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मांझी-कुशवाहा और सहनी के बाद कांग्रेस ने भी छोड़ा साथ, क्या महागठबंधन को संभाल नहीं पा रहे तेजस्वी?

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Published : Oct 7, 2021, 10:20 PM IST

बिहार में महागठबंधन के सहयोगी बारी-बारी से आरजेडी (RJD) से अलग होते जा रहे हैं. जिन तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) को इन्हें संभालने की जिम्मेदारी थी, उन्हीं से सबकी नाराजगी है. अब तो आलम ये है कि खुद भाई तेजप्रताप यादव (Tej Pratap Yadav) भी अलग राह पर चल पड़े हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्यों तेजस्वी की अगुवाई में इस कदर बिखराव हो रहा है. पढ़ें खास रिपोर्ट...

Tejashwi Yadav
Tejashwi Yadav

पटना: बिहार में महागठबंधन जिस सियासी मजबूती के साथ चला था और पूरे महागठबंधन के मुद्दों का जो रंग था, वह आज बिखराव के रंग में रंग गया है. कभी तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) जब महागठबंधन के साथ बैठते थे तो उनके साथ उस समय की आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतनराम मांझी, वीआईपी के मुकेश सहनी, कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के साथ-साथ सीपीआई-सीपीएम और सीपीआई (एमएल) के बिहार इकाई के नेता शामिल हुआ करते थे. विपक्ष के नेता के तौर पर तेजस्वी जिस मुद्दे को उठा देते थे, उसे लेकर पूरा विपक्ष सदन से लेकर सड़क तक तेजस्वी के पीछे खड़ा हो जाता था लेकिन आगे की जो राजनीति करनी थी, उसमें कुछ सियासी पिच ऐसे फंस गए कि जो एकजुटता का रंग महागठबंधन का था वह कुछ इस कदर बिखर गया कि अब आरोप तेजस्वी पर ही लगना शुरू हो गया है कि महागठबंधन को एकजुट कर पाने में तेजस्वी यादव फेल रहे हैं. यही वजह है कि महागठबंधन अब बिहार में बिखराव का रंग ले लिया है.

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महागठबंधन के टूटने की कहानी बिहार विधानसभा चुनाव से पहले कोऑर्डिनेशन कमेटी के गठन से शुरू हुई. मुख्यमंत्री के चेहरे पर सियासत शुरू हुई और इस रंग में उस समय के शामिल सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी दलील देना शुरू कर दिया. नरेंद्र मोदी की सियासत से नाराज होकर उनकी कैबिनेट से इस्तीफा देने वाले उपेंद्र कुशवाहा पहले ऐसे मंत्री थे, जिन्हें नरेंद्र मोदी की नीतियां पसंद नहीं आई थी लेकिन लालू यादव उन्हें खूब पसंद आए और महागठबंधन में शामिल हुए लेकिन मुख्यमंत्री के चेहरे और कोआर्डिनेशन कमेटी के नाम पर सबसे पहले तेजस्वी से विभेद की सियासत में उपेंद्र कुशवाहा ने महागठबंधन से नाता तोड़ लिया. क्योंकि वहां तेजस्वी यादव उन मुद्दों पर बात करने को तैयार ही नहीं होते थे, जिन मुद्दों को लेकर कुशवाहा चर्चा करना चाहते थे और यह सियासी विभेद का विषय बन गया.

वहीं, कोआर्डिनेशन कमेटी बनाने के नाम पर जीतनराम मांझी भी कई बार प्रस्ताव रखा, लेकिन आरजेडी की तरफ से कोई जवाब ही नहीं आया या यूं कहा जाए कि तेजस्वी यादव ने उसे तरजीह ही नहीं दी. नतीजा ये हुआ कि मांझी भी अपनी नाव की पतवार बदल ली. उसके बाद सन ऑफ मल्लाह की बारी आई. वे यह चाहते थे कि जाति की सियासत में इतनी बड़ी डुबकी लगा ली जाए कि सियासत की बहुत बड़ी भूमिका खड़ी हो जाए, लेकिन टिकट बंटवारे के दिन जिस तरीके का विभेद खड़ा हुआ कि मुकेश सहनी भी तेजस्वी को गुड बाय कह दिया. उस समय राजनीति में यह कहा जाने लगा कि राजनैतिक अवसरवादिता के कारण ही यह तमाम लोग महागठबंधन में थे लेकिन उसके बाद की जो पटकथा लिखी गई, उनके जाने की कहानी अब राजनीतिक रंग देने लगी है.

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2020 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तो साथ रही कांग्रेस ने 2015 वाली सीट संख्या को तो नहीं पा सकी लेकिन फिर भी महागठबंधन के घटक दल में दूसरी बड़ी पार्टी बनी. सबसे बड़ा फायदा वामदल को हुआ और बड़ा कम बैक करते हुए उसने 16 सीटें जीत ली. माना यह जा रहा था कि नीतीश के विरोध में यह महागठबंधन कड़ी चुनौती देता रहेगा और अगले 5 सालों तक तेजस्वी के नेतृत्व में नीतीश की हर नीतियों का विरोध करेगा. सड़क से लेकर सदन तक हंगामा करेगा, क्योंकि संख्या बल भी बहुत कम नहीं था लेकिन सियासत को शायद कुछ और ही मंजूर था. सियासतदान इसकी तैयारी भी कर रहे थे, जिसमें पार्टियों का समझौता सिर्फ जरूरत के मुद्दे पर टिका था. जैसे ही राजनैतिक जरूरत इन दोनों के पूरे हुए, अपनी-अपनी ढपली अपनी-अपनी राग के फार्मूले पर ये लोग उतर गए. तेजस्वी यादव ने दोनों सीटों पर आरजेडी के उम्मीदवार उतारे तो कांग्रेस नाराज हो गई. बात यहां तक पहुंच गई कि अब कुछ दिनों का ही यह गठबंधन मेहमान बचा है. कांग्रेस और आरजेडी की राहें भी जुदा हो गई और इसके पीछे भी तेजस्वी ही वजह बन गए हैं.

तेजस्वी यादव की सियासत के बिखराव की राजनीति यहीं नहीं रुकी. पहले उपेंद्र कुशवाहा फिर जीतन राम मांझी उसके बाद मुकेश साहनी अब कांग्रेस. यहां तक तो सियासी दल की बात थी, लेकिन तेज प्रताप भी तेजस्वी से नाराज हो गए. यहां परिवार सियासत में आ गया. सवाल यह उठ रहा था कि तेजस्वी यादव का समन्वय अगर बहुत बेहतर था तो इन पार्टियों के लोग छोड़ कर गए क्यों? सियासत में समझौते की बात इसलिए नहीं होती है कि कोई छोटे लाभ के लिए बड़े राजनैतिक घाटा का कोई समीकरण खड़ा कर दिया जाए, लेकिन तेजस्वी यादव यह अभी नहीं समझ पाए. तेजप्रताप यादव और तेजस्वी यादव के बीच जिस तरीके की लड़ाई शुरू हुई है, उसमें तेजप्रताप का वह फॉर्मूला तो फेल ही हो गया कि 'तेज रफ्तार तेजस्वी सरकार'. अब तो तेजप्रताप के लिए राष्ट्रीय जनता दल में जो बातें उठकर आती हैं, वह यही है कि 'तेज रफ्तार तेजस्वी सरकार' की बात तो दूर, अब तेजप्रताप जो भी बोले, वह सब बेकार. एक बड़ी वजह यह भी है कि तेजप्रताप ने राष्ट्रीय जनता दल की राह से अलग जाते हुए नई राजनीतिक दिशा को अख्तियार कर लिया है. इसके पीछे निश्चित तौर पर तेजस्वी यादव ही जिम्मेदार हैं.

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बिहार में दो विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहा है. तारापुर और कुशेश्वरस्थान में जिन्हें टिकट मिला है, वह अपनी सियासी बिसात बिछाने में जुट गए हैं लेकिन महागठबंधन जिस सियासी बिसात को बिछाकर राजनीति का रंग नीतीश कुमार के सामने खड़ा करता था, उसने महागठबंधन की एकजुटता का सियासी रंग तो अब नहीं दिख रहा है. अब तो बिखराव का रंग दिख रहा है, जिसके पीछे और सामने सिर्फ तेजस्वी यादव ही खड़े हैं. क्योंकि पार्टियों का आरजेडी का साथ छोड़कर जाना राजनीतिक फायदे नुकसान के तराजू में तौल कर देखा जा सकता था, लेकिन तेज प्रताप का तेजस्वी का साथ छोड़ देना किस विभेद के रंग के साथ जुड़ा है यह तो सियासत में अपने-अपने तरीके से लोग बताएंगे भी समझाएंगे भी और फायदा भी लेंगे. साथ ही कोशिश भी करेंगे कितना फायदा मिल जाए. सोचना तो तेजस्वी यादव को था कि जो लोग साथ छोड़ कर जा रहे हैं, उन्हें जोड़ लिया जाए और जो नाराज हैं उन्हें मना लिया जाए. जो मान गए उन्हें आदर दे दिया जाए और सियासत के उस चेहरे की राजनीति कर ली जाए. अगर बचा-खुचा कुछ है तो तेजस्वी के साथ आरजेडी की वही सियासत बची है, जो लालू यादव के समर्थन से उनके साथ हैं क्योंकि दूसरे बेटे ने तो अपनी असमर्थता और नाराजगी दोनों जता दी है. अब देखने वाली बात यह होगी कि जिस तरीके से बिखरा हुआ है, उसमें उपचुनाव का रंग क्या होता है और उस चुनाव के बाद सियासत का रंग क्या होगा है?

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