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देश में 'सिरमौर' होगा हिमाचल का आलू, यहां विकसित हो चुकी है आलू की कैंसर रोधी किस्म

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Published : Aug 9, 2021, 9:41 PM IST

Updated : Jan 5, 2022, 12:32 PM IST

आलू अनुसंधान संस्थान कुफरी ने आलू की एक ऐसी किस्म विकसित की है, जो कि केमिकल मुक्त है. साथ ही साथ अनेक रोगों से लड़ने में भी सहायक की भूमिका निभा रही है. कुफरी नीलकंठ नामक आलू की यह वैरायटी देश में पहली बार विकसित की गई है, हालांकि विदेशों में इससे मिलते-जुलते गुणों वाली किस्म जरूर मार्केट में आ चुकी है.

कुफरी नीलकंठ आलू
कुफरी नीलकंठ आलू

शिमला: हिमाचल का आलू अपने औषधीय गुणों के कारण देश में नई पहचान बनाएगा. राजधानी शिमला के समीप केंद्रीय आलू अनुसंधान केंद्र कुफरी ने आलू की कई यूनिक किस्में विकसित की हैं. उनमें से एक तो अपने कैंसर रोधी गुणों के कारण बहुत उपयोगी साबित हो रही है. हिमाचल सरकार यहां के आलू को नई पहचान देने के लिए कई कदम उठा रही है. राज्य के कृषि मंत्री वीरेंद्र कंवर के अनुसार सरकार आलू अनुसंधान को और तेज करेगी. इसके साथ ही राज्य सरकार आलू के बीज में न केवल आत्मनिर्भर बनेगी, बल्कि यहां इतनी मात्रा में बीज का उत्पादन किया जाएगा जिससे ये देश के अन्य राज्यों को भी भेजा जा सके.

बता दें कि हिमाचल में पैदा किया जाने वाला आलू अपने स्वाद और गुणों के कारण देश भर में डिमांड रखता है. हिमाचल में शिमला, सोलन, सिरमौर, ऊना व कांगड़ा सहित लाहौल-स्पीति में भी आलू उगाया जाता है. शिमला और लाहौल का आलू अपने ऑर्गेनिक स्वाद के लिए मशहूर है.

आलू अनुसंधान संस्थान कुफरी ने आलू की एक ऐसी किस्म विकसित की है, जो कि केमिकल मुक्त है. साथ ही साथ अनेक रोगों से लड़ने में भी सहायक की भूमिका निभा रही है. कुफरी नीलकंठ नामक आलू की यह वैरायटी देश में पहली बार विकसित की गई है, हालांकि विदेशों में इससे मिलते-जुलते गुणों वाली किस्म जरूर मार्केट में आ चुकी है.

आलू अनुसंधान संस्थान में बतौर सीनियर साइंटिस्ट( प्रधान वैज्ञाननिक एवं संभागाध्यक्ष) डॉ. नरेंद्र कुमार पांडेय ने बताया कि आलू की इस किस्म का ईजाद करने में वैज्ञानिकों को 12 वर्ष से अधिक समय तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी. कुफरी नीलकंठ परपल रंग का आलू है और खाने में भी स्वादिष्ट है. इसके अलावा स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभदायक भी है.

एन.के. पांडेय ने कहा कि इसमें ऐसे तत्व हैं, जो कैंसर के वैक्टीरिया से लड़ने में सहायक सिद्ध होते हैं. आलू की यह किस्म एंटीऑक्सीडेंट है. इसके अलावा यह झुलसा रोग प्रतिरोधक क्षमता वाला आलू है. इसी कारण किसानों स्प्रे की जरूर नहीं पड़ती और ना ही किसी अन्य प्रकार के केमिकल डालने की जरूरत रहती है. कुफरी नीलकंठ की यही खासियत इसे रासायन मुक्त भी बना देती है. डॉ. पांडेय ने कहा कि हमारे देश में दो प्रकार के आलू होते थे. पहली किस्म सफेद छिलके वाली और दूसरी लाल छिलके वाला आलू. यह तीसरी किस्म है जो कि परपल रंग की है.

किसानों के लिए भी यह आलू उगाना लाभदायक है. इसकी उत्पादन क्षमता 35 से 38 टन प्रति हैक्टेयर है. यह देश के नॉर्थ इंडियन प्लेन में अधिक उगाई जा रही है. इनमें पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बंगाल और मध्यप्रदेश में अच्छी पैदावार देगा. वर्तमान में पूरे देश में आलू के किसानों के सामने झुलसा रोग गंभीर समस्या है. आलू को झुलसा से बचाने के लिए रासायनिक स्प्रे करने पडते हैं. जिससे किसानों पर अतिरिक्त खर्च पड़ता है. आलू कि इस किस्म में झुलसा रोग नहीं लगता है, इसलिए इसमें किसी प्रकार के स्प्रे की कोई जरूरत नहीं रहती. जिससे लागत मुल्य कम आता है.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अधीन केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (सीपीआरआई) शिमला के वैज्ञानिकों ने आलू की फसल पर ड्रोन से छिड़काव कर बीमारियों और कीटों काबू पाने में सफलता हासिल की है. सीपीआरआई की इस सफलता के बाद देश भर के आलू उत्पादकों के लिए फसल की बीमारियों और कीटों पर काबू पाना काफी आसान होगा. सीपीआरआई ने दवाओं के छिड़काव से पहले ड्रोन के इस्तेमाल के लिए महा निदेशक सिविल एविएशन से स्वीकृति भी ली है. इससे पूर्व संस्थान ने दो कंपनियों से ड्रोन से दवा के छिड़काव को लेकर तीन साल की अवधि के लिए समझौता भी किया है. यह समझौता वर्ष 2021 से 2023 की अवधि के लिए किया गया है.

सीपीआरआई के सामाजिक विज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. एनके पांडेय ने बताया कि पहली बार ड्रोन की मदद के मोदीपुरम स्थित आलू के फार्म बीमारियों और कीटों की रोकथाम के प्रबंधन में सफलता हासिल की है. ड्रोन से दवाओं के छिड़काव आलू की फसल पर लगने वाली बीमारियों और कीटों पर प्रभावी तरीके से नियंत्रण पाने में सफलता मिली है. देश के अन्य क्षेत्रों के किसान आलू की फसल छिड़काव के लिए ड्रोन का इस्तेमाल कर सकेंगे.

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मंडी के शोधकर्ताओं ने एक तकनीक विकसित की है, जिसके जरिये आलू के पौधों की पत्तियों में लगने वाली बीमारियों का पता लगाया जा सकेगा. बता दें कि केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान शिमला के सहयोग से किये गये इस रिसर्च में पत्तियों में रोगग्रस्त हिस्से का पता लगाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल किया गया है.

विटामिन कार्बोहाइड्रेट व फाइबर से भरपूर लाहौल घाटी में पैदा होने वाला लाल आलू सेहत का ख्याल भी रखेगा. वसा, कोलेस्ट्रॉल मुक्त व कम मात्रा में सोडियम होने से संतुलित आहार में इसका कोई मुकाबला नहीं है. इसे भून कर खाएं या सब्जी व परांठा बनाकर स्वाद लाजवाब है. इन्हीं खूबियों के चलते लाहौल-स्पीति जिले में बड़ी संख्या में किसान अब लाल आलू का उत्पादन करने लगे हैं.

जिले में करीब 958 हेक्टेयर भूमि में आलू की खेती होती है. किसान कारोबार के लिए संताना आलू का उत्पादन करते हैं. संताना से चिप्स व बीज बनता है. यह खाने में स्वादिष्ट नहीं होता है. लाल आलू को पांगी आलू भी बोलते हैं. इसका बीज कहां से आया, इसको लेकर विभिन्न मत हैं. कुछ लोग कहते हैं कि चंबा जिले के पांगी से इसका बीज लाया गया था. धीरे-धीरे किसानों ने इसका उत्पादन करना शुरू कर दिया. कुछ लोग इसे कुफरी लालिमा की किस्म बताते हैं.

आलू की दूसरी किस्मों के मुकाबले इसका छिलका पतला होता है. इसे छिलके के साथ खाया जाता है. छिलके में प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला फाइबर पाचन क्रिया को मजबूत करता है. वसा व कार्बोहाइड्रेट फ्री होने के साथ कम मात्रा में सोडियम होने से हृदय रोगी भी लाल आलू का सेवन कर सकते हैं. इसमें बड़ी मात्रा में विटामिन सी होती है, जो कि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का काम करती है. विटामिन बी6, कॉपर, पोटेशियम व मैग्नीशियम भी पाया जाता है. लाल आलू में कम मात्रा में कैलोरी व अधिक फाइबर होता है. इस खूबी के कारण हृदय रोग व कैंसर से बचाव करता है. भूनने व उबालने पर भी इसके स्वाद में फर्क नहीं आता है.

एडीओ केलंग अंजू ठाकुर का कहना है लाहौल के किसान संताना के अलावा लाल आलू का उत्पादन भी कर रहे हैं. खुद उपयोग करने के अलावा बेच भी रहे हैं. मार्केट में भी धीरे-धीरे इसकी मांग बढ़ने लगी है. अन्य किस्मों के मुकाबले लाल आलू में पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं.

विभागाध्यक्ष सामाजिक विज्ञान केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान शिमला डॉ. एनके पांडे का कहना है संस्थान ने कुछ साल पहले लाहौल के किसानों को कुफरी-सिंदूरी व कुफरी लालिमा किस्म की आलू का बीज दिया था, मगर किसानों ने उत्पादन की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया. अब किसानों ने लाल आलू के उत्पादन में रुचि दिखाई है. लाल आलू में अधिक मात्रा में पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं.

केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (सीपीआरआई) के वैज्ञानिकों ने आलू से दलिया तैयार करने की विधि ईजाद की है. मीठा या नमकीन दलिया बनाने के लिए किसी भी किस्म का आलू उपयोग में लाया जा सकेगा. वैज्ञानिकों को पांच माह के शोध के बाद सफलता मिली है. अब अगर आलू की पैदावार ज्यादा होती है और किसानों को सही दाम नहीं मिलते हैं, तो दलिया बनाकर बाजार में बेचकर अच्छी कमाई की जा सकती है. इस दलिया में न्यूट्रिशन वैल्यू भी बनी रहती है. अभी तक खाने वाले आलू की किस्में विधायन के लिए उपयोग में नहीं लाई जाती हैं. इनमें स्टार्च ज्यादा होता है. गेहूं से एलर्जी के कारण परेशान लोगों के लिए आलू का दलिया बेहतर विकल्प रहेगा.

सीपीआरआई के जालंधर केंद्र के फूड टेक्नोलॉजी विभाग के वैज्ञानिक डॉ.अरविंद जसवाल ने बताया कि आलू से दलिया बनाने की विधि में करीब पांच माह का समय लगा है. आलू को छिलके के साथ उपयोग करके दलिया बनाया जाता है. आलू के टुकड़े इतने छोटे किए जाते हैं कि सूखने के बाद गेहूं के दलिया से भी छोटा हो जाता है. अब आलू से दलिया तैयार करने की यूनिट लगाकर व्यवसाय भी कर सकेंगे. देश के बेरोजगार स्टार्ट अप योजना के तहत आलू से दलिया बनाने की यूनिट पचास हजार से दो लाख रुपये निवेश करके लगा सकते हैं.

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Last Updated : Jan 5, 2022, 12:32 PM IST
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