. ये एक शिकार संरक्षित क्षेत्र था, जहां माधोराव के पिता ने एक शूटिंग बॉक्स बनवाया था.

नैरोगेज ट्रेन

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इस प्रकार ग्वालियर लाइट रेलवे (GLR) एक रियासत के खिलौने के रूप में अस्तित्व में आया. जब यह प्रोजेक्ट सालों बाद पूरा हुआ तो इसका ट्रैक 250 मील से अधिक दूरी तक बिछ चुका था, जिसने सिंधिया रियासत के दूरस्थ हिस्सों को एक यात्री और माल वाहक सिस्टम के रूप में उन दिनों में सेवा प्रदान की. इस समय मोटर वाहन दुर्लभ थे लिहाजा ये कारगर साबित हुआ. दो विश्व युद्धों के बीच एक हिस्सा बन गया भारतीय रेल नेटवर्क. बाद में सड़क परिवहन के बढ़ने और बस सेवाओं के विकास से रेलवे अलाभकारी हो गया. इसके अधिकांश ट्रैक ध्वस्त कर दिए गए. सौभाग्य से करीब 100 मील का एक हिस्सा बचा है, जहां आप छोटी गाड़ियों को ललकारते ऑटो रिक्शा और तांगे के साथ दौड़ते हुए देख सकते हैं क्योंकि वे भीड़-भाड़ वाले इलाकों से गुजरती है और छोटे स्टेशनों पर रुकती है.

ट्रैक पर खड़ी नैरोगेज ट्रेन

इस तरह एक राजकुमार का खिलौना देखते ही देखते ग्वालियर शहर और उसके आसपास के लोगों के जीने का सहारा बन गई. 1893 में टॉय ट्रेन चलने के बाद इसका विस्तार ग्वालियर से मुरैना-श्योपुर, ग्वालियर से भिंड के अलावा कई और रूटों पर किया गया. माधोराव सिंधिया राजमाता विजयाराजे सिधिया के ससुर यानि जीवाजी राव सिंधिया के पिता थे. माधोराव का शासनकाल 20 जून 1886 से 5 जून 1925 तक रहा, इसके पहले इनके पिता जयाजीराव सिंधिया का शासन था, उनके बाद जीवाजी राव सिंधिया ने शासन की बागडोर संभाली.

Last Updated : Jul 22, 2021, 1:47 PM IST

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