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हिमाचल में एक ऐसी ममी जिसके बढ़ रहे हैं नाखून और बाल, रहस्य बरकरार

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Published : Oct 1, 2021, 1:16 PM IST

लाहौल स्पीति में ममी
लाहौल स्पीति में ममी

हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पीति जिले के गियू गांव में 550 साल से ज्यादा पुरानी ममी आज भी मौजूद है. दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए यह ममी रहस्य बनी हुई है. आज भी इस ममी के नाखून और बाल बढ़ रहे हैं. इस ममी की खासियत है कि यह विश्व की एकमात्र ऐसी ममी है, जो बैठी हुई अवस्था में है. बताया जाता है कि साल 1995 में ITBP के जवानों को सड़क निर्माण के दौरान यह ममी दिखाई दी थी. मौजूदा समय में इस ममी को शीशे के एक केबिन में रखा गया है. वैज्ञानिकों का दावा है कि यह ममी बौद्ध भिक्षु सांगा तेंजिन की है.

लाहौल स्पीति: हिमालय की खूबसूरत वादियों में बसा छोटा और शांत राज्य हिमाचल, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए दुनिया भर में मशहूर है. हिमाचल में कई ऐसे पर्यटन स्थल और मंदिर हैं, जो अलग और अविश्वसनीय हैं. कुछ ऐसी ही अविश्वसनीयता का प्रमाण है लाहौल-स्पीति जिले की स्पीति घाटी में स्थित बौद्ध भिक्षु की ममी, जो सबके लिए हैरानी का विषय है. मरने के बाद भी किसी व्यक्ति के नाखून और बाल बढ़ रहे हों यह सुनकर आप एक बार चौंक जरूर जाएंगे. वह भी तब जबकि, उस व्यक्ति की मौत कई सदियों पहले हो चुकी हो.

550 साल पुरानी ममी

यह ममी लगभग 550 साल पुरानी बताई जाती है. इस ममी के बाल और नाखून आज भी बढ़ रहे हैं. एक खास बात और भी है कि ये ममी बैठी हुई अवस्था में है, जबकि दुनिया में पायी गई तमाम बाकी ममीज लेटी हुई अवस्था में मिली है. भारत और चीन की सीमा पर बसा लाहौल स्पीति के ठंडे रेगिस्तान में बसा गियू एक छोटा सा गांव है. जो समुद्र तल से करीब 10,499 फीट की ऊंचाई पर स्थित है. यह गांव साल में 6 से 8 महीने तक बर्फ की वजह से बाकी दुनिया से कटा रहता है. यहां से तिब्बत की दूरी महज दो किलोमीटर है.

आज भी बढ़ रहे है नाखून और बाल

स्थानीय लोगों का कहना है कि इस ममी के बाल और नाखून आज भी बढ़ रहे हैं. ये बात जरूर आपको हैरान कर देने वाली लग रही होगी, लेकिन इस बात को स्थानीय लोग एकदम सच बताते हैं और इस ममी को देवता का दर्जा देते हैं. इस ममी का संबंध सांगा तेंजिन नाम के एक लामा से है, जिनकी मृत्यु लगभग आधी शताब्दी से पहले 45 वर्ष की आयु में हो गई थी.

यह ममी भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) ने सड़क निर्माण कार्य के दौरान पाई थी. हालांकि, स्थानीय लोगों का दावा है कि वर्ष 1975 में भूकंप के बाद एक पुराने मकबरे को खोलने के बाद भिक्षु का ममीकृत शरीर मिला था, लेकिन इसके बारे में जानकारी और इसकी खुदाई 2004 के बाद की गई थी, तब से पुरातत्वविदों और जिज्ञासु यात्रियों के लिए ये रुचि का विषय बना हुआ है.

सिर पर कुदाल लगने से निकला खून

खुदाई के बाद से हिमाचल सरकार ने मंदिर के रखरखाव और सुरक्षा का जिम्मा संभाला है. इस ममी की संरचना मिस्र की ममी से बिल्कुल अलग है. ऐसी कहानी प्रचलित है कि खुदाई के दौरान ममी के सिर पर कुदाल लगने से खून निकल गया था, जो कि ऐसे सामान्य तौर पर सम्भव नहीं है. ममी की संरचना पर इस ताजा निशान को आज भी देख सकते हैं.

साल 2009 तक ये ममी आईटीबीपी के कैम्पस में रखी गई थी, लेकिन देखने वालों की भीड़ बढ़ने की वजह से इसे गांव में गोम्पा में स्थापित कर दिया गया. इस ममी की वैज्ञानिक जांच में पता चला है कि ममी की उम्र करीब 550 वर्ष पुरानी है. ममी के बाल और नाखून आज भी बढ़ रहे हैं, जिस वजह से लोग इसे एक जीवित भगवान मानते हैं और इसकी पूजा करते हैं.

ममीकरण (Self Mummification) एक सामान्य तिब्बती प्रथा नहीं थी, जैसी मिस्र में प्रचलित थी. पुराने समय में तिब्बती या तो अपने मृतकों को गिद्धों और मछलियों को अर्पित करते थे या उनका दाह संस्कार करते थे, लेकिन कुछ ऊंची पदवी पर मौजूद भिक्षुओं को ममी बना दिया जाता था और उनके शरीर को एक मार्गदर्शक के रूप में, भक्तों के लिए रखा जाता था. लगभग सभी तिब्बती भिक्षुओं को बैठने की स्थिति में ममीकृत या संरक्षित कर दिया जाता था, फिर लेटने की मुद्रा में रखा जाने लगा.

पढ़ें : मिस्र में हुई तीन रहस्यमयी ममी की खोज, जानें

मिस्र और तिब्बती ममियों के बीच एक और अंतर है. मिस्रवासी मृतकों के शरीर को संरक्षित करने के लिए कई तरह के लेप का इस्तेमाल करते थे और तिब्बती ममियों को प्राकृतिक कहा जाता था. जिसका अर्थ है कि भिक्षु भूख और ध्यान के माध्यम से खुद को मृत्यु की ओर समर्पित कर देते थे. स्व-ममीकरण की इस प्रक्रिया को 'सोकुशिनबुत्सु' कहा जाता है. जो शरीर को उसके वसा और तरल पदार्थ से दूर कर देता है. इसका श्रेय जापान के यामागाटा में बौद्ध भिक्षुओं को दिया जाता है. इस प्रक्रिया में दस साल तक लग सकते हैं. सांगा तेंजिन की ममी आज एक बौद्ध मंदिर में विराजमान है. उसका मुंह खुला हुआ व दांत दिखाई दे रहे हैं और आंखें खोखली हैं.

काजा के स्थानीय निवासी मनोज मारपा, हिशे डोलमा, वांगचुक का कहना है कि प्राचीन मान्यता है कि करीब 550 वर्ष पूर्व गियू गांव में एक बौद्ध संत थे. गांव में इस दौरान बिच्छुओं का बहुत प्रकोप बढ़ गया था. इस प्रकोप से गांव को बचाने के लिए इस संत ने ध्यान लगाने के लिए लोगों से उसे जमीन में दफन करने के लिए कहा. जब इस संत को जमीन में दफन किया गया तो इसके प्राण निकलते ही गांव में इंद्रधनुष निकला और गांव बिच्छुओं से मुक्त हो गया. वहीं, कुछ अन्य लोगों का कहना है कि ये ममी बौद्ध भिक्षु सांगला तेंजिन की है जो तिब्बत से भारत आए और यहां पर जो एक बार मेडिटेशन में बैठे तो फिर कभी नहीं उठे. आज गियू के ग्रामीणों के लिए यह ममी आस्था का प्रतीक है.

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