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kargil Vijay Diwas: रीवा के लाल कमलेश पाठक ने 'कारगिल युद्ध' में पाकिस्तान को चटाई थी धूल, सीने में 27 गोलियां खाकर देश के लिए हो गए शहीद

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Published : Jul 26, 2022, 6:04 AM IST

Rewa martyr Major kamlesh Pathak
कमलेश पाठक ने पाकिस्तान को चटाई धूल

कारगिल दिवस पर ईटीवी भारत आज आपको एक ऐसे वीर सपूत की कहानी बताने जा रहा है. जिसने युद्ध के दौरान रण भूमि में पाकिस्तान की सैकड़ों दुश्मन सेना को अपने पराक्रम और साहस से धूल चटाई थी. पाकिस्तानी सेना को अपनी बंदूक की गोलियों से भूनकर उन्हें मौत के घाट उतार दिया था और मातृ भूमि की रक्षा करते हुए खुद देश के लिए हंसते-हंसते शाहीद हो गए. रीवा बैकुंठपुर स्थित जामू के निवासी शहीद मेजर कमलेश पाठक आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके शौर्य गाथा की चर्चा हर कोई करता है.(kargil vijay Diwas) (Rewa martyr Major kamlesh Pathak)

रीवा।आज कारगिल विजय दिवस है. साल 1999 में हिंदुस्तान व पाकिस्तान के बीच हुए भीषण जंग में देश की आन बान और शान के लिए भारत के कई वीर जवान दुश्मनों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए. लेकिन दुश्मनों के पैर भारतीय सीमा के अंदर घुसने नहीं दिया. करीब 2 माह तक चले इस युद्ध में रीवा जिले के तीन जवानों ने भी अपनी शहादत से रीवा की माटी को गौरवान्वित किया था. इन्ही वीर योद्धाओं में शामिल हैं रीवा जिले के बैकुंठपुर स्थित जामू गांव के निवासी शहीद मेजर कमलेश पाठक. रीवा की धरती पर जन्मे इस वीर सपूत ने भी देश की खातिर मर मिटने की कसम खाई और कारगिल युद्ध में कई पाकिस्तानी दुश्मनों से लोहा लेते हुए उन्हें मौत के घाट उतार दिया. लेकिन उन पर झाड़ियों में छिपकर बैठे दुश्मन सिपाही ने कायराना हरकत कर ब्रेस्ट गन से हमला कर 27 गोलियां उनके सेने पर दाग दीं. जिसके बाद मेजर कमलेश पाठक हंसते-हंसते देश की खातिर शहीद हो गए.

कमलेश पाठक ने पाकिस्तान को चटाई धूल

देश की खातिर कुर्बान हो गया रीवा का लाल:साल 1999 के दौरान कारगिल युद्ध में शहीद हुए मेजर कमलेश पाठक दिल में जोश जज्बा और जुनून लेकर देश की सेवा करने के लिए भारतीय सेना में शामिल हुए थे. साल 1999 में उनकी पोस्टिंग भारत पाकिस्तान की सीमा पर हुई. बस उसी दौरान जून में भारतीय जमीन पर कब्जा करने के लिए पाकिस्तान की सेना पहाड़ के ऊपर झाड़ियों में छुप कर बैठ गई. उस दौरान भारतीय सेना भी दुश्मन सेना से युद्ध के लिए हर समय तैयार थी. शहीद कमलेश पाठक आरआर रेजिमेंट में मेजर के पद पर पदस्थ थे. उनकी आखिरी पोस्टिंग राजिस्थान के नसीराबाद जिला अजमेर में हुई थी. हमले के दौरान वह अपने रेजिमेंट के चार टुकड़ियों का नेतृत्त्व कर यह थे. पहाड़ की झाड़ियों में दुश्मन सेना के छिपे होने की जानकारी जब मेजर कमलेश पाठक को हुई तो दुश्मनों का मुकाबला करने लिए अपने रेजिमेंट के तीन टुकड़ियों को अलग-अलग भेजा और खुद एक टुकड़ी का नेतृत्त्व करते हुए आगे बढ़ गए. इसी दौरान हिंदुस्तानी फौज पर घात लगाकर बैठी पाकिस्तानी सेना ने अचानक से गोलीबारी करनी शुरू कर दी. हमले में भारतीय सेना के कई जवान शहीद हुए लेकिन मेजर कमलेश पाठक ने हार नही मानी आगे बढ़े और दुश्मन सेना को धूल चटाते हुए कई पाकिस्तानी दुश्मनो को मौत के घाट उतार दिया.

प्रतिमा स्थापित कर दी गई लेकिन प्रतिमा के लिए बेसमेंट नहीं बनाया

पाक सेना से किया डटकर मुकाबला: मेजर कमलेश पाठक और उनके अन्य साथी जवानों ने पाकिस्तान की दुश्मन सेना से डटकर मुकाबला किया. कई घंटो तक चली मुठभेड़ में पाकिस्तानी आर्मी का एक सैनिक बच गया और छिपकर ब्रेस्ट गन से फायरिंग कर उसकी सारी गोलियां मेजर कमलेश पाठक पर दाग दी. सीने में 27 गोलियां लगने बाद मेजर कमलेश पाठक शहीद ही गए. जिसके बाद शहीद मेजर के पार्थिव शरीर को लेकर सेना के जवान उनके गांव जामू पहुंचे और सैन्य सम्मान के साथ उन्हें अंतिम विदाई दी गई. शहीद मेजर की अंतिम यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए और नम आंखों से उन्हें विदाई दी. 27 गोलियों में से एक गोली शहीद के शरीर में ही धंसी रह गई जो शहीद के अन्तयेष्टि के बाद उनके अस्थियों में परिजनों को मिली.

शहीद मेजर कमलेश पाठक का परिवार

पिता भी दे चुके हैं भारतीय सेना में सेवा: मेजर कमलेश पाठक का जन्म 1959 में रीवा जिले के मऊगंज तहसील क्षेत्र के बैकुंठपुर स्थित चामू गांव में हुआ था. शहीद मेजर कमलेश पाठक के पिता रमेशचंद्र पाठक भी थल सेना में दिल्ली आर्डनेंस मे बतौर सूबेदार के पद पर पदस्थ थे और बीते कुछ वर्षों पहले ही गंभीर बीमारी के चलते उनका निधन हो गया. शहीद मेजर कमलेश पाठक पांच भाई थे. सबसे छोटे भाई कैंसर की बीमारी से ग्रसित थे. जिनकी मुंबई में इलाज के दौरान मौत ही गई थी. कुछ वर्षो बाद ही मेजर कमलेश पाठक मातृ भूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गए. और 5 साल पहले ही उनके एक और भाई ने दवाई और इलाज के अभाव अपने प्राण त्याग दिए. मेजर कमलेश पाठक के दो भाई सत्यनारायण पाठक और करुणा निधी पाठक जो की एक चेन्नई और दूसरे रायगढ़ में रह कर निजी कंपनी में नौकरी करते हैं. शाहीद मेजर की वीरांगना अल्पना पाठक अजमेर रहती थी और अब वह आपने बेटे तक्ष के साथ दिल्ली में रहती है.

आज भी बेटे की राह देख रही हैं मां

आज भी बेटे की राह देख रही बूढ़ी मां: देश की खातिर अपने प्राणों की आहूति देने वाले शहीद मेजर के 79 वर्षीय लकवा से ग्रस्त मां मीरा पाठक आज भी बेटे की राह देख रही हैं. वह कहती हैं कि ''कमलेश के जाने के बाद उनका परिवार बिखर गया. पति और दो बेटों की मौत के बाद उनका एक बेटा कमलेश पाठक देश की सेवा करते हुए शहीद हो गया. पोते के साथ बहु बाहर चली गई. बेटे कमलेश पाठक की शहादत को याद कर के आज भी बूढ़ी मां की आंखे नम हो जाती है. अपने लाल अपने जिगर के टुकड़े कमलेश की यादो के सहारे वह आज भी जिंदा है और पिछले 23 सालों से उन्ही यादों को संजोए बूढ़ी मां आज भी अपने लाल की राह देखती है''. परिवार में शहीद कमलेश के चाचा सुरेश पाठक है जो की उनके घर से कुछ ही दूरी पर रहते हैं. शहीद की मां अब तक गांव के कच्चे घर में रहकर अपना गुजर बसर करती हैं. पति की पेंशन से पैसे जोड़कर किसी तरह उन्होंने नए घर की दीवार तो खड़ी करवा ली लेकिन छत बनवाने में वह असमर्थ हैं.

कच्चे घर में रहती हैं शहीद की मां

23 साल बाद भी नही मिली सुविधाएं: अगर बात की जाए सरकारी सिस्टम की तो शहीद की शहादत में प्रदेश के तात्कालिक मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी शामिल हुए थे. उन्होंने शहीद के परिवार को हर सम्भव मदद देने का आश्वासन दिया था. परिवार में भाइयों को शासकीय नौकरी के साथ और भी बहुत कुछ देने का वादा किया. 10 लाख रुपये की तात्कालिक सहायत राशि देने के बाद उनके वादे खोखले साबित हुए. आज 23 साल बीत जाने के बाद किसी भी सरकारी नुमाइंदे ने इस शहीद मेजर कमलेश पाठक के परिवार की सुध लेने की कोशिश तक नहीं की है. जिसके कारण आज शहीद का परिवार बदहाली की जिंदगी जी रहा है.

अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे तात्कालिक मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह

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सरकारी उदासीनता का दंश झेल रहा शहीद का परिवार:शहीद मेजर कमलेश पाठक के परिजनों का कहना है कि ''शहीद के स्मृति के रूप में गांव के ग्राम पंचायत भवन में सरकार की ओर से एक प्रतिमा स्थापित कर दी गई. लेकिन उनकी प्रतिमा के लिए ना तो बेसमेंट का काम कराया गया और ना ही उनके सिर पर एक छतरी लगाई गई. वहीं सरकारी उदासीनता का दंश झेल रहे शहीद के परिवार को पिछले 4 वर्षों से रीवा में 15 अगस्त व 26 जनवरी में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में आमंत्रित नहीं किया गया''. इसके अलावा अगर बात की जाए गांव के मुख्य मार्ग से शहीद के घर तक जाने वाली सड़क की तो उसकी हालत भी शहीद के परिवार की तरह ही जर्जर है. गांव के लिए जाने वाले मुख्य मार्ग में सरकार के द्वारा तोरण द्वार तो लगवा दिया गया लेकिन आज तक उस द्वार में शहीद का नाम तक छापने की किसी ने जहमत नहीं उठाई.

प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गोल्ड मैडल से किया था सम्मा​नित: देश की खातिर अपना प्राणों की आहुति देने वाले शहीद मेजर कमलेश पठाक के चाचा सुरेश पाठक बताते हैं की ''शहीद मेजर कमलेश पाठक काफी साहसी और निडर थे. और उनके इसी साहस के लिए उनके सैन्य अफसरों ने उन्हें उनके आर-आर रेजिमेंट में मेजर का दायित्त्व सौंपा. मेजर का पद मिलने के बाद शहीद मेजर कमलेश पाठक को देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने उन्हें गोल्ड मेडल से सम्मानित किया और उन्हें अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया''.

7 जुलाई 1999 को होने वाला था प्रमोशन: शहीद जवान के चाचा सुरेश पाठक बताते हैं कि कारगिल युद्ध के दौरान ही शहीद मेजर कमलेश पाठक का प्रमोशन किया जाना था. उन्हें मेजर के बाद 7 जुलाई 1999 को लेफ्टिनेंट कार्नल का दायित्व सौंपा जाना था. बेटे के कर्नल बनने की खुशी पूरे परिवार में थी. यादगार पल में शामिल होने के लिए मेजर कमलेश पाठक के पिता रमेश चंद्र पाठक और उनकी मां मीरा पाठक रीवा से निकलकर देहरादून तक पहुंच गए. लेकिन कारगिल युद्ध में बेटे के शहीद होने की खबर सुनकर उनकी सारी खुशियां मातम में तब्दील हो गई. 1 जून 1999 की रात पाकिस्तान की दुश्मन सेना ने पहाड़ों में छिपकर हिंदुस्तानी फौज पर हमला कर दिया और उसी पाकिस्तान की सेना से लोहा लेते हुए शहीद मेजर कमलेश पाठक वीरगति को प्राप्त हो गए.
(kargil vijay Diwas) (Rewa martyr Major kamlesh Pathak) (Martyred for country by fighting with Pakistan)

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