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Ajmer Sharif Dargah: यूं ही नहीं कहते 'देगों में देग अजमेर की देग', ऐतिहासिक हैं ये तबर्रुक वाले पात्र

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Published : Jan 28, 2023, 4:55 PM IST

दरगाह शरीफ के 811वें उर्स पर दुनिया जहान से अकीतमंद सजदा करने पहुंच रहे हैं. यहीं पर आस्था और आहार का अद्भुत मेल भी देखने को मिलता है. जानते हैं, इसका भी मुगलिया दौर से कनेक्शन हैं!

Ajmer Sharif Dargah
देगों में देग अजमेर की देग

ऐतिहासिक देग देते हैं अकीदतमंदों को रूहानी सुकून

अजमेर. अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में दुनिया के सबसे बड़े बर्तनो में से एक मौजूद है. इसे बड़ी देग कहा जाता है. यह बड़ी देग मुगल बादशाह अकबर ने मन्नत पूरी होने पर दरगाह को भेंट की थी. इस बड़ी देग में 120 मन यानी 4800 किलो चावल एक साथ पकाए जाते हैं. ऐसी ही एक देग और भी है जो छोटी देग के नाम से जानी जाती हैं. इसमें एक बार में 60 मन चावल पकाए जाते हैं. छोटी देग को जहांगीर ने बनवाया था.

दरगाह में बुलंद दरवाजे के समीप एक ओर बड़ी और दूसरी ओर छोटी देग है. बड़ी देग को दुनिया का सबसे बड़ा बर्तन बताया जाता है. ये देग मुगल बादशाह अकबर ने बनवाई थी. बताया जाता है कि मुगल बादशाह ने औलाद होने की मन्नत पूरी होने पर बड़ी देग भेंट की. इतिहास में दर्ज है कि मुगल बादशाह अकबर की ख्वाजा गरीब नवाज में गहरी आस्था थी. औलाद की मन्नत पूरी होने के बाद वो आगरा से अजमेर तक पैदल चल कर आया था. उस वक्त अकबर ने दरगाह में बुलंद दरवाजे के पास दक्षिण पश्चिम क्षेत्र में बड़ी देग बनवाई. दीन ए इलाही की स्थापना करने वाले अकबर ने यहीं पर पारसियों के नए साल का जश्न नवरोज भी मनाया था.

सिर्फ शाकाहारी - खादिम सैयद सुल्तान अली ने बताया कि छोटी और बड़ी देग में मीठे चावल ही पकाए जाते हैं. इसका कारण भी उन्होंने बताया. बोले- सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह पर सभी धर्म और जाति के लोग आते हैं. यही वजह है कि छोटी और बड़ी देग में कभी भी मांसाहारी भोजन नहीं पकाया गया और न ही लहसुन प्याज का कभी इसमें उपयोग किया गया. इसमें केवल मीठे चावल ही पकाए जाते हैं जो रात में पकते हैं और सुबह जायरीनों में तकसीम किए जाते हैं. उन्होंने बताया कि अंजुमन कमेटी देग की देख रेख और ठेके का काम देखती है. उर्स के मौके पर हर रोज छोटी देग में तबर्रुक पकाया जाता है.

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मन्नत पूरी होने पर देग पकवाते है अकीदतमंद- दरगाह परिसर में मौजूद बड़ी और छोटी देग जायरीनों की आस्था से जुड़ी है. सालों से देखा गया है कि ख्वाजा गरीब नवाज से मन्नत पूरी होने पर जायरीन अपनी आस्था और क्षमता के अनुसार देग पकवाते हैं और लंगर तकसीम करते है. जायरीन देगों में पैसा, जेवर, शक्कर, चावल, मेवे अपनी श्रद्धा के अनुसार डालते हैं ताकि लंगर में उनका भी सहयोग हो सके. वहीं कई लोग पूरी देग ही पकवाते है और इसके लिए आवश्यक सामग्री मंगवाकर भेंट करते हैं. इसका बकायदगी से ठेका भी हर साल दिया जाता है.

सामग्रियां जिसका होता है प्रयोग- इसे केसरिया भात भी कहा जाता है. आवश्यक सामग्रियों में चावल, देशी घी, मेवे, शक्कर, केसर, इलायची आदि शामिल है. बताया जाता है कि छोटी देग पकवाने के लिए पहले ही बुकिंग करवानी होती है. हैदराबाद से जियारत के लिए आए जायरीन सैयद अहमद हुसैन हाशमी ने बताया कि वह आठ वर्षों से दरगाह आ रहे है. यहां बड़ी छोटी देग उनके लिए हमेशा आकर्षण का केन्द्र रही है. बड़ी देग दुनिया में बड़े बर्तनों में से एक है. लोग अपनी श्रद्धा के अनुसार पैसे, चावल, शक्कर, मेवे इसमें डालते हैं. उर्स में यह रूहानी मंजर सा लगता है.

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अजमेरी बाबा के दर पर भूखा न रहे कोई- देगों में पकने वाला मीठा चावल रोज जायरीन को तकसीम कर दिया जाता है. रात को छोटी देग में यह खाना बनता है. अगले दिन सुबह लोगों को देग में पका तबर्रुक ( प्रसाद ) दिया जाता है. इसके अलावा दरगाह के लंगर खाने में दो बड़े कड़ाव और भी हैं. जहां परंपरागत जौ का दलिया ही पकाया जाता है. बताया जाता है कि ख्वाजा गरीब नवाज अज़मेर आने के बाद अपने जीवन काल में जौ का दलिया ही खाया करते थे. ऐसे में आज भी परंपरागत तरीके से ही जौ का दलिया बनाया जाता है और लोगों में तकसीम किया जाता है, ताकि बाबा के दर से कोई भूखा न जाए.

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