बेरीनाग का वेणीनाग मंदिर समेटे हुए रहस्य, नाग देवता की बरसती है कृपा

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Published : Aug 31, 2022, 9:27 PM IST

Berinag Veni Nag Temple

उत्तराखंड को देवताओं की भूमि यानी देवभूमि के रूप के रूप में विश्वभर में जाना जाता है. कहा जाता है कि उत्तराखंड के कण-कण में भगवान का वास है. यहां विराजमान आस्था के मंदिर इस पावन धरा को और पवित्र बनाते हैं. ऐसा ही एक रहस्यमयी मंदिर बेरीनाग में मौजूद है. जिसे वेणीनाग मंदिर के नाम से जाना जाता है. जो अपने आप में कई रहस्यों को समेटे हुए है.

बेरीनागः पिथौरागढ़ जिले का बेरीनाग खूबसूरत शहर है. जो अपनी प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध है. यहां एक रहस्यमयी मंदिर भी है, जिसे वेणीनाग के नाम से जाना जाता है. यह नाग देवता का मंदिर है. जिसकी आस्था और महिमा दूर दूर है. वेणीनाग देवता मंदिर में दो प्रमुख मेले लगते हैं, जो उत्तराखंड में लगने वाले प्रमुख मेलों में से एक हैं.

बेरीनाग नगर में लगने वाला पहला मेला भाद्र शुक्ल पंचमी अर्थात ऋषि पंचमी को लगता है. जिसे नाग पंचमी के नाम से जाना जाता है. पहले यह मेला वेणीनाग मंदिर प्रांगण में लगता था, लेकिन बाद में यह बेरीनाग बाजार में लगने लगा है. इस दिन लोग सर्वप्रथम वेणीनाग मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं फिर नीचे बाजार की ओर आते हैं. इसी दिन वेणीनाग जी को पहला भोग लगाया जाता है.

इस मेले का सबसे बड़ा आकर्षण विशाल मैदान में लगने वाली चांचरी है. जिसमें सभी वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के हिस्सा लेते हैं. स्त्री-पुरुष, बच्चे सभी मिलकर चांचरी का आनंद उठाते हैं. मेला जब अपनी चरम सीमा में होता है, तभी सांगड़ नामक गांव के दास ढोल-नगाड़ों के साथ बेरीनाग स्थित वेणीनाग मंदिर (Mystery of Berinag Veni Nag Temple) की ओर चल पड़ते हैं. जिसमें हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ साथ में चलती है.

यहां आप पास के नौगांव इग्यारपाली, राईआगर, बडेत बाफिला आदि क्षेत्रों से बड़ी संख्या ग्रामीण ढोल नगाड़ों और गाजे बाजे के साथ वेणीनाग मंदिर (Nag Devta Mandir Berinag) पहुंचते है. जिनका स्वागत पुजारी करते हैं. जहां पर सभी गांवों के लोग मंदिर में झोड़ा चांचरी और अपने गांव की संस्कृति को दिखाते हैं. भट्टीगांव के परंपरागत पुजारी पंत जाति के लोगों की ओर से वेणीनाग जी की आरती की जाती है. जिससे पूरा क्षेत्र भक्तिमय हो जाता है. तीन परिक्रमा करने के बाद भोग का आयोजन होता है. खीर का भोग वेणीनाग को लगाकर सभी भक्तगण प्रसाद ग्रहण करते हैं.

वेणीनाग देवता नगाड़े में बैठकर देते हैं आशीर्वादः प्रसाद लेने के बाद ढोल-नगाड़ों के साथ लोग मुख्य बाजार में पहुंचते हैं. मुख्य बाजार में बड़ी गर्म जोशी से इनका स्वागत किया जाता है. इनका दुकानों में आना शुभ माना जाता है. माना जाता है कि स्वयं वेणीनाग देवता नगाड़े में बैठकर लोगों को आशीर्वाद देने आते हैं. बाजार में पहुंचते ही माहौल भक्तिमय हो जाता है. ढोली के समापन की घोषणा करने पर मेला समाप्त हो जाता है. मेले का एक मुख्य आकर्षण आस पास की महिलाओं की ओर से पूर्ण श्रृंगार यानी नथ पहनकर आना है, जिसे काफी शुभ माना जाता है.

ससुराल से बेटी और मायके से मां दोनों का होता था मिलनः मेले में बोरा जाति की महिलाओं के साथ एक परंपरा ये जुड़ी है कि ससुराल से लड़की और मायके से मां दोनों मेले में आती हैं. मेले में ही दोनों की भेंट होती है. ये लोग केले के पत्ते में खीर और पूरी लेकर आते हैं. जिसे आपस में मिल बैठकर खाते हैं. आधुनिकता के दौर में यह परंपरा भी दम तोड़ रही है. संचार एवं सड़क माध्यमों का विकास हो गया है. महिलाएं अधिक स्वतंत्र और शिक्षित हो गईं हैं. जिसके कारण यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है.

सुरयाव की परंपरा हुई समाप्तः बेरीनाग में दूसरा मेला रात का मेला होता है, जो भाद्र शुक्ल पक्ष की अनंत चतुर्दशी को लगता है. इस दिन रामगंगा के उस पार के लोग जिन्हें स्थानीय भाषा में 'सुरयाव' बोला जाता है. झुंड में चैती, चांचरी गाते हुए मंदिर पहुंचते थे, जिसमें स्त्री-पुरुष, बच्चे सभी शामिल होते थे. ये लोग, अठ खेत, बलतीर, चौबाटी, डीडीहाट, सत्याल गांव, कुमालगांव आदि गांवों के होते थे. पांच परिक्रमा कर पूजा पाठ करने के बाद खरीददारी करते हुए वापस अपने घर की ओर चल पड़ते थे, लेकिन वर्तमान में यह परंपरा समाप्त हो गई है. अब लोग बसों व छोटी गाड़ियों से मंदिर में पूजा अर्चना के लिए आते हैं.

बेरीनाग नगर का पूर्व इतिहासः अंग्रेजों के कुमाऊं पर अधिकार करने के पहले और उसके बाद बेरीनाग का महत्व टी स्टेट के रूप में हुआ था. जिस कारण ब्रिटिश पर्यटक और सैलानी बेरीनाग टी स्टेट पर्यटन के लिए आते थे. साल 1856 में एक प्राइवेट कंपनी के अंतर्गत 'ईस्ट इंडिया कंपनी' ने इसका नीलाम किया. एक अंग्रेज जिसका नाम हिल स्टकेशन था, उसने एक प्रस्ताव ब्रिटिश सरकार के पास भेजा. जिसमें 200 एकड़ भूमि चाय के लिए स्वीकृत हुई. बाद में आरएस ब्लेयर एवं जिम कार्बेट ने इस चाय के बागान को खरीदा और चाय का उत्पादन किया. चाय उत्पादन एवं हरे भरे बागानों को देखकर ब्रिटिश काल में भी पर्यटक इस ओर आकर्षित होते थे. यहां साल मौसम अच्छा होता है. चीड़, बुरांश, बांज और देवदार के जंगल इसकी सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं. बेरीनाग जितना मनोरम स्थल है, उतना ही प्राकृतिक सौंदर्यता बेरीनाग से पर्यटकों को दिखाई देता है.

बेरीनाग से सालभर श्वेत बर्फ से आच्छादित हिमालय की चोटियां दिखाई देती हैं. जैसा सौंदर्य हिमालय का बेरीनाग से दिखाई देता है, वैसा अन्यत्र कहीं से नहीं नजर आता है. बेरीनाग से पंचाचूली, नंदाखाट, त्रिशूल आदि का मनोरम दृश्य दिखाई देता है. बेरीनाग नाम से ही विदित होता है कि यह स्थल प्राचीन समय से ही नाग संस्कृति, नाग मेला और नाग मंदिर के लिए प्रसिद्ध है. पर्यटन के क्षेत्र में जितना प्राकृतिक सौंदर्य बेरीनाग में है, उतना ही मनोहर स्थल प्राचीन देवालय नाग मंदिर का भी है. श्रेणीनाग मंदिर बेरीनाग मुख्य बाजार से 1.5 किमी की दूरी पर स्थित है. जो शक्ति, लोक मान्यता, धार्मिक आस्था और नाग संस्कृति की परिचायक है. 150 साल पहले चर्तुभुज पर्यटन की दृष्टि से इस मंदिर की मुख्य विशेषता यहां मनाये जाने प्रमुख तीन पर्व हैं.

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जो क्रमशः शेषनाग को समर्पित नागपंचमी का पर्व, लक्ष्मी और सप्त ऋषियों की पूजा अर्चना हेतु (ऋषि पंचमी) जो शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है. तीसरा अनंत चतुर्दशी. भाद्र शुक्लपक्ष को भगवान विष्णु को समर्पित है. इन तीनों पर्वों को लोग हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं के साथ वेणीनाग मंदिर में दो मेलों का आयोजन भी किया जाता है, जो प्राचीन समय से ही भाद्र शुक्ल पंचमी के दिन अर्थात नाग पंचमी को शेषनाग की पूजा से शुरू होकर लोक संस्कृति जागर, नौमती, शंखनाद ढोल-नगाड़ों व चाचरी नृत्य के जरिए पर्यटक और स्थानीय जन समूह को सम्मोहित किए रहता है. इस मेले में स्थानीय काष्ठ कला के हस्त निर्मित वस्तुएं जैसे टोकरी, सूपा, मोसटा, रिंगाल से निर्मित चटाई, बांसुरी बाजार की रौनक बढ़ाते हैं.

रात्रि मेला का महत्वः बेरीनाग में नाग संस्कृति के अंतर्गत दूसरा मेला रात का होता है, जो भाद्र शुक्ल की अनंत चतुर्दशी को लगता है. यह मेला राम गंगा के उस पार के जन समूह जिन्हें 'सूराव' कहा जाता है, उनकी ओर से लोक गीत, चैती व लोक नृत्य चांचरी, मंदिर में नाग संस्कृति के नाग नृत्य को प्रदर्शित कर मेले का आकर्षण बढ़ाते हैं. नाग संस्कृति की धरोहर इस नाग मंदिर को देखने आने वाले पर्यटकों के लिए विश्राम व भोजन की व्यवस्था भी की जाती है.

वेणीनाग नाम का महत्वः वेणीनाग नाम क्यों दिया गया और इस स्थान का नाम वेणीनाग क्यों पड़ा? इस संबंध में अनेक किवदंतियां प्रचलित हैं. कई शताब्दी पहले यहां पर नाग वंशी लोग रहते थे. उनके राजा 'वेणीमाधव' ने पुत्र प्राप्ति की कामना से मंदिर की स्थापना की. जिसका नाम उन्होंने अपनी जाति व नाम के आधार पर 'वेणीनाग' रखा, जो कालांतर में बेरीनाग हो गया. कुछ लोगों का यह भी मत है कि लगभग 14वीं शताब्दी में महाराष्ट्र से पंत जाति के लोग यहां आए और रहने के लिए भवनों का निर्माण करने लगे. तब उन्हें स्थान-स्थान पर काले, पीले, हरे, सफेद रंग के सर्प दिखाई देने लगे. जो वेणी के आकार के थे. ये आपस में लिपटे हुए थे.

अतः उन्होंने वेणी के आकार के नागों 'सर्पों' से शांति प्राप्त करने के लिए (वेणीनाग) मंदिर की स्थापना की. वेणी के आकार का होने दिया. सत्य जो भी हो, जेठ के महीने में बिना बादल का बज्रपात हुआ था और उसका पूरा परिवार समाप्त हो गया. प्राचीन मंदिर का नौला अब भी इस क्षेत्र में स्थित है. कहा जाता है कि कुछ समय बाद शक्ति पुन: 300 मीटर की दूरी पर प्रकट हुई. जो कि वेणीनाग (बेरीनाग) का वर्तमान मंदिर है. बदरीनाथ से आए सिद्धपुरुष को स्वप्न हुआ कि वे मंदिर का निर्माण करें. उनका नाम 'बाबा मस्तराम' था. उनकी देखरेख में लगभग 150 साल पहले मंदिर का निर्माण किया गया.

वेणीनाग मंदिर की प्राचीन मान्यताएंः भट्टीगांव के पूर्व प्रधान हेम पंत ने बताया कि एक ग्रामीण जो भट्टीगांव का निवासी था, उसने लगभग 70 साल पहले शक्ति को खोदा और यह पता लगाने की कोशिश की कि शक्ति कितनी गहरी है? उसने लगभग 5 फीट तक शक्ति को खोदा, लेकिन शक्ति उसी रूप में दिखाई दी. इस प्रकार वो खोदते-खोदते थक गया और उस स्थान को वैसा ही छोड़कर चला गया. सुबह जब उसकी पत्नी उठी तो वो गाय को दुहने गौशाला में गई. जहां दरवाजा खोलते ही उसने पूरे गौशाला में सर्पों को लटका पाया.

डर के मारे जब वो भीतर आई तो भीतर सभी कमरों में सर्पों को लटका पाया, वो घबरा गई और इसकी सूचना उसने तुरंत पुजारी को दी. पुजारी ने वेणीनाग का आह्वान किया और गलती के लिए क्षमा-याचना की गई. इसके बाद सर्प अदृश्य हो गए. इसके बाद जब सब लोग मंदिर में आए तो शक्ति को खुदा हुआ पाया, तब दोबारे शक्ति को उसी प्रकार ढक कर पुनः अभिषेक किया गया.

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