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क्या विधानसभा चुनाव में जीत के लिए सीएम का चेहरा है जरूरी ?

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Published : Feb 16, 2022, 4:12 PM IST

Updated : Feb 16, 2022, 5:28 PM IST

वैसे तो संवैधानिक प्रक्रिया के तहत विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद बहुमत हासिल करने वाली पार्टी के विधायक सीएम का चुनाव करते हैं. फिर राज्यपाल चुने गए सीएम को शपथ दिलाते हैं. मगर चुनावी राजनीति में पॉलिटिकल पार्टियां अब मतदान से पहले सीएम का चेहरा घोषित कर रही हैं. पार्टी के ब्रांड इमेज के साथ ऐसे कैंडिडेट की ब्रांडिंग हो रही है, जो चुनाव में ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल कर सकते हैं. पहले बीजेपी ऐसी पार्टी थी, जो सीएम का चेहरा पहले घोषित करती थी. आज पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में आम आदमी पार्टी ने भी अपने सीएम कैंडिडेट घोषित कर दिए हैं. ऐसा नहीं करने वाली कांग्रेस को भी पंजाब में चन्नी को सीएम का चेहरा बनाना पड़ा. आखिर सीएम कैंडिडेट घोषित होने से चुनाव में क्या फर्क पड़ता है, पढ़ें रिपोर्ट

CM face in assembly elections
CM face in assembly elections

नई दिल्ली : अभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. इन राज्यों में कांग्रेस को छोड़कर सभी दलों ने तय कर दिया है कि जीत के बाद सीएम कौन बनेगा. उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश में मणिपुर और गोवा में नेतृत्व का फैसला कांग्रेस चुनाव के बाद करेगी. हालांकि पार्टी के भीतर दबाव बढ़ने के बाद पंजाब में उसे सीएम कैंडिडेट का ऐलान करना पड़ा. उत्तराखंड में हरीश रावत ने सीएम फेस घोषित करने की इच्छा जताई थी, जिस पर पार्टी ने चुप्पी साध ली. सवाल यह है कि क्या चुनाव से पहले सीएम कैंडिडेट घोषित करने का फायदा राजनीतिक दलों को मिलता है.

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90 के दशक में जब मुलायम सिंह यादवों के नेता के तौर पर प्रचारित किए गए और कांशीराम ने मायावती को सीएम प्रोजेक्ट किया तो बीजेपी ने रामजन्मभूमि आंदोलन के दिग्गज नेता कल्याण सिंह को सीएम का चेहरा बनाया.

90 के दौर में शुरू हुआ सीएम कैंडिडेट बनाने का दौर

उत्तर भारत में पार्टियों की ओर से सीएम के चेहरे का ऐलान का दौर मंडल और कमंडल के दौर में शुरू हुआ. कांग्रेस में टूट और जनता दल में बिखराव के बाद हिंदी पट्टी में क्षेत्रीय पार्टियां जातीय आधार पर मजबूत हुईं. इन पार्टियों के नेता स्वाभाविक तौर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार हो गए. बिहार में लालू प्रसाद यादव, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, हरियाणा में देवीलाल परिवार सीएम के चुनाव पूर्व घोषित चेहरे बन गए. जातीय नेता के तौर पर इन राजनेताओं की सफलता के बाद भारतीय जनता पार्टी ने जैसे राष्ट्रीय दल ने भी राज्यों में सीएम घोषित करने शुरू किए. उसने इसकी शुरूआत उत्तरप्रदेश से की, जहां कल्याण सिंह के नेतृत्व में पार्टी 1989 से 1997 के बीच चुनाव मैदान में उतरी और टुकड़ों-टुकड़ों में दो बार सत्ता हासिल की.

भाजपा ने यह प्रयोग हिमाचल प्रदेश, राजस्थान में भी आजमाया, जिसमें उसे मिश्रित सफलता मिली. हिमाचल में कांग्रेस के वीरभद्र सिंह और राजस्थान में अशोक गहलोत भी पार्टी की ओर से अघोषित नेता रहे और ये सभी एक विधानसभा चुनाव हारने के बाद दूसरा चुनाव जीतते रहे. दिलचस्प यह है कि सीएम रहने के दौरान इन राज्यों में कोई भी नेता अपनी पार्टी को लगातार सत्ता में नहीं ला सका.

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मध्यप्रदेश में बीजेपी उमा भारती के नेतृत्व में सत्ता में आई और शिवराज के चेहरे पर अगले दो चुनाव जीती.

गुजरात और मध्यप्रदेश इसमें अपवाद रहे. जहां मध्यप्रदेश में बीजेपी उमा भारती के चेहरे पर सत्ता में आई. फिर शिवराज सिंह के सहारे तीन कार्यकाल को हासिल कर सकी. गुजरात में नरेंद्र मोदी बीजेपी को तीन कार्यकाल के लिए सत्ता में वापसी कराई.

कांग्रेस अधिकतर राज्यों में सीएम चेहरे के बिना विधानसभा चुनाव में उतरती रही है. इस कारण उसकी सफलता का दर बीजेपी के मुकाबले काफी कम रही. वह पिछले 10 साल में 90 फीसदी चुनाव हार चुकी है. इस रणनीति से उसे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सफलता मिली है.

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70 के दशक में दक्षिण भारत की राजनीति में क्षेत्रीय दल हावी हो गए. इसके बाद से ही हार-जीत के हिसाब से पार्टी के मुखिया सीएम बनते रहे. इसके लिए कभी पार्टियों में दूसरा दावेदार सामने नहीं आया.

करिश्माई नेता का ही चलता है जलवा

एक्सपर्ट मानते हैं कि सभी चुनावों में सीएम फेस घोषित करना फायदेमंद नहीं रहता है. अगर पार्टी के पास करिश्माई नेता नहीं है तो उसका नुकसान भी पार्टी को उठाना पड़ता है. इसके अलावा सत्ता में रहने के बाद दोबारा चुनाव जीतना किसी भी मुख्यमंत्री या सीएम चेहरे के लिए आसान नहीं है. 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी खुद मुख्यमंत्री के चेहरे के बिना विधानसभा चुनाव में उतरी थी. तब उसे सात राज्यों में से 4 राज्यों उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला था, जबकि गोवा और मणिपुर में उसने चुनाव के बाद सरकार बनाई.

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नरेंद्र मोदी सीएम बनने के बाद लगातार पार्टी को चुनावों में अपने दम पर जीत दिलाते रहे.

दिलचस्प यह रहा कि पंजाब में उसके गठबंधन के सीएम प्रत्याशी तय था, मगर वहां कांग्रेस सत्ता में आई. उस समय पंजाब में कांग्रेस ने कैप्टन अमरिंदर को सीएम कैंडिडेट घोषित किया था. इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी ने नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों में भी चुनाव से पहले संभावित मुख्यमंत्री का ऐलान नहीं किया.

एक्सपर्ट का मानना है कि 2013 से 2022 तक भले ही बीजेपी ने कई राज्यों में सीएम कैंडिडेट घोषित किया था, मगर वह सभी चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ रही है. नरेंद्र मोदी ही पार्टी के स्टार प्रचारक हैं और विपक्ष भी प्रदेश की नेताओं के बजाय पीएम मोदी को निशाना बनाता है.

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दिल्ली में केजरीवाल के जादू के सामने सीएम के सारे चेहरे फीके पड़ गए.

केजरीवाल के सामने दिल्ली में भी फेल हुए सभी दल

2013 का दिल्ली चुनाव भी सीएम फेस के साथ चुनाव लड़ने का अनोखा उदाहरण है. जहां आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल 2013 में मुख्यमंत्री के उम्मीदवार बने. तब आप को इसका फायदा मिला, मगर बीजेपी और कांग्रेस की लुटिया डूब गई. यहां तक कि कांग्रेस की सीटिंग सीएम शीला दीक्षित चुनाव हार गईं. बीजेपी को डॉ. हर्षवर्धन को सीएम कैंडिडेट बनाने का फायदा नहीं मिला. 2015 के चुनाव में बीजेपी की सीएम कैंडिडेट किरण बेदी भी खुद विधानसभा चुनाव हार गईं. 2018 में केजरीवाल के चेहरे के सामने सभी दलों के नेता फीके साबित हुए.

मुख्यमंत्री रहने के बाद दोबारा सत्ता में नहीं आना तो एंटी कंबेंसी का नतीजा है मगर कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं, जब खुद सीएम को चुनाव में हार मिली है.

  • 1990 में हरियाणा के मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला मेहम विधानसभा में कांग्रेस के आनंद सिंह डांगी से चुनाव हार गए थे.
  • 2009 में झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबू सोरेन तमार सीट पर हुए उपचुनाव में झारखंड पार्टी के नए नवेले नेता गोपाल कृष्णन से जीत नहीं पाए थे
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    उत्तराखंड के दिग्गज नेता बी सी खंडूरी और हरीश रावत सीएम पर रहने के बावजूद चुनाव हार गए थे.
  • 2012 में बीजेपी का नारा 'खंडूरी है जरूरी' ही फेल हो गया. मुख्यमंत्री भुवन चंद खंडूरी कोटद्वार विधानसभा सीट से चुनाव हार गए.
  • 2014 झारखंड के सीटिंग सीएम हेमंत सोरेन दुमका सीट से 5000 मतों से हारे थे. उन्हें बीजेपी की लुइस मरांडी ने हराया था.
  • 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में सीएम शीला दीक्षित को सीएम कैंडिडेट अरविंद केजरीवाल ने 26 हजार से ज्यादा वोटों से हरा दिया था.
  • 2014 के मोदी लहर में झारखंड में चुनाव जीतने के बाद बीजेपी ने रघुबर दास को सीएम बनाया था. 2019 में रघुबर दास जमशेदपुर सीट पर सरयू राय से हार गए.
  • कर्नाटक के सीएम रहे सिद्धारमैया 2018 के विधानसभा चुनाव में चामुंडेश्वरी और बादामी सीट से चुनाव मैदान में उतरे थे. तब उन्हें चामुंडेश्वरी में हार मिली, बादामी सीट पर वह कम वोटों से जीते थे.
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    सीएम रहने के दौरान शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन को हार का मुंह देखना पड़ा था.
  • उत्तराखंड के सीएम हरीश रावत 2017 के विधानसभा चुनाव में दो सीटों हरिद्वार रूरल और किच्चा से लड़े और दोनों पर हार गए.
  • नवंबर 2014 से मार्च 2017 तक गोवा के मुख्यमंत्री रहे लक्ष्मीकांत पारसेकर अपनी मेरिंदम सीट 2017 के विधानसभा चुनाव में नहीं बचा पाए.
  • 1993 में राज्य में हुए चुनाव में बीजेपी के मुख्यमंत्री शांता कुमार अपनी सीट नहीं बचा पाए थे.
  • मिजोरम के मुख्यमंत्री ललथनहवला 2018 में दो सीटों सेरछिप और चंफई (दक्षिण) से चुनाव लड़े और दोनों ही सीटों पर हारे.

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Last Updated : Feb 16, 2022, 5:28 PM IST
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