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Explainer Jharkhand Domicile Policy: स्थानीयता की आग में कब तक झुलसेगा झारखंड, डोमिसाइल को लेकर 22 वर्षों में राज्य ने क्या कुछ देखा, जानें सब कुछ

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Published : Jan 30, 2023, 7:54 PM IST

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झारखंड के पिछले कुछ दिनों से स्थानीय नीति और नियोजन नीति को लेकर जमकर राजनीति हो रही है. पिछले दिनों राजभवन ने 1932 खतियान आधारित स्थानीय नीति वाले बिल को सरकार के पास वापस कर दिया है. इसे लेकर राजनीति और गरमा गई है. राज्य निर्माण से लेकर अब तक यह मुद्दा अनसुलझा ही रहा है. पिछले 22 सालों में क्या-क्या हुआ सब कुछ जानिए इस रिपोर्ट में...

रांची: भगवान बिरसा की जयंती के दिन 15 नवंबर साल 2000 को देश का 28वां राज्य बना झारखंड आजतक यह तय नहीं कर पाया कि यहां का स्थानीय निवासी कौन होगा. किसी भी राज्य के लिए स्थानीयता को परिभाषित करना इसलिए जरूरी होता है ताकि वहां के नागरिकों को थर्ड और फोर्थ ग्रेड की नौकरियों में प्राथमिकता मिल सके. इसके लिए पिछले 22 वर्षों में कई नियम बनाए गये और फैसले लिये गये. लेकिन सभी कानून की चौखट पर दम तोड़ते रहे.

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राजभवन से बिल वापस: राजभवन ने 1932 के खतियान पर आधारित "झारखंड के स्थानीय व्यक्तियों की परिभाषा और परिणामी सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य लाभों को ऐसे स्थानीय व्यक्तियों तक विस्तारित करने के लिए विधयक, 2022 में कई खामियां गिनाते हुए हेमंत सरकार को लौटा दिया है. राजभवन ने सरकार से विधेयक पर पुनर्विचार करने को कहा है. अब सवाल है कि स्थानीयता के लिए किस-किस ने पहल की. किन वजहों से इसको मूर्त रूप नहीं मिल पाया. किन बातों को लेकर विवाद हुए. क्या इसको राजनीति का हथकंडा बना दिया गया है. क्या यह सत्ता तक पहुंचने और सत्ता में बने रहने का जरिया बन गया है.

बेवजह की आग में झुलसी थी बाबूलाल की कुर्सी!: झारखंड बनने पर बाबूलाल मरांडी पहले मुख्यमंत्री बने थे. उस दौर में तेजी से विकास के कार्य शुरू हुए. सड़कों का नये सिरे से निर्माण हो रहा था. बिहार की तुलना में झारखंड में दिख रहे बदलाव की चर्चा हो रही थी. लेकिन शासन का एक साल गुजरते ही तत्कालीन सीएम बाबूलाल मरांडी सरकार के सामने स्थानीयों को नियोजन देने की चुनौती थी. उन्होंने बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 की धारा- 85 के उपबंधों के तहत जिलों के अंतिम सर्वे को स्थानीयता का आधार बनाया था. लेकिन उन्होंने इसके साथ नियोजन को भी जोड़ दिया था. उन्होंने कभी भी 1932 के खतियान को स्थानीयता का आधार नहीं बनाया था. फिर भी भ्रम पैदा हुआ. रांची समेत कई जिलों में हिंसा हुई. रांची में पांच लोगों की जान चली गई. पूरा राज्य भीतरी और बाहरी की आग में झुलसने लगा. यह मामला हाईकोर्ट में पहुंचा. तब कोर्ट ने नियोजन तय करने के फैसले को असंवैधानिक बताते हुए सरकार के निर्णय पर रोक लगा दी थी.

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बाबूलाल के स्थानीय नीति में 1932 का जिक्र नहीं: इस बीच बाबूलाल मरांडी ने फोन पर ईटीवी भारत को बताया कि अगर उनकी सरकार ने 1932 को स्थानीयता का आधार बनाया था तो उससे जुड़ा कोई तो कागज होना चाहिए ना. उन्होंने सरकार को सलाह देते हुए कहा है कि युवाओं के भविष्य से जुड़े मामले की फेंका-फेंकी नहीं होनी चाहिए. जब राज्य सरकार केस लड़ने के लिए वकीलों पर करोड़ों रुपए खर्च कर सकती है तो इस मामले में अच्छे वकीलों से ड्राफ्ट क्यों नहीं तैयार करवाती. क्यों असंवैधानिक काम कर मामले को लटका रही है.

रघुवर ने 1985 को कट ऑफ डेट बनाया: साल 2002 में बाबूलाल मरांडी को झटका लगने के बाद किसी ने भी स्थानीयता और नियोजन को लेकर गंभीरता नहीं दिखायी. इस दौरान खुले तौर पर मेरिट के आधार पर लोगों को नौकरियां मिलती रहीं. इस बीच साल 2014 में पहली बार गैर आदिवासी के तौर पर मुख्यमंत्री बने रघुवर दास ने स्थानीयता को लेकर एक संकल्प पारित किया. उन्होंने 1985 को कट ऑफ डेट बनाया. साथ ही थर्ड और फोर्थ ग्रेड की सरकारी नौकरी में प्राथमिकता के लिए 13 अधिसूचित और 11 गैर अधिसूचित जिलों को श्रेणी में बांट दिया. अधिसूचित जिलों की नियुक्तियों में सिर्फ उसी जिले के अभ्यर्थी शामिल हो सकते थे. इस आधार पर बड़ी संख्या में लोकल को नौकरियां मिली. लेकिन विपक्ष का बार-बार आरोप रहा कि 1985 को कट ऑफ बनाने की वजह से बाहर से आकर बसे लोग फायदा उठाते रहे. हालाकि शिक्षक नियुक्ति मामले में अधिसूचित और गैर अधिसूचित जिलों का मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो यह व्यवस्था फिर ध्वस्त हो गई.

हेमंत ने 1932 को बनाया स्थानीयता का आधार: 2019 के चुनाव में रघुवर दास आउट हो गये. जनता ने हेमंत सोरेन पर विश्वास जताया. उनके कुर्सी संभालते ही कोरोना की एंट्री हो गई. वायरस से लड़ते हुए दो साल निकल गये. तीसरे साल में उन्होंने तीन बड़े मास्टर स्ट्रोक लगाए. ओल्ड पेंशन स्कीम की घोषणा के बाद हेमंत सोरेन ने 11 नवंबर 2022 को स्पेशल सेशन बुलाकर ओबीसी आरक्षण में इजाफा और झारखंड के स्थानीय व्यक्तियों की परिभाषा और परिणामी सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य लाभों को ऐसे स्थानीय व्यक्तियों तक विस्तारित करने के लिए विधयक, 2022 को ध्वनिमत से पारित कराया. दोनों विधेयक में विशेष प्रावधान है कि यह तभी लागू होगा जब केंद्र सरकार इसे 9वीं अनुसूची में शामिल करेगा.

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मधु कोड़ा चाहते हैं अंतिम सर्वे रिपोर्ट बने आधार: सरकार की दलील थी कि ऐसा होने पर इसको किसी भी कोर्ट में चैलेंज नहीं किया जा सकता है. लेकिन महज ढाई माह के भीतर राजभवन ने कई सवालों के साथ विधेयक को लौटा दिया. राजभवन ने दलील दी कि संविधान की धारा 16 में सभी नागरिकों को नियोजन के मामले में समान अधिकार है. संविधान की धारा 16(3) के तहत सिर्फ संसद को विशेष शक्ति है कि वह विशेष प्रावधान के तहत धारा 35(A) के अंतर्गत नियोजन के मामले में किसी भी प्रकार की शर्तें लगाने का अधिकार अधिरोपित कर सकता है. राज्य विधानमंडल को यह शक्ति नहीं है. जबकि हेमंत सरकार की दलील थी कि इस विधेयक के 9वीं अनुसूची में शामिल होने से स्थानीयों का हक सुरक्षित हो जाता. हालांकि कोल्हान प्रमंडल से आने वाले पूर्व सीएम मधु कोड़ा इस विधेयक पर सवाल खड़े करते हैं. उनका कहना है कि हर जिले के अंतिम सर्वे को आधार बनाना चाहिए था. कोल्हान में 1964 में अंतिम सर्वे हुआ है. फिर वहां के लोग कैसे हक पाएंगे.

हाई कोर्ट से भी सरकार को लग चुका है झटका: खास बात है कि राजभवन से झटका मिलने से पहले हेमंत सरकार की नियोजन नीति, 2021 भी झारखंड हाई कोर्ट में रद्द हो चुकी है. क्योंकि सरकारी नौकरी में राज्य सरकार के शिक्षण संस्थान से 10वीं और 12वीं पास की अनिवार्यता को कोर्ट ने गलत बताया था. अहम बात यह है कि हाई कोर्ट में नियोजन नीति रद्द होने और राजभवन से स्थानीयता वाला बिल वापस किये जाने के बाद नौकरी की राह ताक रहे युवा ठगा महसूस कर रहे हैं. युवाओं में गुस्सा है. हालांकि सीएम खुद कह चुके हैं कि जल्द ही नियोजन को लेकर ठोस समाधान निकाला जाएगा. लेकिन सवाल वही है कि ऐसी नीतियां बनायी ही क्यों जाती हैं जो कोर्ट में टिक नहीं पातीं.

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