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देश की आजादी में इस खजांची का योगदान अमूल्य, ऐसे लगाया मौत को गले

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Published : Nov 20, 2021, 5:35 AM IST

भारत माता की परतंत्रता की बेड़ियों को काटने में कई सपूत देश के काम आए थे. देश के ऐसे वीर सपूतों का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है. कुछ अमर शहीद ऐसे भी हुए, जिनके बारे में इतिहास में बहुत ज्यादा नहीं लिखा गया. भारत माता के एक ऐसे ही सपूत हुए हैं अमरचंद्र बांठिया, जिन्होंने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को गले लगा लिया था.

खजांची
खजांची

ग्वालियर : भारत को आजादी दिलाने में कई लोगों ने अपनी कुर्बानी दी थी. इन महानायकों के बलिदान के कारण हिन्दुस्तान स्वतंत्र हो पाया था. आजादी की लड़ाई में महानायकों की अपनी विशेष भूमिका थी. मध्य प्रदेश के ऐसे ही एक महानायक अमर शहीद अमरचंद बांठिया थे, जिन्होंने अपना जीवन मातृभूमि के नाम समर्पित कर दिया था. भारत माता के कई वीरों का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है, लेकिन अमरचंद बांठिया भारत माता के ऐसे सपूत थे, जिनके बारे में इतिहास में बहुत ज्यादा नहीं लिखा गया.

सिंधिया राजवंश के खजांची अमरचंद बांठिया का जन्म वहीं हुआ था, जहां महाराणा प्रताप के लिए अपनी धन-दौलत दान करने वाले भामाशाह जन्मे थे. वीर प्रसूता राजस्थान की धरती में शहीद अमरचंद्र बांठिया का जन्म 1793 में बीकानेर में हुआ था. बचपन से ही उन्होंने मन में ठान रखा था कि देश की आन-बान और शान के लिए कुछ कर गुजरना है. शहीद अमरचंद के पिता का पुश्तैनी कारोबार था. लेकिन घाटे के कारण उनके पिता को परिवार सहित ग्वालियर जाना पड़ा. ग्वालियर के तत्कालीन महाराजा ने बांठिया खानदान को शरण दी. उन्हीं की सलाह पर बांठिया परिवार ने ग्वालियर में फिर से कारोबार जमाना शुरू किया.

देश की आजादी में अमरचंद बांठिया का योगदान

बांठिया परिवार की मेहनत और ईमानदारी के चर्चे होने लगे. आर्थिक प्रबंधन में महारथ के चलते जयाजीराव सिंधिया ने अमरचंद बांठिया को रियासत का खजांची बना दिया था. किसी भी व्यापारी के लिए राजकोष का कोषाध्यक्ष बनाया जाना बड़ी बात थी. उस समय ग्वालियर के गंगाजली खजाने की जानकारी कुछ खास लोगों तक ही सीमित रहती थी. अब उसी खजाने की जिम्मेदारी अमरचंद बांठिया पर थी. बांठिया परिवार ग्वालियर में अपना नाम कमा रहा था. अमरचंद्र बांठिया की सादगी, सरलता और काम के प्रति जिम्मेदारी के सभी कायल थे. ये वो वक्त था, जब देश में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का माहौल जोर पकड़ने लगा था. छोटी-छोटी जगहों पर जनता और कुछ जागीरदार अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद करने लगे थे.

सन 1857 में आजादी की जंग तेज हो रही थी. अमरचंद भी आजादी के परवानों के किस्से इधर-उधर से सुना करते थे. कई बार उनके साथी उन्हें आजादी की लड़ाई में हथियार लेकर हिस्सा लेने के लिए उकसाते थे. तब वह कहते कि भाई हथियार तो मैं चला नहीं सकता, लेकिन वक्त आने पर कुछ ऐसा कर जाऊंगा कि क्रांति के पुजारी याद करेंगे.

देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा अमरचंद में बाल्यकाल से ही था. अपने कार्यों से उन्होंने साबित कर दिया था कि वे देश की आन-बान और शान के लिए कुछ भी कर गुजरेंगे. एक वक्त आया, जब अंग्रजों से लोहा लेने वालों में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई सबसे आगे थीं. फिरंगियों को हिंदुस्तान से खदेड़ने के लिए रानी अपने सिर पर कफन बांध चुकी थीं. झांसी के आसपास जहां भी अंग्रेजों के टुकड़ों पर पलने वाली रियासतें थीं , उन पर रानी हमला कर रही थीं. ग्वालियर पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने कब्जा कर लिया. लेकिन संघर्ष खत्म नहीं हुआ था.

लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे अपनी बची खुची सेना के साथ अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे. जंग में रानी का खजाना खाली हो गया था. उस वक्त आर्थिक संकट की घड़ी पैदा होने के कारण कोई तत्कालीन हल नजर नहीं आ रहा था. ऐसे समय में ग्वालियर के गंगाजली खजाने के खजांची अमरचंद्र ने भामाशाह बनकर क्रांतिकारियों के लिए पूरा राजकोष खोल दिया. 8 जून 1858 को उन्होंने पूरा खजाना रानी लक्ष्मीबाई को सौंप दिया. उनकी मदद के बल पर वीरांगना लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने में सफल रहीं, लेकिन सरकारी खजाना रानी के हाथ लगने से अंग्रेज बौखला गए. अंग्रेज सरकार ने अमरचंद के कृत्य को राजद्रोह माना और वीरांगना के शहीद होने के चार दिन बाद 22 जून को अमरचंद को राजद्रोह के अपराध में सरे राह सर्राफा बाजार में नीम के पेड़ पर फांसी से लटका दिया गया.

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अंग्रेजों ने तीन दिनों तक शहीद का शव नीम के पेड़ पर ही लटकाए रखा. अंग्रेज चाहते थे कि इससे जनता में दहशत का माहौल बने. फिर कोई क्रांतिकारियों की मदद करने की जुर्रत ना कर सके. अमरचंद्र बांठिया के शहीद होने के बाद उनका परिवार ग्वालियर से उत्तर प्रदेश चला गया. आज भी ग्वालियर के सर्राफा बाजार में उसी नीम के पेड़ के नीचे अमरचंद बांठिया की प्रतिमा है. जो हर आने-जाने वाले को याद दिलाती है कि आजादी हमें खैरात में नहीं मिली है. इसकी नींव में अमरचंद्र बांठिया जैसे देशभक्तों का लहू पड़ा है.

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