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ग्लेशियरों पर दिख रहा ग्लोबल वार्मिंग का असर, ग्लेशियर झीलों के बारे में वैज्ञानिकों की है ये राय

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Published : Sep 12, 2021, 3:48 PM IST

ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियरों में आ रहा बदलाव बड़े संकट की ओर इशारा कर रहा है. वहीं, वैज्ञानिक हिमालय में बनने वाले सभी ग्लेशियर की झीलों को खतरनाक नहीं मान रहे हैं.
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देहरादून : उत्तराखंड में ग्लेशियर के टूटने और भूस्खलन समेत तमाम घटनाएं समय-समय पर सामने आती रहती हैं. यही नहीं, ग्लेशियर में झीलों के बनने की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं. जो आने वाले समय में किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है. वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी ग्लेशियरों की निगरानी करने जा रहा है. इसके लिए वाडिया के वैज्ञानिकों ने प्रस्ताव भी तैयार कर लिया है. जिसके तहत वह तमाम माध्यमों से ग्लेशियर में बनने वाले झीलों की निगरानी करेंगे. आइये जानते हैं, आखिर किस मैकेनिज्म के तहत ग्लेशियर में बनने वाले झीलों की निगरानी की जाएगी, इससे कितना फायदा पहुंचेगा?

उत्तराखंड में करीब 1200 ग्लेशियर झील

वैज्ञानिकों के अनुसार, ग्लेशियर पिघलने से नई परेशानियां भी खड़ी हो गयी हैं. क्योंकि ग्लेशियर के पिघलने से ग्लेशियर लेक (glacier lake) बन रहे हैं. यही नहीं, उत्तराखंड में करीब 1200 ग्लेशियर झील हैं, जिसमें से एक भी झील, खतरनाक नहीं है. बावजूद इसके ग्लेशियर लेक के टूटने का खतरा बना रहता है. लिहाजा, लगातार इस झीलों का शोध किया जा रहा है. साथ ही ये भी देखा जा रहा है कि कौन सी झील पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. हालांकि, उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बहुत कम लोग ही रहते हैं.

ग्लेशियरों पर दिख रहा ग्लोबल वार्मिंग का असर

वैज्ञानिकों के अनुसार जहां- जहां ग्लेशियर होगा, वहां झील जरूर बनेंगे. हिमालय में जितने ग्लेशियर हैं करीब उसके दोगुने ग्लेशियर लेक (ग्लेशियर में झील ) भी मौजूद हैं. ग्लेशियर में दो तरह की झील पाई जाती है, पहली अस्थायी झील और दूसरी स्थायी झील. हालांकि, अस्थायी लेक को सुपर ग्लेशियर लेक कहते हैं, जो खतरनाक नहीं होती हैं और ये लेक अपने आप ही समाप्त हो जाती हैं. वहीं, स्थायी झील को मोराइन झील कहते हैं. इस तरह के झील ग्लेशियर के आगे या साइड में बनते हैं और ये झील सबसे अधिक खतरनाक होती हैं. क्योंकि इस तरह की झील बड़ी होती हैं, लिहाजा इनसे खतरा भी बहुत ज्यादा होता है. हालांकि, हिमालय रेंज के ग्लेशियर में हजारों झील मौजूद हैं, लेकिन अभी कोई भी खतरनाक नहीं है. समय-समय पर इन झीलों की निगरानी करने की जरूरत है.

झील टूटने से बढ़ जाता है बाढ़ का खतरा

अगर कोई झील टूटती है तो उससे भारी नुकसान होता है. लेकिन यह भी सबसे अहम है कि जो झील टूट रही है उसके आस-पास किस तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर है ये नुकसान को बयां करता है. क्योंकि झील के टूटने से आस-पास की चीजें तबाह हो जाती हैं. लेकिन अगर कोई ऐसी झील टूटती है जो बहुत ऊपर है, और वहां कोई इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है तो इससे कोई नुकसान नहीं होगा. लेकिन इसका असर मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ के रूप में देखने को मिलती है. क्योंकि झील के टूटने से पानी का जलस्तर बहुत अधिक बढ़ जाता है.

ग्लेशियर झील से घट चुकी हैं घटनाएं

ग्लेशियर और झीलों पर निगरानी रखा जाना अत्यंत आवश्यक है. क्योंकि पिछले 10 सालों में राज्य के भीतर तीन बड़ी घटनाएं घट चुकी हैं. पहला साल 2013 में केदारनाथ में आयी आपदा और साल 2017 में गंगोत्री में आयी आपदा के साथ ही 2021 में रैणी गांव में ग्लेशियर टूटने से फ्लड आया था. हालांकि, गंगोत्री में साल 2017 में आयी आपदा से कुछ ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था, क्योंकि वहां जनसंख्या बेहद कम थी. ऐसे में, अगर समय-समय पर गलेशियर झीलों की देख-रेख किया जाए तो झील से होने वाले खतरे को टाला जा सकता है.

कुछ ग्लेशियरों की निगरानी करने की है जरूरत

वहीं, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के डायरेक्टर डॉ. कालाचंद साईं ने बताया कि ग्लेशियरों में मौजूद झील की निगरानी के लिए एक प्रपोजल भेजा गया है. जिस पर जल्द ही कार्य शुरू हो जाएगा. हिमालय में करीब 10,000 ग्लेशियर मौजूद हैं जिसमें से मात्र उत्तराखंड रीजन में करीब एक हजार ग्लेशियर हैं. ऐसे में सभी ग्लेशियरों की निगरानी करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि ऐसे ग्लेशियर की निगरानी करने की जरूरत है जिसके नीचे लोग रह रहे हों या फिर कोई बड़ा प्रोजेक्ट चल रहा हो.

अध्ययन की जरूरत

ऐसे जगह को चिन्हित कर वहां के ग्लेशियर की निगरानी करने की आवश्यकता है. ऐसे में जो जगह चिन्हित की जाएगी वहां पर एक नेटवर्क एस्टेब्लिश किया जाएगा. जहां पर सभी डाटा को एकत्र किया जाएगा. उसके बाद ऑनलाइन ट्रांसमिशन के जरिए ग्लेशियोलॉजिकल डाटा, हाइड्रोलॉजिकल डाटा, मिटोलॉजिकल डाटा, सीस्मोलॉजिकल डाटा (Seismological Data) समेत सैटेलाइट डेटा के जरिए निगरानी और उस क्षेत्र का अध्ययन किया जाएगा. जिससे पता चलेगा कि ग्लेशियर क्षेत्र में क्या चल रहा है.

साथ ही बताया कि लैंडस्लाइड और अर्थक्वेक के लिए जो अर्ली वार्निंग सिस्टम है, उससे काफी अलग ग्लेशियर झील आउटबर्स्ट का अर्ली वार्निंग सिस्टम है. क्योंकि, ग्लेशियर झील आउटबर्स्ट बहुत अधिक ऊंचाई पर होता है और हेब्लिटेशन वहां से काफी नीचे होता है. ऐसे में अगर कोई घटना होती है तो उसके मटेरियल को नीचे आने में करीब 20-25 मिनट लगेगा. ऐसे में अगर अर्ली वार्निंग सिस्टम डेवलप किया जाता है तो, ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट के दौरान जनहानि को न के बराबर किया जा सकता है. लेकिन अर्थक्वेक (Earthquake) में कुछ ही सेकंड मिलते हैं.

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