बौद्ध धर्म से जुड़ी हैं बिहार की 52 बूटी साड़ियां, जानें क्या है खासियत

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Published : Aug 11, 2019, 1:13 PM IST

Updated : Sep 26, 2019, 3:19 PM IST

इस कला की विशेषता यह भी है कि पूरे कपड़े पर एक ही डिजाइन या यू कहें कि बूटी का इस्तेमाल कुल मिलाकर 52 बार किया जाता है. यही कारण है कि इस कला को 52-बूटी का नाम दिया गया है. जानें 52 बूटी साड़ी के बारे में...

नालंदाः साड़ी भारतीय महिलाओं का पहनावा है जिसे विदेशी महिलाएं भी शौक से पहनना पसंद करती हैं. हर इंडियन विमेन के वॉर्डरोब में तरह तरह की साड़ियां होती हैं. कांजीवरम साड़ी से लेकर जामदानी तक, सिल्क से लेकर बनारसी और कलमकारी साड़ी तक, लेकिन बिहार में दुल्हनों के पहनावे के तौर पर मशहूर एक बेहद ही खास साड़ी जो शायद आपके वॉर्डरोब में न हो.

जैसा अनोखा नाम उतनी ही अनोखी कारीगरी
बिहार की दुल्हनों के पहनावे के तौर पर मशहूर नालंदा की 'बावन बूटी' साड़ी शायद आपके वॉर्डरोब में न हो, ऐसा इसलिए क्योंकि ये साड़ी अपने आप में कुछ खास है. खास इसलिए क्योंकि इसकी कलाकारी बरबस ही आपका मन रिझाएगी, खास इसीलिए क्योंकि इसकी सुंदरता अपने आप में आपको भीड़ से अलग करेगी. जैसा अनोखा इसका नाम है उतनी ही अनोखी इसकी कारीगरी.

बावन बूटी साड़ी पर ईटीवी भारत की रिपोर्ट

नाम के पीछे की कहानी रोचक
जी हां बावन बूटी...सुनने में बेहद दिलचस्प इस नाम के पीछे की कहानी भी रोचक है. बावन का अर्थ है बावन बवेल यानी संख्या 52 और बूटी का अर्थ है मोटिफ्स. बावन बूटी परंपरा जो साड़ी की छह गज की लंबाई में बौद्ध कलाकृतियों के माध्यम से ब्रह्मांड की सुंदरता को कैप्चर करने का प्रतीक है.

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बौद्ध धर्म को समेटने वाली 52 बूटी साड़ी

क्या है बावन बूटी बुनाई
बौद्ध धर्म के आठ चिह्नों वाली बावन बूटी बुनाई हस्तकला की काफी पुरानी परंपरा है. इसमें सादे वस्त्र पर हाथों से बुनकर धागे की महीन बूटी डाली जाती है. हर कारीगरी में कम-से-कम 52 बूटियों का संग्रह होता है. इन्हीं बूटियों से पूरे कपड़े पर डिजाइन बनायी जाती है. इस कला की विशेषता यह भी है कि पूरे कपड़े पर एक ही डिजाइन या यू कहें कि बूटी का इस्तेमाल कुल मिलाकर 52 बार किया जाता है. यही कारण है कि इस कला को बावन-बूटी का नाम दिया गया है.

डिजाइन में क्या है खास
डिजाइनों में कमल के फूल, पीपल के पत्ते, बोधि वृक्ष, बैल, त्रिशूल, सुनहरी मछली, धर्म का पहिया, खजाना फूलदान, पारसोल और शंख जैसे बौद्ध धर्म के प्रतीक चिन्हों का इस्तेमाल किया जाता है. इन चिन्हों को सिर्फ बौद्ध धर्म के प्रतीक के तौर पर नहीं बल्कि भगवान बुद्ध की महानता बताने की कला के रुप में भी उकेरा जाता है.

जितना अनोखा नाम, उतनी अनोखी कारीगरी

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नालंदा की शान 'बावन बूटी'
नालंदा की शान कही जाने वाली विख्यात बावन बूटी में इन्ही चिह्नों का इस्तेमाल किया जाता है. पुराने वक्त में पूरे एशिया में इस कला की पहचान थी. इस कला से सजी साड़ियां, चादर, शॉल, पर्दे ना सिर्फ भारत बल्कि कपड़े जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका जाते थे, जहां लोग इसे काफी पसंद करते थे. जर्मनी में तो इसकी सबसे ज्यादा डिमांड थी. बौद्ध धर्म मानने वाले देशों में बावन बूटी कला की काफी मांग है. यह कला धार्मिक सौहार्द्र का विशेष नमूना है.

पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का मिला प्यार
बावनबूटी को देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का खूब प्यार मिला था. उन्होंने बावनबूटी की डिजाइन से सजे पर्दे बनवाकर उन्हें राष्ट्रपति भवन में लगवाया. जिसके बाद इस कला को काफी प्रसिद्धि मिली. प्रसिद्ध कलाकार उपेंद्र महारथी ने भी इस डिजाइन पर काफी काम किया. वे पटना से कागज पर डिजाइन का ड्राफ्ट बनवाकर नालंदा के बसावन बिगहा ले जाते और बुनकरों के साथ बैठकर उसे बनवाते थे.

कौन हैं उपेन्द्र महारशी
उपेन्द्र महारथी 1908 में ओड़िसा के पुरी जिले में जन्मे, कोलकाता स्कूल ऑफ आर्ट्स में पढ़े और बिहार को अपनी कर्मभूमि बनाई. उपेन्द्र महारथी एक बेहतरीन शिल्पकार और वास्तु शिल्पी (आर्किटेक्ट) थे. बिहार के राजगृह (राजगीर) के मशहूर विश्व शांति स्तूप से लेकर जापान के गोटेम्बा पीस पगोडा की डिजाइन उपेन्द्र महारथी ने बनाई. बोधगया का मशहूर महाबोधि मंदिर हो, नालंदा का नव नालंदा महाविहार हो, वैशाली म्युजियम हो या बोध गया का गांधी मंडप- ये सभी उपेन्द्र महारथी की देन हैं.

कला को मिलेगा यूनेस्को सील ऑफ एक्सीलेंस अवार्ड
केंद्रीय वस्त्र मंत्रालय ने निर्णय लिया है कि अगले साल यूनेस्को सील ऑफ एक्सीलेंस प्रतियोगिता में बावनबूटी साड़ी को भेजा जायेगा. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हस्तकला के लिए ये सम्मान मिलता है. विश्व स्तर पर होने वाली इस प्रतियोगिता के लिए बावनबूटी को इंट्री मिलेगी. इसके बाद बिहार की इस परंपरागत हस्तकला को यूनेस्को सील ऑफ एक्सीलेंस, जिसे सील अवार्ड भी कहा जाता है, मिल जाएगा

क्या है यूनेस्को सील ऑफ एक्सीलेंस?
संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) पारंपरिक और आधुनिक दोनों शिल्प कलाओं को संरक्षित और विकसित करने के लिए कई तरह की गतिविधियों को बढ़ावा देता है. इसी के तहत यूनेस्को दुनिया में शिल्प के विकास के लिए सील ऑफ एक्सीलेंस पुरस्कार हर साल देता है.

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Last Updated :Sep 26, 2019, 3:19 PM IST
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