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Chandrayaan-3 Mission : 1976 के बाद सिर्फ चीन का मिशन ही सफल रहा है

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Published : Aug 21, 2023, 6:40 PM IST

Updated : Aug 21, 2023, 7:26 PM IST

चंद्रमा पर लैंडिंग करने में 1976 के बाद सिर्फ चीन को ही सफलता मिली है. इसलिए भारत के चंद्रयान-3 मिशन को लेकर पूरी दुनिया की नजरें टिकी हुई हैं. यह हमारे लिए चुनौती भी है और बहुत बड़ा अवसर भी. अगर यह मिशन सफल हो गया, तो इसरो स्पेस इंडस्ट्री का नया 'बादशाह' बन जाएगा. पूरे मुद्दे पर ईटीवी भारत ने इसरो के वरिष्ठ वैज्ञानिक ईएस पद्मकुमार और विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर के वैज्ञानिक के. राजीव से बातचीत की है. उनकी बातचीत के आधार पर प्रस्तुत है यह रिपोर्ट.

Design photo, Chandrayaan mission
डिजाइन तस्वीर, चंद्रयान मिशन

सुनिए ईएस पद्मकुमार ने क्या कहा

तिरुवनंतपुरम : चंद्रयान-3 का विक्रम लैंडर दो दिन बाद चंद्रमा पर लैंड करने वाला है. पूरा देश ही नहीं, बल्कि दुनिया की नजरें भारत पर टिकी हैं. चंद्रयान चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर लैंड करेगा. जिस जगह पर चंद्रयान का लैंडर लैंडिंग करने वाला है, वह जगह चंद्रयान-2 जहां पर फेल हुआ था, उससे 100 किलोमीटर की दूरी पर है.

भारत इतिहास बनाने के बिलकुल करीब पहुंच चुका है. वैसे, एक दिन पहले रूस ने अपने चंद्रयान मिशन के असफल होने की औपचारिक पुष्टि कर दी है. इसके बावजूद भारत के मिशन को लेकर कोई निराशा नहीं है. रूस का यान भी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर लैंड करने वाला था, लेकिन अंतिम समय में किसी तकनीकी खराबी की वजह से मिशन फेल हो गया. रॉस्कोमॉस के अनुसार उसका लुना 25 हार्ड लैंडिंग का शिकार हो गया. दूसरी ओर भारत के चंद्रयान-3 मिशन को लेकर अब तक जितने भी पैरामीटर्स मिले हैं, वे सारे सामान्य बताए जा रहे हैं.

इसरो ने चंद्रयान-1 मिशन के जरिए चंद्रमा पर पानी होने के प्रमाण दिए थे. लेकिन इस बार का मिशन चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव है. अभी तक जो भी आंकड़े एकट्ठा किए गए हैं, उसके अनुसार दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ के रूप में पानी होने के प्रमाण मिले हैं. अगर ऐसा संभव हुआ, तो इसरो के वैज्ञानिक अगले मिशन में इस पानी का किस तरह से उपयोग किया जा सकता है, उसका अध्ययन कर सकते हैं.

चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर बड़े-बड़े क्रेटर दिखाई देते हैं. कुछ क्रेटर तो ऐसे हैं जहां तक सूरज का प्रकाश भी ठीक से नहीं पहुंच पाता है. चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर एटकिन बेसिल एपसिलॉन पीक स्थित है. यहां पर मिशन मुश्किल है, क्योंकि सूरज की रोशनी बहुत कम पहुंचती है, इसलिए इस चुनौती के परिप्रेक्ष्य में पूरे मिशन को देखेंगे, तो आपको इसकी महत्ता नजर आएगी.

1976 के बाद से सिर्फ चीन का लैंडर ही चंद्रमा पर उतरने में कामयाब रहा है. 2013 में चीन का चांगे-3 लैंडर लैंड हुआ. 2015 में चीन का चांगे-5 चंद्रमा की सतह पर लैंड हुआ था. इनको छोड़कर चंद्रमा पर लैंडिंग के सारे मिशन असफल रहे हैं. इनमें भारत का चंद्रयान-2, इजरायल का बेरेशीट और यूएई का राशिद रोवर शामिल है. अब इस सूची में रूस के लुना 25 का भी नाम शामिल हो गया है. इसलिए भारत यदि अपने मिशन में कामयाब हो जाता है, तो निश्चित तौर पर इसरो स्पेस की दुनिया का नया 'बादशाह' बन सकता है.

अब से पहले चंद्रमा पर जाने वाले जितने भी मिशन रहे हैं, वो इक्वेटर के चारों ओर से जाते रहे हैं. चंद्रमा का इक्वेटर दक्षिणी पोल की तुलना में अधिक प्रकाशमान है. दक्षिण पोल फ्रोजेन एरिया है. यहां का तामपान काफी निम्न रहता है. इसलिए यहां पर बहुत सारी संभावनाएं बची हुई हैं. इसके सबसे ऊपरी क्रस्ट मेंटल पर अध्ययन किया जाना है. हो सकता है इससे चंद्रमा और सूर्य के उद्भव का कोई नया कारण पता चल जाए. इलिए दक्षिण पोल के बारे में अध्ययन को लेकर सबकी रुचि है. हां, यहां पर लैंडिंग बहुत बड़ी चुनौती है. वहां पर जाना और एक्सप्लोर करना कठिन है. हमने यहां पर 69.2 डिग्री पर लैंड करने की पूरी योजना बनाई है. लैंडिंग के बाद हमारे पास 14 दिनों का समय होगा. हमारा पेलोड भी बहुत सारे पहलुओं का अध्ययन करेगा. चंद्रमा की सतह किससे बनी है, वहां का रासायनिक कॉंबिनेशन कैसा है, यह सब पता चल सकेगा. दुनिया के वैज्ञानिक समुदाय में इसको लेकर उत्सुकता बनी हुई है.

हमारे पास हमारा विश्वसनीय लॉन्च व्हीकल एलएमवी-3 है. इसके जरिए हम अधिक से अधिक वजन को चंद्रमा पर ले जा सकते हैं. वहां पर जाकर अध्ययन करना है. सीमित संसाधानों को देखते हुए यही सबसे उचित तरीका है. अगर हमारा मिशन ज्यादा समय लेकर भी अपने लक्ष्य तक पहुंचता है, तो इसमें कोई दिक्कत नहीं है. अंततः हमारे परफॉर्मेंस पर कोई असर नहीं पड़ेगा. बल्कि यह कई मौकों पर हमें पुनरीक्षण का भी मौका प्रदान कर देता है. हम बिलकुल सही गति से आगे बढ़ रहे हैं.

किसी भी वजन को चंद्रमा तक ले जाना बहुत बड़ी चुनौती होती है. लेकिन यह हमारी क्षमता की परीक्षा भी है. जहां तक लुना 25 की बात है, तो वह सीधी उड़ान भरकर गया था. इसके लिए बड़े रॉकेट और अधिक ईंधन की जरूरत होती है. साथ ही हम भी यदि इसी रास्ते से अपने मिशन को पूरा करते, तो हमारे पास बहुत कम समय मिल पाता, जिससे विश्लेषण करने का बहुत अधिक समय नहीं मिल पाता. हम कोई करेक्टिव स्टेप नहीं ले पाते हैं.

एक बार जब हम चंद्रमा के मिशन को कामयाब कर लेंगे, तो इसके बाद हमारा अगला मिशन सूरज की ओर होगा. वहां पर भी हम जाने की कोशिश करेंगे. हमारी धरती से चंद्रमा की दूरी तीन लाख किलोमीटर है. जबकि आदित्य एलवन का ऑर्बिट 15 लाख किलोमीटर का है. सितंबर के पहले सप्ताह में हमारे इस मिशन की शुरुआत होगी. गगनयान मिशन पर भी हमारा फोकस है. इसके रॉकेट में बदलाव किया जा रहा है. अगले साल जीएक्स मिशन को लेकर भी तैयारी की जा रही है. क्रू मॉड्यूल पर काम जारी है.

डॉ. के राजीव से खास बातचीत

विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर के स्पेस फिजिक्स लेबोरेटरी विभाग के निदेशक डॉ के राजीव से भी ईटीवी भारत ने बातचीत की. क्या कुछ उन्होंने बताया, पढ़ें- चंद्रयान 3 के पास एक लैंडर और एक रोवर है. लैंडर में कई तरह के इंस्ट्रूमेंट्स लगे होते हैं. इनमें से एक लूनर सरफेस की मॉरफोलॉजी (भू-आकृति विज्ञान) को माप सकता है. चंद्रमा का रेगोलिथ (बाहरी सतह) नॉन कॉंडक्टिव सरफेस है. बाहर का तापमान भले ही ज्यादा हो सकता है, लेकिन नीचे का तापमान कम होता है.कॉंडक्टिविटी को मापने के लिए हम समय-समय पर उसका तापमान मापते रहेंगे. भविष्य के आकलन के लिए कॉंडक्टिविटी फैक्टर को मापना बहुत ही जरूरी है. जहां तक बात पेलोड की है, तो वह चंद्रमा के प्लाजमास्फेरिक एक्सोफेर का अध्ययन करता है. लैंडर में सिस्मोग्राफ फिट किया गया है. यह भूकंप संबंधित मापकों का अध्ययन करेगा. लूनर इंटीरियर या फिर मेट्रियोटिक हीट की वजह से भूकंप आने की वजह होती है. रोवर में दो पेलोड लगे हुए हैं. वह चंद्रमा की सतह के कंपोजिशन और प्लाजमा घनत्व का अध्ययन करेगा. इसमें अल्फा पार्टिकल एक्सरे स्पेक्टोमीटर और लेजर इंड्यूस्डब्रेकडाउन स्पेक्टोमीटर लगाए गए हैं.

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Last Updated : Aug 21, 2023, 7:26 PM IST
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