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माननीयों के लंबित मामले, आपराधिक राजनीति की विकराल तस्वीर!

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Published : Sep 14, 2020, 10:08 PM IST

पंजाब में 1983 में हत्या के मामले में 36 साल बाद एक जन प्रतिनिधि के खिलाफ पिछले साल आरोप तय किया गया. यह आपराधिक राजनीति के दुष्परिणाम का एक अकाट्य प्रमाण है. आजीवन कारावास के कुल दर्ज 413 मामलों में से 174 वर्तमान सांसदों और विधायकों के खिलाफ हैं.

supreme court
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हैदराबाद : सर्वोच्च न्यायालय ने दो साल पहले कहा था लोकतंत्र में सबसे बुरी चीज जो हो सकती है वह है आपराधिक राजनीति. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के निष्कर्ष से पता चलता है कि वर्ष 2014 तक देश भर के 1581 विधायक और सांसद आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे थे. सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष अदालतों का गठन किया था और मामलों की अद्यतन स्थिति का ब्योरा लिया था. अदालत के निष्पक्ष सलाहकार (एमिकस क्यूरे) हंसारिया ने जिन तथ्यों का खुलासा किया वे चौंकाने वाले थे. एक जनहित याचिका में वर्तमान और पूर्व जन प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामलों की सुनवाई में तेजी लाने और दोषी नेताओं को जीवन भर के लिए चुनाव लड़ने से वंचित कर देने की मांग की गई थी.

देश में कुल 4,442 पूर्व और वर्तमान विधायकों और सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से 2 हजार 556 अभी जनप्रतिनिधि हैं. हर जन प्रतिनिधि के खिलाफ कई आरोप दर्ज हैं और ये आपराधिक राजनीति के मकड़जाल का खुलासा कर रहे हैं. प्रत्येक मामले में कई जन प्रतिनिधियों की भागीदारी है. उत्तर प्रदेश में जितने माननीय जनप्रतिनिधि घृणित आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं वह रिकार्ड अनूठा है. इन अपराधों में उन्हें उम्रकैद तक की सजा हो सकती है.

बिहार 30 मौजूदा और 43 पूर्व विधायकों के साथ इस तरह के मामलों का सामना करने वाले राज्यों में दूसरे स्थान पर है. एमिकस क्यूरी की रिपोर्ट के अनुसार, हालांकि वर्ष 1983 से ही मामले बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में अभी तक आपराधिक केस दर्ज नहीं किए गए हैं. निचली अदालत की ओर से जारी किए गए गैर-जमानती वारंट के तामील होने की स्थिति के बारे में कभी जानकारी नहीं मिली. आजीवन कारावास के कुल दर्ज 413 मामलों में से 174 वर्तमान सांसदों और विधायकों के खिलाफ हैं. यह सच्चाई है कि पंजाब में 1983 में हत्या के मामले में 36 साल बाद एक जन प्रतिनिधि के खिलाफ पिछले साल आरोप तय किया गया. यह आपराधिक राजनीति के दुष्परिणाम का एक अकाट्य प्रमाण है.

दो साल पहले भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र ने स्पष्ट किया था कि यह सच है कि आरोपी को तब तक दोषी नहीं माना जाना चाहिए जब तक दोष सिद्ध नहीं हो, लेकिन जो लोग सार्वजनिक जीवन जीते हैं और कानून बनाने में शामिल हैं उन्हें हर हाल में सभी गंभीर आरोपों से मुक्त होना चाहिए.

यह मानते हुए कि उम्मीदवारों के खिलाफ झूठे आरोप लगने की संभावना है, पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने सुझाव दिया है कि संसद को इस मुद्दे पर चर्चा करके समाधान खोजना चाहिए और उसके अनुसार एक अधिनियम बनाना चाहिए. हालांकि, न्यायपालिका खुद को गुणवत्तापूर्ण सुझावों को सीमित रख रही है क्योंकि संवैधानिक आचार संहिता के पार नहीं जा सकती है, लेकिन आपराधिक एकाधिकार वाली राजनीति संविधान के शासन की व्यस्था को भ्रष्ट कर रही है.

चौदहवीं लोकसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या 24 फीसद थी. यह धीरे-धीरे बढ़कर 30 फीसद और उसके बाद में 34 फीसद हो गई. वर्तमान लोकसभा में ऐसे सांसदों की संख्या 43 फीसद तक पहुंच गई है. ज्यादा चिंता की बात यह है कि हत्या, अपहरण, बलात्कार और मनी लॉन्ड्रिंग एवं देशद्रोह के बराबर के बड़े अपराधों के आरोपी अभी कानून के निर्माता और शासक हैं.

पिछले महीने के तीसरे हफ्ते मद्रास उच्च न्यायालय ने केंद्र से पूछा कि वह यह बताए कि 'सर्वोच्च न्यायालय' की ओर से दिए गए सुझाव के अनुसार अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए अभी तक कानून क्यों नहीं बनाया गया ? रामविलास पासवान जैसे लोगों का यह विश्लेषण है कि राजनीतिक दलों को अपराधियों के जरिए मजबूत किया जाता है. आज स्थिति इस हद तक पहुंच गई है कि अपराधी राजनीतिक दल बना रहे हैं. यदि लोकतंत्र का अर्थ विकृत होकर अपराधियों द्वारा पूंजीवाद के साथ और भ्रष्टाचार के लिए हो गया है तो राजनीतिक दलों को हर हाल में ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण करना होगा. वास्तविक लोकतंत्र पथ भ्रष्ट राजनीतिक दलों को सजा देने की लोगों की दृढ़ इच्छा शक्ति और जागरूकता से ही उभर कर सामने आ सकता है.

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