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इजराइल और यूएई संधि : सदी का समझौता

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Published : Aug 18, 2020, 8:50 AM IST

Updated : Aug 18, 2020, 9:23 AM IST

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इजराइल और यूनाइटेड अरब अमीरात (यूएई) के बीच समझौता होने की घोषणा की है. तीन हफ्ते के अंदर दोनों पक्ष निवेश, पर्यटन, सुरक्षा, उड्डयन, ऊर्जा, स्वास्थ्य सेवा, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, पर्यावरण और प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में करार के लिए बैठकें करेंगे. पढ़ें पूरी खबर...

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अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 13 अगस्त को इजराइल और यूनाइटेड अरब अमीरात (यूएई) के बीच समझौता हो जाने की घोषणा की. दोनों पक्षों ने बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में इसे ऐतिहासिक एवं सदी का संधि करार दिया. इसके अनुसार, इजराइल उन क्षेत्रों पर संप्रभुता की अपनी घोषणा पर रोक लगा देगा जो शांति के दृष्टि से दर्शायी गई हैं. दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध बहाल होंगे, दोनों देश कोरोना वायरस से लड़ाई में टीका विकसित करने के जरिए सहयोग करेंगे. मुस्लिम तीर्थयात्रियों को धार्मिक मकसद से येरुशलम और अल-आक्सा मस्जिद में जाने की इजाजत दी जाएगी. यूएई और अमेरिका मध्य पूर्व के लिए रणनीतिक एजेंडा पर काम करेंगे.

अमेरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता के बाद इस साल 28 जनवरी को ट्रंप ने ह्वाइट हाउस में आयोजित एक स्वागत समारोह में जब अपना ‘विजन ऑफ पीस' पेश किया तो दोनों पक्षों के बीच शुरुआती बातचीत हुई. उसके बाद दोनों के बीच हर मुद्दे पर विस्तार से चर्चा हुई और बातचीत के बाद इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और यूएई के क्राउन प्रिंस शेख मोहम्मद बिन जायद अलनाह्यान के बीच समझौता हुआ.

तीन हफ्ते के अंदर दोनों पक्ष निवेश, पर्यटन, सुरक्षा, उड्डयन, ऊर्जा, स्वास्थ्य सेवा, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, पर्यावरण और प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में करार के लिए बैठकें करेंगे. हालांकि यूएई ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जब तक फ़िलिस्तीन और इजराइल के मुद्दे का समाधान नहीं हो जाता तब तक वह येरुशलम में अपना दूतावास नहीं स्थापित करेगा. अपनी तरफ से नेतन्याहू ने दावा किया है कि वह पश्चिमी तट पर अपनी विस्तार योजना को केवल 'स्थगित' करने पर सहमत हुए हैं. ऐसा कहना दोनों पक्षों के नेताओं की अपने क्षेत्रों में आलोचना कम हो इसकी एक सतर्क कोशिश लग रही है.

इजराइल के प्रति बदल रहा है नजरिया

हाल के दिनों में पहले से ही ऐसी समझदारी भरे संकेत मिल रहे थे कि खाड़ी के देशों का नजरिया इजराइल के प्रति बदल रहा है. पिछले साल नेतन्याहू की ओमान यात्रा, इजराइल का पिछले दो दशक से इस क्षेत्र में दोनों के समान दुश्मन ईरान का असर कम करने के लिए खुफिया जानकारी साझा कर यूएई को पीछे से सहयोग करना, फीफा फुटबॉल कप को देखते हुए कतर का इजराइल से खुफिया सूचनाएं पाने की इच्छा, फलस्तीनियों के मकसद के लिए चंदा देने वालों का हार जाना, इजराइल का राष्ट्र के रूप में अधिकार छोड़ने पर सऊदी के क्राउन प्रिंस सलमान की स्वीकृति और इजराइली व्यवसाइयों को अपने देश में आने देना और मुस्लिम देशों के बीच इजराइल की लंबे समय से बहिष्कार की निरर्थकता को लेकर अलग-अलग राय होना, इन सभी ने मिलकर खाड़ी के देशों को धीरे-धीरे यहूदी राष्ट्र से मेल-मिलाप के लिए करीब लाने का काम किया.

नेतन्याहू पर धोखा देने का आरोप

इस समझौते को लेकर अन्य देशों की प्रतिक्रिया मिलाजुलाकर उनकी विदेश नीतियों के अनुरूप है. इस समझौते में तीन पक्ष शामिल थे तो स्वाभाविक तौर पर तीनों बहुत खुश हैं. हालांकि, इजराइल में रहने वाले दक्षिणपंथी गुटों ने नेतन्याहू पर उन्हें धोखा देने का आरोप लगाया है. खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के देशों में सबसे बड़े सऊदी अरब ने अभी आधिकारिक रूप से इस समझौते पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. संभवत: वह इंतजार कर खाड़ी के दूसरे देशों की प्रतिक्रिया का आकलन कर रहा है. जो भी हो ऐसी बहुत कम संभावना है कि अमेरिका और यूएई दोनों को करीबी रिश्ते में लाने वाले इस समझौते की कोई निंदा करे. कतर और बहरीन ने इस समझौते का स्वागत किया है, जबकि फ़िलिस्तीन को अपने दृढ़ समर्थन के कारण अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए कुछ और समय ले रहा है.

भारत और चीन ने समझौते का किया स्वागत

ओमान ने भी इस समझौते का समर्थन किया है. मिस्र और जॉर्डन के इजराइल के साथ पहले से ही राजनयिक संबंध हैं, इसलिए स्वाभाविक तौर पर दोनों ने इस समझौते को सही ठहराया है. मुस्लिम जगत स्पष्ट रूप से इस मुद्दे पर बंटा हुआ है. जैसी उम्मीद की जा रही थी फ़िलिस्तीन ने इस करार की आलोचना की है और इसे खारिज किया है. हमास के लिए यह यहूदियों की भावनात्मक सेवा है. ईरान ने इसे रणनीतिक अज्ञानता करार दिया है और तुर्की ने यूएई के साथ अपने राजनयिक रिश्ते पर पुनर्विचार करने की धमकी दी है और इस कार्रवाई को ‘पाखंडपूर्ण' करार दिया है. मलेशिया ने इसे आग में घी डालना करार दिया है, जबकि इंडोनेशिया की ओर से अभी आधिकारिक बयान आना बाकी है. पाकिस्तान का मामला विचित्र है. वह दो पाटों के बीच फंस जाने जैसी स्थिति में है. उसने कहा है कि वह दूरगामी निहितार्थ वाले इस समझौते का विश्लेषण कर रहा है. भारत और चीन दोनों ने इस समझौते का स्वागत किया है. स्वाभाविक रूप से अधिकतर पश्चिमी देशों ने इस समझौते का स्वागत किया है.

इस समझौते से किसको क्या मिला ?

इस समझौते से सबसे पहले अमेरिका के सीने पर शांति स्थापित करने का तमगा जो अफगानिस्तान और तालिबान के बीच समझौते से हासिल हुआ था वह इजराइल-अमीरात के इस समझौते से और मजबूती से चस्पा हो गया. राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप बेहतर अवसर के साथ उतर सकते हैं. अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर प्रभुत्व रखने वाली इजराइली लॉबी उनके समर्थन में आएगी. कौन जानता है कि दोनों पक्ष 1978 में हुए कैंप डेविड करार की तरह नोबेल शांति पुरस्कार पा जाएं. बड़बोले ट्रंप खुद के लिए भी इसका दावा कर सकते हैं. यूएई और उसके पड़ोसियों को भी अब इजराइल के साथ काम करने में कम सिरदर्दी होगी. यह अमीरात के इस क्षेत्र में ‘मध्य शक्ति' यानी मिडल पावर के रूप में उभरने की इच्छा के भी अनुकूल है. यह उसकी अपनी विदेश नीति को भी तराशता है जो सऊदी अरब के प्रभाव से मुक्त है. (जो सऊदी अरब की नापसंद के बावजूद यमन से अपनी सेना को वापस लाने के फैसले से स्पष्ट रूप से दिखा था.) सऊदी अरब और ओमान अपने घटते तेल भंडार के कारण धीरे-धीरे एक साथ आएंगे जो जब क्लीन इनर्जी का विकल्प अधिक लोकप्रिय हो जाएगा तो किसी भी हाल में कोई मायने नहीं रखेगा. यूएई को अपनी आर्थिक प्रगति को बनाए रखने के लिए अपने बड़े भू-भाग का उपयोग करने की जरूरत है.

ओमान के पास अन्य जीसीसी देशों की तुलना में अब नहीं के बराबर तेल भंडार बचा है. लेकिन सऊदी अरब के बाद वह खाड़ी में दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्रफल वाला देश है. इसलिए उसे भी जरूरत है कि उत्पादकता बढ़ाने के लिए वह अपनी इस भूमि का उपयोग करे. इजराइल के पास मरुभूमि को हरे भरे खेतों में बदलने की विशेषज्ञता है, इसलिए वह इन देशों की मदद कर सकता है. इसके बाद इजराइल के खुफिया नेटवर्क और रक्षा उत्पादों की मदद से खाड़ी के देश ईरान के किसी भी संभावित हमले की दशा में पहले से ही तैयार रहने या उसका मुकाबला करने में सफल रहेंगे. फिलिस्तीन को निश्चित रूप से इस समझौते से नुकसान हुआ है और उसे इसी से संतुष्ट रहना होगा कि यदि यह करार जारी रहा तो इजराइल और अधिक जमीन कब्जा नहीं करेगा. अमीरात के दूसरी तरफ जाने के दूरगामी परिणाम की संभावना है.

'दोस्त' दोस्त नहीं रहेंगे

फिलिस्तीन के लिए धन मुहैया कराने वालों की तलाश करना मुश्किल हो जाएगा. मुस्लिम जगत के सदस्यों के संभावित सदस्यों के इस समझौते के समर्थन से तुर्की को मुस्लिम समुदाय में बहुत कम दोस्त मिलेंगे. ईरान देखेगा कि वह अब इराक, खाड़ी के देशों, अफगानिस्तान और जिसके बारे में कहा नहीं जा सकता वैसे पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों से घिरा है जो अब उतने दोस्त नहीं रहे. पाकिस्तान अब दो समान रूप से खराब विकल्प से व्याकुल है. धार्मिक और आर्थिक दृष्टि से सऊदी अरब मुस्लिम जगत पर शासन करता है, जबकि पाकिस्तान एक मात्र परमाणु शक्ति संपन्न देश होने के कारण मुस्लिम देशों का राजनीतिक नेतृत्व करने की चाहत रखता है. मौजूदा स्थिति में इस समझौते को लेकर मुस्लिम देशों में दो फाड़ हो जाने के कारण यदि पाकिस्तान इस समझौते का समर्थन करता है तो वह तुर्की, मलेशिया और ईरान जैसे अपने सहयोगियों से अलग-थलग पड़ जाएगा और इसके साथ ही मुस्लिम जगत का नेतृत्व करने की उसकी आकांक्षा हवा हो जाएगी.

दिवालिया हो सकता है पाकिस्तान

दूसरी तरफ यदि पाकिस्तान इस समझौते का विरोध करता है तो यूएई और सऊदी अरब के साथ पहले से ही चल रहे तनावपूर्ण संबंधों पर और खराब असर पड़ेगा. सऊदी अरब ने पाकिस्तान को तेल आयात के लिए कर्ज और उधार देने की सुविधा फिलहाल रोक दी है. सऊदी अरब और यूएई में सबसे अधिक पाकिस्तानी प्रवासी हैं जो वहां काम करते हैं और पाकिस्तान के खाली विदेशी मुद्रा भंडार को भरते हैं. ऐसा करने से पाकिस्तान दिवालिया हो जाएगा. चीन भी चूंकि समझौते का स्वागत कर चुका है, इसलिए वह भी हर स्थिति में साथ देने वाले गरीब दोस्त को और अधिक कर्ज देने में अपनी दूरदर्शिता नहीं दिखाएगा. अन्य मुस्लिम देशों का तो सिर्फ सतही प्रभाव है. चीन ने चूंकि खाड़ी में बहुत अधिक निवेश कर रखा है, इसलिए वह तब तक सतर्कता के साथ अपनी आर्थिक नीतियों पर आगे बढ़ेगा जब तक वह खाड़ी और ईरान के बीच चुनाव कराने के लिए बाध्य नहीं हो जाए.

जहां तक भारत का सवाल है तो हमें खुश होना चाहिए कि अब हमें अरब जगत को हमारे इजराइल से रिश्ता होने के कारण तकलीफदेह ढंग से यह समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि हमारे रिश्ते उनसे अलग हैं. सऊदी अरब के साथ हमारी बढ़ती निकटता और इजराइल के साथ हमारे बेहतरीन रिश्ते बगैर किसी अवरोध के दोनों साथ-साथ चल सकते हैं. फिलिस्तीन को हमारा नैतिक और राजनीतिक समर्थन जारी रह सकता है. फिर भी, आने वाले समय में एक स्पष्ट तस्वीर उभर कर सामने आएगी जो न सिर्फ क्षेत्र के लिए बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रभावित करने वाले एक नए भू-राजनीतिक समीकरण को आकार देगी.

(लेखक : जेके त्रिपाठी पूर्व राजदूत)

Last Updated : Aug 18, 2020, 9:23 AM IST
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