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MP Bhagoria Festival: बदला भगोरिया का रूप-रंग, जींस टी-शर्ट ने ली पारंपरिक वेशभूषा की जगह, टैटू का प्रेम बढ़ा

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Published : Mar 7, 2023, 8:51 PM IST

भगोरिया पर्व की पारंपरिक वेशभूषा अब समय के साथ बदलती जा रही है. शहरों में काम-धंधे कर रहे आदिवासी अपने साथ नए तौर-तरीके भी ला रहे हैं. इसके चलते भगोरिया की पारंपरिक वेशभूषा की जगह टी-शर्ट और पैंट ने ले ली है. जानिए ये शहरी मिलावट भगोरिया के असल रंग तो नहीं छीन लेगी?

bhagoria traditional cultural identity by women
महिलाओं द्वारा भगोरिया पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान

mp bhagoria festival 2023
एमपी भगोरिया महोत्सव 2023

भोपाल। जिस भगोरिया पर होली भी अपना रंग न चढ़ा पाई, क्या फागुन के असल रंग समेटे आदिम समाज के इस उत्सव में अब शहरी मिलावट आ रही है? लाल, हरे, पीले, नारंगी, चटख रंग तो वही हैं लेकिन ढंग बदल गया है. क्या प्रेम के इजहार के पर्व में बदलाव आया है? भगोरिया जिस प्रकृति के उत्सव के लिए जाना जाता है, उसमें शामिल मांदल की थाप और बांसुरी के सुर में कितना फर्क आया है? जिन आदिवासियों से सीखा शहरी लोगों ने उत्सव का ड्रेस कोड, आज उसी में बदलाव आ गया है. जिन आदिवासियों के रिवाज से लड़की के मन का मान रखना सीखा, वह भी बदलने लगा है. ये शहरी मिलावट कहीं भगोरिया के असल रंग तो नहीं छीन लेगी?

bhagoria festival tradition extinct
भगोरिया पर्व की परंपरा विलुप्त

भगोरिया का रूप हो रहा विलुप्त: भगोरिया के रंग बदल रहे हैं. ऐसी कई तस्वीरें उसकी बानगी हैं. आप जहन में लिए बैठे हैं कि कोई आदिवासी नौजवान तीर कमान लिए भगोरिया में आता है और अपनी पसंद को चुनकर उसकी मर्जी के बाद उसे ले जाता है. ऐसा तो यूं भी नहीं होता यहां, लेकिन ये भी नहीं कि दिल पर दिल की मल्लिका का इस अंदाज में नाम गुदवाया जाए. हाथों पर गुदना के साथ उकेरे जाते रहे प्रेम के पहले अक्षर लेकिन इस तरह से नाम लिखवाया जाना बता रहा है कि प्रेम के आदिम रंगों में भी मिलावट आ गई है. ये आंखों से उतरकर दिल में दर्ज हो जाने वाला अहसास होता है. भगोरिया में भरी हाट के बीच कौन से 2 प्रेमी साथ जीने मरने की कसम खा चुके, ये कोई नहीं जान पाता था जब तक वे हाथ न थाम लें. इस तरह से टैटू लिखवाकर ये एलान भगोरिया की पहचान तो नहीं था. भगोरिया की खूबसूरती ही यही थी कि उत्सव में झूमते, नाचते-गाते रंगों से सराबोर हुए युवक और युवतियां जब एक दूसरे को चुन लेते हैं तो मेला इससे बेखबर रहता है. मेले में कौन सा एक जोड़ा है जो प्रेम में गुम हो गया है ये नाम गुदवाने से ही पता चल पाता है.

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महिलाओं द्वारा भगोरिया पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान

क्या उत्सव के रंग में मिलावट हो रही है: जब कुदरत अपने सबसे चटख रंग में हो उस फागुन को बस उत्सव की तरह मनाया जाए, होली के गुलाल के बगैर देखिए तो यूं लगता है कि भगोरिया के पूरे मेले में फागुन बिखरा पड़ा है. चटख रंग की ओढनी पहने सांवली सुंदर लड़कियों की टोलियां और सजे-धजे नौजवान मांदल की थाप पर थिरकते दिखाई देते हैं. जैसे बाकी दुनिया में स्त्रियां ही परंपरा और रीत रिवाज अपने पल्लू से बांधी हैं, बिल्कुल वैसे ही भगौरिया की डोर भी युवतियां संभाले हैं. गुजरात मजदूरी के लिए जाने वाले इन आदिवासी गांव के नौजवान होली के पहले भगोरिया पर गांव लौटते तो हैं, लेकिन अब इनकी वापसी भी वैसे ही हो रही है जैसे घर परिवार से गए बेटे की लंबे वक्त बाद होती है. ये नौजवान ही गांव में शहरीकरण के मैसेंजर बन रहे हैं और भगोरिया पर्व में मिलावट बन रहे हैं.

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महिलाओं द्वारा भगोरिया पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान

आदिवासी नौजवान बना शहर से लौटा मेहमान: आदिवासी जीवन को करीब से देख चुके लेखक संजय वर्मा ने भगोरिया में हौले-हौले दर्ज हो रहे बदलाव को महसूस किया है. उन्होंने बताया कि भगोरिया में आने वाला आदिवासी पुरुष अब जींस टी-शर्ट पहने शहरी मजदूर बन गया है. जो होली की सालाना छुट्टियों में घर आता है. इसके सिवा अब उसके पास आदिवासी संस्कार जैसा कुछ भी नहीं है. थोड़ी बहुत सांस्कृतिक पहचान महिलाओं ने बचाए रखी है, क्योंकि वे गांव में छूट गई हैं. इसी वजह से भगोरिया में देखने लायक आदिवासी महिलाएं हैं, पुरुष नहीं क्योंकि वे तो अब नाचना भी भूल चुके हैं.

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