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जब UP में OBC वोट बैंक पर पहले से BJP का 'कब्जा', तो सहयोगी कैसे कर पाएंगे मनमाफिक समझौता?

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Published : Sep 28, 2021, 6:31 PM IST

पिछले लोकसभा और कई राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम से यह स्पष्ट हो गया है कि बड़ी संख्या में ओबीसी वोट बैंक (OBC Vote Bank) बीजेपी (BJP) के साथ है. ऐसे में यूपी में बीजेपी के साथ गठबंधन की उम्मीद कर रहे नीतीश कुमार, जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी के लिए अपनी शर्तों पर समझौता आसान नहीं होगा.

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पटना: देश में बीजेपी (BJP) की सियासत विपक्ष की तरफ से सवर्ण राजनीति (Upper Caste Politics) और धर्म के आधार (Politics Based on Religion) पर बैठाकर चाहे जिस रूप में बताई जाती हो, लेकिन हकीकत यही है कि ओबीसी वोट बैंक(OBC Vote Bank) पर जिस पकड़ को बीजेपी ने कायम किया है, उसने दूसरे राजनीतिक दलों की चिंता बढ़ा दी है. सबसे बड़ी बात यह है कि उन राज्यों में जहां बीजेपी के बहुत मजबूत आधार नहीं थे, वहां भी ओबीसी वोट बैंक पर बीजेपी ने बड़ी पकड़ बनाई है और इसने देश की सियासत में जातीय गिनती की दिशा और उसको लेकर सियासत कर रहे राजनीतिक दलों को विचार करने का मुद्दा और सियासत की चिंता दोनों दे दिया है.

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बिहार की पूरी सियासत ही जातीय संरचना के इर्द-गिर्द रहती है, जिस राजनीतिक दल के पास जाति का जितना बड़ा समर्थन रहा है, उसने गद्दी को इतनी आसानी से पा लिया है. बिहार की बात करें तो विधानसभा 2020 के चुनाव में बीजेपी को 26 फीसदी वोट ओबीसी का मिला था, जबकि 25 फीसदी वोट जेडीयू को मिला था. वहीं आरजेडी को 11 फीसदी वोट मिला था. अगर बीजेपी और जेडीयू के वोट बैंक को जोड़ दिया जाए तो यह 51 फीसदी होता है. ओबीसी के आधे वोट बैंक पर बीजेपी ने नीतीश के साथ मिलकर कब्जा कर लिया और बाकी ओवीसी वोट बिहार से बाहर कमाई करने गया है. जातिगत जनगणना के जिस राग को बीजेपी से गाने की बात सभी राजनीतिक दल कर रहे हैं, उसमें जेडीयू की सबसे बड़ी चिंता भी यही है कि दलित को महादलित कैटेगरी बना करके नीतीश कुमार ने जाति कार्ड को खेला तो था, लेकिन जातियां नीतीश के साथ ही नहीं रही. खासतौर से ओबीसी वोट बैंक नीतीश से बिखर गया. इस बात का मलाल नीतीश कुमार को होगा, लेकिन जाति की गिनती वाली सियासत का रंग उसी की दूसरी कड़ी कही जा सकती है. भले ही वह बात करने के लिए ही क्यों न हो?

देश में अगर बीजेपी के ओबीसी वोट बैंक की पकड़ की बात की जाए तो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 2022 में चुनाव होना है. 2017 के चुनाव परिणामों की बात कर लें तो यूपी में बीजेपी को 61 फीसदी ओबीसी वोट मिला था, जबकि समाजवादी पार्टी को 14 और बहुजन समाज पार्टी को 15 प्रतिशत वोट मिला था. उत्तर प्रदेश में बीजेपी ओबीसी वोट को लेकर उत्साहित भी है और पंचायत के आए चुनाव परिणाम ने इसे साबित भी किया कि बीजेपी के लिए आगे का चुनाव भी सुखद है, क्योंकि विधानसभा में वोट बैंक तो बीजेपी के साथ खड़ा ही है. जिसे 2019 के लोकसभा चुनाव से मुहर लगा दी गयी थी.

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पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 68 फीसदी वोट ओबीसी का मिला है, जबकि तृणमूल कांग्रेस को सिर्फ 27 फीसदी वोट मिले हैं. यह अलग बात है कि बीजेपी अपनी उन नीतियों के तहत जो शायद धर्म आधारित राजनीति को ज्यादा हवा दे गई थी, पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने में फेल हो गई. अगर दूसरे राज्यों की बात करें तो तेलंगाना में हुए चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 23 प्रतिशत ओबीसी वोट मिले थे, जबकि टीआरएस को 42 फीसदी वोट मिला था. कर्नाटक में बीजेपी को 50 फीसदी और जेडीएस को 40 फीसदी वोट मिले थे, बात उड़ीसा की करें तो यहां बीजेपी को 40 प्रतिशत और बीजू जनता दल को भी 40 फीससदी वोट मिले थे.

अगर बीजेपी के चुनाव परिणामों को देखा जाए तो जिस तरीके से राज्यों में विधानसभा चुनाव में बीजेपी को ओबीसी वोट बैंक का साथ मिला है, वह उत्तर प्रदेश में नए आयाम को गढ़ रहा है. खास तौर से पश्चिम बंगाल के हालिया चुनाव में बीजेपी को 68 फीसदी ओबीसी के वोट मिले, जो बीजेपी के नए चुनावी समीकरण और राजनीतिक दिशा को तय करने में काफी अहम भूमिका अदा कर रहा है.

वहीं, अगर उत्तर प्रदेश के सियासी रंग की बात करें तो बिहार से नीतीश कुमार, जीतनराम मांझी, वीआईपी के मुकेश साहनी और दूसरे राजनीतिक दल चुनावी मैदान में जाने की तैयारी में हैं. इसके पीछे मूल में जातीय समीकरण की गोलबंदी ही है. बिहार में 2020 में हुए चुनाव में जेडीयू को 25 फीसदी ओबीसी वोट मिले थे और पूर्वांचल के बिहार से सटे जिलों में नीतीश की एक मजबूत पकड़ भी है. ऐस में यह माना जा रहा है कि जेडीयू के उत्तर प्रदेश चुनाव में जाने की मूल वजह ओबीसी और नीतीश कुमार का कुर्मी वोट बैंक है, क्योंकि बिहार में बीजेपी को 26 फीसदी और जेडीयू को 25 फीससदी वोट मिले थे. यह वो वोट बैंक है, जो बिहार और उत्तर प्रदेश दोनों जगह लगभग सामयिक राजनीति को उसी तरह से दिशा देता है.

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उत्तर प्रदेश के जातीय संरचना की बात करें तो पूर्वांचल और मध्य यूपी में 8 से 12 फीसदी कुर्मी हैं, जिससे कुल 32 विधानसभा की सीटें और 8 लोकसभा की सीटें तय होती हैं. नीतीश कुमार की जाति जनगणना के पीछे का मूलराज यह भी हो सकता है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में नीतीश की बीजेपी के भीतर स्वीकार्यता इसलिए भी बनी रहे कि जिस वोट बैंक को पूर्वांचल और मध्य यूपी में 12 से 8 फीसदी के कुर्मी वोट बैंक के बीच देखा जाता है, वह नीतीश के साथ होने पर बीजेपी के पक्ष का हो जाएगा. वर्तमान राजनीति की करें तो उत्तर प्रदेश में कुल 18 फीसदी सवर्ण है, जिसमें ब्राह्मण 10 फीसदी हैं और बाकी जो जातियां हैं, वह बीजेपी का परंपरागत वोट ही माना जाता है. इसके अलावे 12 फीसदी यादव, जाट 5 फीसदी, मल्लाह 5 फीसदी, अनुसूचित जाति 25 फीसदी और मुस्लिम 20 फीसदी है.

अगर ओबीसी के कुल वोट बैंक को सभी जातियों में जोड़ कर दिया जाए, तो यह 53 से 56 फीसदी के आसपास आता है. ऐसे में बिहार वाली सियासत और पश्चिम बंगाल में बीजेपी को मिले 68 फीसदी ओबीसी वोट नई राजनीतिक तैयारी के लिए उत्साहित तो जरूर कर रहे हैं, लेकिन जो लोग उत्तर प्रदेश में साथ जाना चाहते हैं उनके मनमाफिक अगर राजनीतिक समझौता नहीं हुआ तो उत्साह और सियासत के बीच का द्वंद भी एक बड़ा कारण बन सकता है. हालांकि एक बात तो साफ है कि जिस तरीके ओबीसी वोट बैंक बीजेपी और उसके समर्थक दलों के साथ हैं, वह बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश के चुनाव को जीतने वाली सियासत को एक मजबूत मजमून तो दे ही रहा है.

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