मसूरी गोलीकांड के 27 साल पूरे, नहीं भूल पाए दो सितंबर को मिला वह जख्म

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Published : Sep 2, 2021, 5:01 AM IST

Updated : Sep 2, 2021, 11:53 AM IST

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मसूरी गोलीकांड के 27 साल पूरे. ()

आज मसूरी गोलीकांड को 27 साल पूरे हो चुके हैं. राज्य बनने के 21 साल बाद भी राज्य आंदोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड नहीं बन पाया है. राज्य आंदोलनकारी, युवा, महिलाएं आज भी अपने आप को ठगा महसूस करते हैं.

मसूरी: राज्य आंदोलन के इतिहास के पन्नों में दो सितंबर 1994 का दिन बहुत ही खास है. ये वो दिन है जिसे याद कर आज भी लोगों के शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है. 1994 में उत्तराखंड राज्य के लिए पूरे प्रदेश में आंदोलन चल रहा था. खटीमा गोलीकांड के अगले ही दिन 2 सितम्बर, 1994 को मसूरी गोलीकांड हुआ था. खटीमा की घटना के विरोध में मसूरी में मौन जुलूस निकाल रहे राज्य आंदोलनकारियों पर पुलिस और पीएसी ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसाकर 7 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. ऐसे में फायरिंग के कारण शांत रहने वाले मसूरी की आबोहवा में बारूद की गंध फैल गई थी.

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में मसूरी की भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता है. राज्य आंदोलन में दो सितंबर 1994 का दिन भले ही इतिहास का काला दिन बन गया हो लेकिन राज्य निर्माण की बुनियाद यहीं से शुरू हुई थी.दो सिंतबर का दिन राज्य आंदोलन की ऐसी घटना थी जिसने तत्कालीन उत्तर प्रदेश को ही नहीं पूरे भारत व विश्व को झकझोर कर रख दिया था.

मसूरी गोलीकांड के 27 साल पूरे.

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वरिष्ठ पत्रकार एवं राज्य आंदोलनकारी बिजेंद्र पुंडीर बताते हैं कि उस वक्त राज्य आंदोलन चरम पर था. खटीमा में पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दी. जिसमें कई लोग शहीद हो गये. जैसे ही यह खबर मसूरी पहुंची तो यहां भी आंदोलन शुरू हो गया. वर्तमान शहीद स्थल पर क्रमिक अनशन करने वालों को पुलिस ने रात में ही उठा लिया.

उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के कार्यालय पर पुलिस एवं पीएसी ने कब्जा कर लिया. सुबह हुई तो खटीमा कांड के विरोध में मसूरी में मौन जुलूस निकालने की तैयारी चल ही रही थी. पता चला कि झूलाघर पर पुलिस ने कब्जा कर लिया है. पूरे क्षेत्र को घेर लिया गया था. जिससे लोग आक्रोशित हो गये.

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कुछ लोगों ने मौन जुलूस से पहले ही झूलाघर पर प्रदर्शन करने का प्रयास किया. उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया. क्रमिक अनशन पर बैठे लोगों को भी गिरफ्तार कर लिया गया. इसकी सूचना मिलते ही आंदोलनकारी बिफर गये. उसके बाद भी लोगों ने संयम से काम लिया. जिन आंदोलनकारियों को पकड़ा गया उन्हें किंक्रेग पर छुड़ाने का प्रयास किया गया.

तब लंढौर की ओर से एक जुलूस निकला गया. जुलूस किंक्रेग से लाइब्रेरी होते हुए झूलाघर की ओर बढ़ा. लंढौर की ओर से निकले जुलूस ने झूलाघर को पार किया तब पुलिस ने हथियार डाउन कर जुलूस को जाने दिया.

हॉवर्ड होटल के समीप दोनों जुलूस मिल गये. जिसके बाद वे वापस झूलाघर की ओर आ गये. झूलाघर पहुंचकर पुलिस एवं पीएसी के द्वारा उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के कार्यालय पर किए गये कब्जे को हटाने का प्रयास किया. तभी पुलिस ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चला दी.

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वरिष्ठ पत्रकार पुंडीर बताते हैं कि दूसरी ओर गनहिल की पहाड़ी से भी पथराव शुरू हो गया था. इससे भगदड़ मच गयी. छह आंदोलनकारी शहीद हो गये. जिसमें हंसा धनाई, बेलमती चैहान, बलबीर नेगी, मदन मोहन ममगाई, धनपत सिंह एवं राय सिंह बंगारी शामिल थे.

इसी बीच पुलिस व जनता के टकराव को रोकने उतरे पुलिस के उपाध्यक्ष उमाकांत त्रिपाठी को पुलिस की गोली लगी. वह भी मौके पर गिर गये. उन्हें राजकीय सेंटमेरी अस्पताल उपचार के लिए ले जाया गया. जहां उमाकांत त्रिपाठी ने दम तोड़ दिया.

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उन्होंने बताया पुलिस ने अपनी गरिमा को ताक पर रखकर सिर पर गोलियां बरसायी, जो उनकी क्रूरता का प्रमाण था. इसके बाद पुलिस ने कर्फ्यू लगा दिया. पुलिस की दरिंदगी यहीं नहीं थमी. आंदोलनकारियों को पुलिस के उत्पीड़न भी झेलना पड़ा.

कई आंदोलनकारियों की बेहरमी से पिटाई की गई. घरों में रात को जाकर आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया. 47 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. इसी बीच पुलिस ने तत्कालीन विधायक राजेंद्र शाह सहित दो अन्य नेताओं पर काला कानून मीसा लगा दिया. उनके साथ जो मारपीट एवं अभद्रता की गई.

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राज्य आंदोलनकारी व वरिष्ठ पत्रकार पुंडीर बताते हैं कि ऐसा जुर्म तो गुलाम भारत में आजादी के आंदोलनकारियों के साथ भी नहीं हुआ होगा. वे कहते हैं उत्तराखंड की जनता के साथ मातृशक्ति, युवा शक्ति, व्यापारी, कर्मचारी आदि सभी ने मिल कर राज्य आंदोलन को गति दी. उस समय प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी.

केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी. इसके बाद आंदोलन और तेज हुआ. मसूरी में एक और पुलिस दरिंदगी के बाद फिर दो अक्टूबर को दिल्ली कूच के दौरान रामपुर तिराहा एवं मुजफ्फरनगर कांड हुआ. जिसमें क्या कुछ हुआ किसी से छिपा नहीं है.

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वरिष्ठ पत्रकार बिजेंद्र पुंडीर ने बताया कि पहाड़ों की रानी मसूरी ने राज्य आंदोलन को दिशा दी. यहां से आंदोलन के दौरान घोषणा होती थी उसे पूरे प्रदेश में माना जाता था. छह साल बाद वर्ष 2000 को तत्कालीन भाजपा की सरकार व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उत्तराखंड राज्य बनाने की घोषणा की.

राज्य बना तो लोगों को लगा कि अब नई सुबह हो गई है. इसका लाभ यहां के युवाओं को मिलेगा, महिलाओं को मिलेगा, पलायन रुकेगा और विकास होगा, लेकिन राज्य बनने के 21 साल बाद भी राज्य की स्थित जस की तस बनी है. पहाड़ आज भी विकास को तरस रहे हैं. जिस सपने को लेकर राज्य निर्माण किया गया था वह सपने आज भी अधूरे हैं.

Last Updated :Sep 2, 2021, 11:53 AM IST
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