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भारतीय संस्कृति को संजोए है बुंदेलखंड की परंपरा, 118 साल से हो रहा रामलीला का मंचन

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Published : Feb 2, 2023, 3:51 PM IST

bundelkhand ki ramleela
बुंदेलखंड की रामलीला

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति और परंपराएं अपने आप में अनोखी हैं. त्योहारों को मनाने की परंपरा में स्थानीय लोक कला और संस्कृति की झलक देखने मिलती है. बुंदेलखंड में रामलीला के मंचन की अपनी परंपरा है. इसी परंपरा को सागर जिले के देवलचोरी गांव के लोग एक सदी से ज्यादा समय से निभाते आ रहे हैं.

बुंदेलखंड की रामलीला

सागर। देवल चोरी गांव में पिछले 118 सालों से रामलीला का मंचन किया जा रहा है. खास बात ये है कि रामलीला के मंचन के लिए किसी रामलीला मंडली को नहीं बुलाया जाता है, बल्कि गांव के लोग खुद रामलीला की तैयारी करते हैं और खुद रामलीला में अभिनय करते हैं. ब्रिटिश काल से चली आ रही इस परंपरा को जीवित रखने में स्थानीय नवयुवकों का अहम योगदान हैं. देवल चोरी गांव में होने वाली रामलीला को देखने के लिए दूर-दूर से हजारों की संख्या में लोग पहुंचते हैं.

bundelkhand ki ramleela
बुंदेलखंड की लोक संस्कृति

बसंत पंचमी से होती है शुरुआत: सागर शहर से करीब 25 किलोमीटर दूर जैसीनगर विकासखंड मुख्यालय में स्थित देवलचोरी गांव में 118 साल से लगातार रामलीला का मंचन हो रहा है. देवलचोरी गांव की रामलीला को बुंदेलखंड की सबसे प्राचीन रामलीला भी कहा जाता है. रामलीला का आयोजन हर साल बसंत पंचमी से शुरू होता है. एक हफ्ते तक चलता है. हर साल की तरह इस साल बसंत पंचमी के पावन पर्व से रामलीला के मंचन की शुरुआत हुई है. रामलीला में बुधवार को सीता स्वयंवर और धनुष यज्ञ का आयोजन किया गया. जिसमें राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया गया. सीता स्वयंवर के धनुष यज्ञ में बड़े-बड़े पराक्रमी असफल हो गए और धनुष नहीं तोड़ सके. अंत में अपने गुरू की आज्ञा से जब अयोध्या के राजकुमार राम ने धनुष उठाया, तो पूरा देवलचोरी गांव जय श्रीराम के उद्घोष से गूंज उठा और श्री राम ने जनकपुर की राजकुमारी सीता से विवाह संपन्न हुआ.

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118 साल से हो रहा रामलीला का मंचन

1905 में शुरू हुआ था रामलीला: देवल चोरी गांव में रामलीला की यह परंपरा ब्रिटिश काल में सन 1950 में शुरू हुई थी. जब स्थानीय मालगुजार छोटेलाल तिवारी द्वारा रामलीला के मंचन का फैसला लिया गया था. तय किया गया था कि, गांव के लोग ही रामलीला के पात्रों का अभिनय करेंगे. गांव में ही रामलीला का मंचन किया जाएगा. मालगुजार छोटेलाल तिवारी के फैसले के बाद स्थानीय युवकों और बुजुर्गों ने मिलकर पात्र तय हो जाने के बाद कई दिनों तक अभ्यास किया. सीमित संसाधनों में रामलीला के मंचन की शुरुआत की गई. रामलीला के पहली आयोजन में आसपास के गांव के लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. तय किया गया कि अब हर साल बसंत पंचमी के अवसर पर 7 दिन की रामलीला का मंचन किया जाएगा.

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भारतीय संस्कृति को संजोए है बुंदेलखंड की परंपरा

चबूतरे पर होता था मंचन: शुरुआती दौर में जब वाहनों और संसाधनों की कमी थी, तो गांव के चबूतरे पर रामलीला का मंचन होता था और लकड़ी की बैंच की पालकी बनाकर भगवान राम और सीता की झांकी गांव में निकाली जाती थी. भगवान राम और सीता सोने-चांदी के असली जेवरात पहनकर अभिनय करते थे. जब रामलीला की झांकी निकलती थी. तो गांव के लोग घर-घर स्वागत करते थे. राम सीता और लक्ष्मण का अभिनय गांव के बच्चे करते थे. रामलीला देखने के लिए आसपास के गांव के हजारों लोग बैल गाड़ियों से देवल चोरी गांव पहुंचते थे. रामलीला के मंचन के अंतिम दिन तक गांव में डेरा डाले रहते थे. गांव का माहौल रामलीला के दौरान किसी मेले की तरह हो जाता है.

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गांव के चौकीदार निभा रहे रावण का किरदार: देवल चोरी गांव की प्राचीन रामलीला की परंपरा को स्थानीय लोगों द्वारा जीवित रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है. परंपरा अनुसार गांव के लोग ही रामलीला में अभिनय करते हैं. गांव के चौकीदार वीरेंद्र चढ़ार अपने भारी-भरकम शरीर और भारी आवाज के चलते रावण का किरदार निभाते हैं. मूंछ रखने का शौक उनके रावण के किरदार में चार चांद लगा देता है. भारत भूषण तिवारी, जो कि एक कोचिंग संचालक हैं. वह पिछले 35 सालों से रामलीला में राजा जनक और भगवान परशुराम का अभिनय करते आ रहे हैं. खास बात ये है कि रामलीला के कई किरदार रोजगार और नौकरी के चक्कर में गांव छोड़कर बाहर रहने लगे हैं, लेकिन रामलीला के मंचन के अवसर पर सब कामकाज छोड़कर गांव पहुंच जाते हैं और तन्मयता से अपना किरदार निभाते हैं.

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