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बीएचयू की छात्रा का शोध: प्रकृति को समर्पित हैं छठ पूजा के लोकगीत, बांस और दूब वंश के प्रतीक

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Nov 19, 2023, 7:41 PM IST

वाराणसी
वाराणसी

लोक आस्था और सूर्य उपासना के पर्व छठ पूजा (chhath puja) की पूेर देश में धूम है. प्रकृति को समर्पित इस पर्व के और लोकगीतों (folk songs) में इसकी महत्ता साफ दिखाई देती है. इन लोकगीतों पर बीएचयू की छात्रा सविता पांडेय शोध कर रही हैं.

वाराणसी में बीएचयू की छात्रा सविता पांडेय छठ पूजा के लोकगीतों पर शोध कर रही हैं.

वाराणसी : 'कांचहि बांस के दौरवा, दौरा नई-नई जाए, केरवा जे भरलै दौरवा, दौरा नई-नई जाए. मेवा जे भरलै दौरवा, दौरा नई-नई जाए.' ये लोकगीत बताते हैं कि हमारे पर्व और त्योहारों में प्रकृति की स्थान कितना महत्वपूर्ण है. ऐसा ही पर्व है छठ. इसमें न किसी पुजारी की जरूरत पड़ती है और न ही किसी विशेष मंत्र की. इस पर्व में लोकगीतों के माध्यम से ही छठी मैया को प्रसन्न किया जाता है. इन्हीं गीतों के जरिए महिलाएं अपने लिए छठी मैया से आशीर्वाद मांगती हैं. ऐसे ही लोकगीतों को लेकर BHU की शोध छात्रा सविता पांडेय रिसर्च कर रही हैं. आखिर इन गीतों में ऐसा क्या है, जिसे महिलाएं पूजा में शामिल करती हैं. साथ ही यह भी कि ये लोकगीत कितना प्रकृति को समर्पित हैं.

प्रत्यक्ष देवता की उपासना और प्रकृति संरक्षण की प्रधानता

छठ या सूर्य षष्ठी, आप जो भी बोलिए, एक ही पर्व है. यह पर्व अनंत आस्था के साथ आता है और हर घर में खुशियां फैल जाती हैं. यह एकमात्र ऐसा पर्व है, जिसमें प्रत्यक्ष देवता सूर्य देव की पूजा की जाती है. यह पर्व आज से नहीं, बल्कि कई पीढ़ियों से मनाया जा रहा है. इस पर्व के आने के बाद देखने को मिलता है कि हमारे पर्व और संस्कृतियां आस्था के साथ ही प्रकृति से गहरे रूप से जुड़ी हुई हैं. छठ पूजा में प्रकृति संरक्षण प्रधान होता है. इसके लिए न तो मंत्रों की जरूरत होती है और न ही किसी पुजारी की. बस महिलाएं घाट कर लोक गीतों को गाती हुई पहुंचती हैं और उन्हीं लोकगीतों से छठी मैया को प्रसन्न करती हैं. इन लोकगीतों में प्रकृति और पर्यावरण का मेल होता है.

'लोकगीतों में प्रकृति के संरक्षण का संदेश'

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भोजपुरी अध्ययन केंद्र की शोध छात्रा सविता पांडेय कहती हैं, 'लोकगीतों में लोकमंगल की कामना सहज रूप से देखने को मिलती है. अगर हम बात करें छठ पर्व की तो इसमें सूर्य की उपासना की जाती है. प्रकृति से जो भी चीजें हमें प्राप्त हो रही हैं, उनका संरक्षण करना. ये सभी संदेश हमें लोक गीतों में मिलते हैं. इसी प्रकार एक गीत है, जिसमें कच्चे बांस की बनी हुई दौरी की बात हो रही है. इसमें मेवे और फल भरकर लोग घाट की तरफ लेकर जाते हैं. ये जो दौरी है, ये कच्चे बांस की ही बनी हुई है. क्योंकि बांस और दूब वंश का सूचक है, जो संतान प्राप्ति के लिए माना जाता है.'

पर्व में प्रकृति को ही प्रधान स्थान

सविता एक लोकगीत के अंश सुनाती हैं, 'कांचहि बांस के दौरवा, दौरा नई-नई जाए, केरवा जे भरलै दौरवा, दौरा नई-नई जाए. मेवा जे भरलै दौरवा, दौरा नई-नई जाए.' कहती हैं, संतान वंश आगे बढ़ाती है. इस गीत में कच्चे बांस की बात की गई है. बांस वंश का सूचक होता है. हम दौरी को बांस से बनाकर ले जाते हैं. इसके साथ ही इसमें प्रकृति की प्रधानता तब भी दिखती है जब दौरी में गन्ना, केला और मेवा जैसी चीजें होती हैं, जो हमें सीधे प्रकृति से मिली हैं. इसके साथ ही सूर्य देव की पूजा होती है. वह भी हमारी प्रकृति का ही हिस्सा हैं.

इन लोक गीतों में दिखाई देता है प्रकृति प्रेम

सविता कहती हैं, एक लोक गीत है, उगहु सुरूजमल, उगहु सरूजमन, तुमहि बिन गौवा खरिकना न लेय. इस गीत में व्रती महिलाएं सूर्य देव से प्रार्थना कर रही हैं. वे कहती हैं, 'आपके बिना सारे जग में अंधकार है. गाएं तृण भी नहीं तोड़ेंगी. ग्लावे दूध नहीं दुहने जाएंगे. फिर एक पंक्ति है कि, उगी ना आदित मल अरघ दिआउ. इसमें प्रार्थना की जाती है कि सूर्यदेव जल्दी प्रकट हों ताकि प्रकृति फिर से हरी भरी हो सके. ऐसे ही एक और गीत है, कहवां बिलंबला हो सुरुजदेव. इसमें सूर्य देव के उगने में होने वाली देर से चलती हवा के मंद पड़ने, जीव और पक्षियों की व्याकुलता, नदी और व्रती महिलाओं के इंतजार के भाव साफ दिखाई देते हैं.

छठ पूजा लोक परंपरा का सबसे महान पर्व

काशी हिन्दू काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भोजपुरी अध्ययन केंद्र के समन्वयक प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं, छठ पूजा हमारी लोक परंपरा का सबसे महान पर्व है. भोजपुरी अध्ययन केंद्र का उद्देश्य लोकभाषा के साथ लोकाचार का भी अध्ययन है. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भोजपुरी अध्ययन केंद्र के संगीत प्रभाग के शोध छात्र और छात्राएं छठ गीतों का अध्ययन और उनकी संगीतमय प्रस्तुति भी करते हैं. बताया, इसका उद्देश्य नई पीढ़ी को अपनी महान परंपराओं से परिचित कराना है. छठ पर्व लोक परंपरा का न सिर्फ महान पर्व है, बल्कि यह लोक परंपरा का एक जीवंत उदाहरण भी है. इसमें परिवार के साथ प्रकृति को भी शामिल किया जाता है.

'हमारी आस्था की जड़ें बहुत ही गहरी'

छात्रा के पिता प्रदीप चंद्र पांडेय बताते हैं, छठ पूजा भारतीय संस्कृति का अनूठा पर्व है. यह ऐसा पर्व है जिसमें किसी पुजारी द्वारा पूजा करने का कोई विधान नहीं है. हमारे आसपास जो गन्ना है या जो हमारे पास प्राकृतिक फल हैं, उनका प्रयोग किया जाता है. सबसे बड़ी बात कि छठ में पूरा परिवार जुड़ता है. आज जब लोग छठ पर घरों को जा रहे हैं तो न ही ट्रेनों में जगह है और न ही बसों में. यह बताता है कि आस्था की जड़ें कितनी गहरी हैं. बिहार की धरती से निकला यह छठ पर्व अब विश्वव्यापी हो गया है. वह चाहे मुंबई हो, कलकत्ता हो, दिल्ली हो या अमेरिका हो. यह जो संस्कृति है इसमें हमारी सभ्यता की जड़ें जुड़ी हुई हैं. इसमें लोक परंपरा के गीत हैं. लोक संवाद हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि इससे हमारा बिखरा हुआ परिवार जुड़ता है.

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