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विशेष लेख : मानव विकास सूचकांक और असमानताओं की बेड़ियां

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Published : Dec 19, 2019, 2:48 PM IST

ऐसा लगता है कि दुनिया विकास की गति पर आगे बढ़ रही है, लेकिन असमानताएं और उनके विशाल अंतराल कहीं और फैलते हुए नई चुनतियां पेश कर रहे हैं. मानव विकास सूचकांक 2030 तक समावेशी विकास तक पहुंचने के लिए लक्षित दुनिया के देशों के लिए खतरा पैदा करने वाली ऐसी ही असमानताओं पर केंद्रित है.

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मानव विकास सूचकांक

मानव विकास सूचकांक निदेशक ने पिछले मार्च में स्पष्ट किया कि एक कुशल नीति का मसौदा तभी तैयार किया जा सकता है, जब सामाजिक, वित्तीय और पर्यावरणीय बदलावों को परिवर्तन के चरणों के आधार पर असमानताओं के बदलते रुझान को दुनिया भर में समझा जाता है. निदेशक ने अप्रत्याशित वित्तीय और पर्यावरणीय मुद्दों का सामना करने और शिक्षा, स्वास्थ्य, सूचना प्रौद्योगिकी और वित्तीय विषमताओं के बारे में जानने के लिए गहन अध्ययन द्वारा मानव विकास प्रक्रिया के एक और कोण का अनावरण करने की घोषणा की.

इस संदर्भ में, एक ताजा रिपोर्ट भारत का दशकों तक निम्न और मध्यम आय वाले राष्ट्र के रूप में पिछड़े रहने के मूल कारणों का खुलासा करती है. भारत ने पिछले वर्ष की तुलना में अपनी स्थिति में सुधार किया है. इस साल के मानव विकास सूचकांक में 189 देशों में से भारत 129वें स्थान पर है.

नॉर्वे, स्विटज़रलैंड और आयरलैंड ने मानव विकास के तीन प्रमुख कारकों जैसे जीवन काल, शिक्षा और प्रति व्यक्ति आय में औसत प्रगति हासिल करने में क्रमशः पहला, दूसरा और तीसरा स्थान प्राप्त किया. भारत के पड़ोसी देशों जैसे श्रीलंका (71) और चीन (85) ने भूटान के साथ बेहतर प्रदर्शन किया, (134), बांग्लादेश (135), नेपाल (147) और पाकिस्तान (152) में गिरावट देखी गई है. हालांकि, भारत ने दक्षिण एशिया को पीछे छोड़ दिया जिसने 1990-2018 तक 46 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की, असमानताएं और बुरे रिकॉर्ड प्रगति के परिणामों को प्रभावित करते हैं. केंद्र और राज्य सरकारें क्षेत्रीय स्तर पर इन रिकॉर्ड्स की अनदेखी नहीं कर सकती हैं.

सामाजिक न्याय प्राप्त करना और असमानताओं को दूर करना समय की मांग है. लोगों के आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए गरीबी और बेरोजगारी से लड़ना तत्काल उद्देश्य है. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पहली पंचवर्षीय योजना तैयार करने के दौरान इसके बारे में निर्देश दिया था. यद्यपि भारत 12 पंचवर्षीय योजनाओं और 14 वित्त आयोगों को दशकों से देखता आया है. नीति बनाना और वित्तीय सहायता के परिणाम देश की प्रगति में बाधा बनने वाली असमानताओं को रोकने में परिलक्षित होते हैं.

2005 के बाद से, प्रति व्यक्ति आय भारत के जीडीपी से आगे निकल गई है, जो कि दोगुना हो गया है. जबकि, गरीबों में सबसे गरीबतर की संख्या में कम होकर 27 करोड़ रह गई है. दिलचस्प बात यह है कि एक ही समय में, एक अध्ययन से पता चलता है कि पूरी दुनिया में गरीब से गरीबतर लोगों की संख्या 130 है और 28 प्रतिशत का योगदान भारत का है.

2000-18 के मध्य में, यह ज्ञात हुआ था कि देश के लोगों की औसत आय वृद्धि की तुलना में 40 प्रतिशत निम्न वर्ग के लोगों की आय की दर कम थी. पीढ़ियों से कठिन वित्तीय परिस्थितियों के कारण, देश में गरीब वर्ग कुछ घातक परिस्थितियों सहित प्रसव के समय की समस्याओं का सामना कर रहा है, और बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और अवसरों से वंचित है. परिणामस्वरूप, उनके रहने की स्थिति में सुधार करने के उद्देश्य से बनाई गई योजनाएं निरर्थक साबित हुईं क्योंकि यह एक छेद वाले बर्तन में पानी भरने जैसा था. इसके अलावा प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना से भी गरीबों के जीवन में कोई बेहतर परिणाम और या सुधार नहीं हुआ है.

ऐसी कई योजनाओं के बावजूद, भारत जैसा विकासशील देश गरीबी रेखा से नीचे केवल चार प्रतिशत को पार कर पाया है. अब समय आ गया है कि शासक अपनी भ्रष्ट राजनीति के लिए मात्र साधन यानि गरीबी उन्मूलन के नारे लगाना छोड़कर एक समन्वित मानव विकास लक्ष्य तक पहुंचने के लिए एक कुशल योजना पर ध्यान केंद्रित करें. वास्तविक समस्या की गहराई तक जाए बगैर योजनाओं के नाम पर भारी धनराशि खर्च करने का कोई फायदा नहीं है.

लक्षित समूहों की वास्तविक आवश्यकताओं के विश्लेषण द्वारा आगे बढ़ने से अच्छे परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं. यह नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत सेन के प्रयोगों में साबित हुआ. इसके अलावा, मानव विकास विश्लेषण के हिस्से के रूप में भी असमानताओं की पुष्टि की गई थी.

एक रिपोर्ट में कहा गया है, भारत 162 देशों में 122वें स्थान पर है, जो सामाजिक, वित्तीय और राजनीतिक क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति भेदभाव के मामले में दुनिया भर में फैला हुआ है. जबकि दक्षिण एशिया में 17.1 प्रतिशत विधायक महिलाएं हैं, भारत में केवल 11.7 प्रतिशत महिला सांसद हैं. इसी तरह, केवल 39 प्रतिशत लड़कियां प्राथमिक और ऊंची कक्षा की पढ़ाई कर रही हैं, सिर्फ 27.2 प्रतिशत महिलाएं घरों से बाहर जाकर मजदूरी कर रही हैं.

बॉडी मास इंडेस्कस (बीएमआई) मानदंडों के अनुसार कुपोषण की समस्या और ऊंचाई और वजन में असमानता का सामना करने वाली लड़कियों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है. यह कहने में कोई विवाद नहीं है कि कई पीढ़ियों से, बिना किसी रोक-टोक के सामाजिक भेदभाव मानव विकास सूचकांक में वृद्धि कर रहा है. यद्यपि प्राथमिक शिक्षा देने में सुधार हुआ है, लेकिन उच्च अध्ययनों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में असमानताएं बढ़ती जा रही हैं.

बिना असमानता के सच्चे विकास को तभी पंख लगा सकते हैं जब सरकारें और नागरिक समाज संविधान में वर्णित समान न्याय सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता के साथ काम करें.

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असमानताएं बेड़ियां हैं



हालांकि ऐसा लगता है कि दुनिया विकास की गति पर आगे बढ़ रही है, लेकिन असमानताएं और उनके विशाल अंतराल कहीं और फैलते हुए नई चुनतियां पेश कर रहे हैं. मानव विकास सूचकांक 2030 तक समावेशी विकास तक पहुंचने के लिए लक्षित दुनिया के देशों के लिए खतरा पैदा करने वाली ऐसी ही असमानताओं पर केंद्रित है.

मानव विकास सूचकांक निदेशक ने पिछले मार्च में स्पष्ट किया कि एक कुशल नीति का मसौदा तभी तैयार किया जा सकता है जब सामाजिक, वित्तीय और पर्यावरणीय बदलावों को परिवर्तन के चरणों के आधार पर असमानताओं के बदलते रुझान को दुनिया भर में समझा जाता है. निदेशक ने अप्रत्याशित वित्तीय और पर्यावरणीय मुद्दों का सामना करने और शिक्षा, स्वास्थ्य, सूचना प्रौद्योगिकी और वित्तीय विषमताओं के बारे में जानने के लिए गहन अध्ययन द्वारा मानव विकास प्रक्रिया के एक और कोण का अनावरण करने की घोषणा की.



इस संदर्भ में,  ये ताजा रिपोर्ट भारत का दशकों तक निम्न और मध्यम आय वाले राष्ट्र के रूप में पिछड़े रहने के मूल कारणों का खुलासा करती है. भारत पिछले वर्ष की तुलना में अपनी स्थिति में सुधार करके मानव विकास सूचकांक में 189 देशों में से 129 स्थान पर है. नॉर्वे, स्विटज़रलैंड और आयरलैंड ने मानव विकास के तीन प्रमुख कारकों जैसे जीवन काल, शिक्षा और प्रति व्यक्ति आय में औसत प्रगति हासिल करने में क्रमशः पहला, दूसरा और तीसरा स्थान प्राप्त किया. भारत के पड़ोसी देशों जैसे श्रीलंका (71) और चीन (85) ने भूटान के साथ बेहतर प्रदर्शन किया, (134), बांग्लादेश (135), नेपाल (147) और पाकिस्तान (152) में गिरावट देखी गई है. हालांकि भारत ने दक्षिण एशिया को पीछे छोड़ दिया जिसने 1990-2018 तक 46 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की, असमानताएं और बुरे रिकॉर्ड प्रगति के परिणामों को प्रभावित करते हैं जिन्हें केंद्र और राज्य सरकारें क्षेत्र स्तर पर अनदेखी नहीं कर सकती हैं.

सामाजिक न्याय प्राप्त करना और असमानताओं को दूर करना समय की माँग है. लोगों के आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए गरीबी और बेरोजगारी से लड़ना तत्काल उद्देश्य है. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पहली पंचवर्षीय योजना तैयार करने के दौरान इसके बारे में निर्देश दिया था. यद्यपि भारत 12 पंचवर्षीय योजनाओं और 14 वित्त आयोगों को दशकों से देखता आया है, निति बनाना और वित्तीय सहायता के परिणाम देश की प्रगति में बाधा बनने वाली असमानताओं के रोकने में परिलक्षित होते हैं.

2005 के बाद से, प्रति व्यक्ति आय भारत के जीडीपी से आगे निकल गई है, जो कि दोगुना हो गया है जबकि गरीबों में सबसे गरीबतर की संख्या में कम होकर 27 करोड़ रह गई है. दिलचस्प बात यह है कि एक ही समय में, एक अध्ययन से पता चलता है कि पूरी दुनिया में गरीब से गरीबतर लोगों  की संख्या 130 है और 28 प्रतिशत का योगदान भारत का है.



2000-18 के मध्य में, यह ज्ञात हुआ था कि देश के लोगों की औसत आय वृद्धि की तुलना में 40 प्रतिशत निम्न वर्ग के लोगों की आय की दर कम थी. पीढ़ियों से कठिन वित्तीय परिस्थितियों के कारण, देश में गरीब वर्ग कुछ घातक परिस्थितियों सहित प्रसव के समय की समस्याओं का सामना कर रहा है, और बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और अवसरों से वंचित है. परिणामस्वरूप, उनके रहने की स्थिति में सुधार करने के उद्देश्य से बनाई गई योजनाएँ निरर्थक साबित हुईं क्योंकि यह एक छेद वाले बर्तन में पानी भरने जैसा था. इसके अलावा प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना से भी गरीबों के जीवन में कोई बेहतर परिणाम और या सुधार नहीं हुआ है.

ऐसी कई योजनाओं के बावजूद, भारत जैसा विकासशील देश गरीबी रेखा से नीचे केवल चार प्रतिशत को पार कर पाया है. अन समय आ गया है कि शासक अपनी भ्रष्ट राजनीति के लिए मात्र साधन  यानि गरीबी उन्मूलन के नारे लगाना छोड़कर एक समन्वित मानव विकास लक्ष्य तक पहुँचने के लिए एक कुशल योजना पर ध्यान केंद्रित करें. वास्तविक समस्या की गहराई तक जाए बग़ैर योजनाओं के नाम पर भारी धनराशि खर्च करने का कोई फायदा नहीं है.





लक्षित समूहों की वास्तविक आवश्यकताओं के विश्लेषण द्वारा आगे बढ़ने से अच्छे परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं. यह नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत सेन के प्रयोगों में साबित हुआ. इसके अलावा, मानव विकास विश्लेषण के हिस्से के रूप में भी असमानताओं की पुष्टि की गई थी. एक रिपोर्ट में कहा गया है, भारत 162 देशों में 122 वें स्थान पर है, जो सामाजिक, वित्तीय और राजनीतिक क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति भेदभाव के मामले में दुनिया भर में फैला हुआ है. जबकि दक्षिण एशिया में 17.1 प्रतिशत विधायक महिलाएं हैं, भारत में केवल 11.7 प्रतिशत महिला सांसद हैं. इसी तरह, केवल 39 प्रतिशत लड़कियां प्राथमिक और ऊंची कक्षा की पढ़ाई कर रही हैं, सिर्फ 27.2 प्रतिशत महिलाएं घरों से बाहर जाकर मजदूरी कर रही हैं.

बीएमआई मानदंडों के अनुसार कुपोषण की समस्या और ऊंचाई और वजन में असमानता का सामना करने वाली लड़कियों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है. यह कहने में कोई विवाद नहीं है कि कई पीढ़ियों से, बिना किसी रोकटोक के सामाजिक भेदभाव मानव विकास सूचकांक में वृद्धि कर रहा है. यद्यपि प्राथमिक शिक्षा देने में सुधार हुआ है, लेकिन उच्च अध्ययनों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में असमानताएँ बढ़ती जा रही हैं.

बिना असमानता के सच्चे विकास को तभी पंख लगा सकते हैं जब सरकारें और नागरिक समाज संविधान में वर्णित समान न्याय सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता के साथ काम करें.


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