ETV Bharat / state

राजनीतिक सिक्के के दो पहलू: UP में पड़ा था भतीजा भारी, बिहार में चाचा ने दे दी पटखनी

author img

By

Published : Jun 14, 2021, 9:07 PM IST

Updated : Jun 14, 2021, 9:26 PM IST

LJP
LJP

इतिहास गवाह है कि चाचा धृतराष्ट्र ने सत्ता के लिए भतीजे युधिष्ठिर से मुंह फेर लिया, नतीजा महाभारत हुआ. आधुनिक राजनीति में भी सत्ता के संघर्ष में चाचा-भतीजे के बीच लड़ाई होती रहती है. कुछ साल पहले जहां यूपी में शिवपाल और अखिलेश में जोरदार भिड़ंत हुई, वहीं ताजा प्रकरण बिहार का है. जहां चाचा पशुपति ने एक झटके में भतीजे चिराग से पार्टी, पद और पावर छीन लिया.

पटना: बिहार में उत्तर प्रदेश की 4 साल पुरानी राजनीति की पुनरावृति हो रही है. सियासी वर्चस्व के वास्ते फिर चाचा-भतीजे में तलवार खिंच आई है. हालांकि दोनों घटनाओं में एक फर्क है. वहां भतीजा स्थापित हो गए और यहां चाचा ने भतीजे को विस्थापित कर दिया.

यूपी में भतीजे अखिलेश यादव ने बीच रास्ते में चाचा शिवपाल यादव को 'साइकिल' से उतार दिया था, जबकि बिहार में चाचा पशुपति कुमार पारस (Pashupati Kumar Paras) ने भतीजे चिराग पासवान (Chirag Paswan) को 'बंगले' से 'बेदखल' कर दिया है.

ये भी पढ़ें- पटना के LJP कार्यालय का बदला बोर्ड, चिराग के चाचा पशुपति पारस को दिखाया गया पार्टी अध्यक्ष

चाचा ने मार ली बाजी
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. संजय कुमार भी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में चाचा-भतीजी के बीच जंग हुई और वहां भतीजे बाजी मार गए, लेकिन बिहार में उल्टा हुआ. यहां चाचा ने भतीजे को राजनीति के मैदान से आउट कर दिया.

देखें रिपोर्ट

यूपी में चाचा पर भतीजा भारी
यूपी की राजनीति में समाजवादी पार्टी और सूबे के सबसे बड़े सियासी परिवार का 'पॉलिटिकल ड्रामा तब काफी सुर्खियों में रहा था. ये साल था 2016 का, जब अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच मनमुटाव बढ़ता गया और पार्टी और सरकार पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए चाचा-भतीजे की लड़ाई घर से सड़क तक आ गई.

अखिलेश-शिवपाल में रार
अखिलेश और शिवपाल में जारी सत्ता संघर्ष के बीच 30 दिसंबर 2016 को ऐसी भी परिस्थित उत्पन्न हुई कि तत्कालीन अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने बेटे अखिलेश यादव और चचेरे भाई रामगोपाल यादव को पार्टी से निकाला दिया. हालांकि अखिलेश शांत नहीं बैठे और अगले 2 दिन बाद यानी एक जनवरी 2017 को विशेष अधिवेशन बुला लिया. जहां मुलायम की जगह अखिलेश यादव पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए. वहीं, शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया.

चाचा-भतीजे की लड़ाई का नुकसान
चाचा-भतीजे की लड़ाई यहां थमी नहीं. चुनाव के मुहाने पर खड़े प्रदेश में शिवपाल ने अपनी खुद की पार्टी (प्रगतिशील समाजवादी पार्टी) बना ली और अखिलेश के खिलाफ उम्मीदवार उतार दिए. नतीजा ये हुआ कि 11 मार्च को जब परिणाम आए तो सपा की करारी हार हुई. पार्टी को मात्र 47 सीटों पर जीत मिली. अखिलेश यादव का सपा पर तो कब्जा रहा, लेकिन सूबे की सत्ता हाथ से निकल गई. वहीं, चाचा शिवपाल ने हार का ठीकरा अखिलेश पर फोड़ा.

बिहार में चाचा पड़े बीस
अब आते हैं बिहार पर. एलजेपी (LJP) में भी चाचा और भतीजे के बीच की लड़ाई कोई एक दिन की नहीं है. कहा जाता है कि दोनों के बीच मतभेद चिराग की पार्टी पर 'पकड़' के साथ ही शुरू हो गए थे. जो समय के साथ और बढ़ता गया. हालांकि रामविलास पासवान की मौजूदगी के कारण ये कभी खुलकर सामने नहीं आ सका.

मंत्री पद खोने से बढ़ा मतभेद
2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान वैसे तो रामविलास पासवान (Ram Vilas Paswan) ही एलजेपी के अध्यक्ष थे, लेकिन ज्यादातर फैसलों पर मुहर चिराग पासवान की रजामंदी से ही लिए गए. किस सीट से कौन चुनाव लड़ेगा और कौन उम्मीदवार होगा, सब कुछ चिराग ने ही तय किया. बतौर प्रदेश अध्यक्ष पशुपति पारस की राय तक नहीं ली गई.

चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे पारस
जब रामविलास पासवान ने खराब स्वास्थ्य का हवाला देते हुए हाजीपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया तो पशुपति पारस को उम्मीदवार बनाया गया. हालांकि कहा जाता है कि वे चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे, लेकिन चिराग के 'फरमान' के सामने उन्हें 'समझौता' करना पड़ा. चुनाव तो वे जीत गए, लेकिन उनके हाथ से मंत्रालय छिन गया. क्योंकि तब वे बिहार सरकार में पशुपालन मंत्री थे. उनके मन में आज भी ये टीस है.

चाचा का घटा कद
आने वाले समय में कई चीजें तेजी से बदलीं. संगठन में बड़ा बदलाव करते हुए पशुपति पारस के हाथों से प्रदेश अध्यक्ष का पद भी चला गया. उनकी जगह चिराग ने अपने दूसरे चाचा और पूर्व सांसद रामचन्द्र पासवान के बेटे प्रिंस राज को कमान सौंप दी. हालांकि उन्हें दलित सेना के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन कहा जाता है कि वे इससे नाखुश थे.

भतीजे का कद बढ़ा
वहीं, 28 नवंबर 2019 को एलजेपी के स्‍थापना दिवस पर रामविलास पासवान ने अपनी जगह बेटे चिराग को पार्टी की कमान सौंप दी और वे राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष तो वे पहले से थे ही. यहां ये महत्वपूर्ण है कि पशुपति पारस ने तब चिराग को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे पूर्ण समर्थन से पारित कर दिया गया था.

रामविलास के निधन के बाद बढ़ी दूरी
कहा जाता है कि चाचा पारस के मन में भतीजे चिराग को लेकर दूरी बढ़ती जा रही थी, लेकिन रामविलास पासवान के कारण वे कभी खुलकर सामने नहीं आए. लेकिन रामविलास के निधन के बाद धीरे-धीरे ये खाई बढ़ती चली गई. चिराग ने चाचा से राय-मशविरा करना बंद कर दिया और अपने मन की करने लगे.

चिराग का 'नीतीश विरोध' रास नहीं आया
कहा जाता है कि चिराग पासवान ने जब 2020 विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ने का फैसला किया तो पशुपति पारस ने इसकी मुखालफत की. चिराग को बार-बार समझाया कि इससे कोई फायदा नहीं होगा, उल्टे इसका नुकसान हो सकता है. वहीं नीतीश कुमार के 'अति विरोध' के तरीके से भी पारस सहमत नहीं थे.

ये भी पढ़ें- उठ गया परदा! नीतीश के करीबी ललन सिंह ने वीणा देवी के आवास पर LJP के सभी बागी सांसदों से की मुलाकात

'चिराग के फैसले ने एलजेपी को डुबोया'
जिस बात का अंदेशा पशुपति ने चुनाव के दौरान जताया था, आखिरकार वही हुआ. एलजेपी को केवल सीट पर जीत मिली, ज्यादातर सीटों पर पार्टी तीसरे-चौथे और पांचवें स्थान पर रही. कई सारी सीटों पर ज़मानत जब्त हो गई. फायदा महागठबंधन को मिला और एनडीए को नुकसान उठाना पड़ा.

भतीजे को 'नफरत', चाचा को 'प्रेम'
जिन नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को भतीजे चिराग पूरे चुनाव प्रचार के दौरान और उसके बाद भी कोसते रहे, कई सारे निजी हमले भी किए. उन्हीं नीतीश की चाचा पारस ने कई मर्तबे तरफदारी की. उन्हें अच्छा प्रशासन बताया और माना कि नीतीश के सत्ता में आने के बाद बिहार में तेजी से विकास हो रहा है.

चाचा के सामने भतीजा 'बौना'
अपनी उपेक्षा, महीनों की नाराजगी और चिराग के एकतरफा फैसलों ने आखिरकार चाचा को बगावत पर उतारू कर दिया. नतीजा अब सामने है दिल्ली में डेरा डाले चिराग को पता भी नहीं चला और चाचा ने उनके पैर तले की जमीन छीन ली. 6 में से 5 सांसदों को लेकर उन्हें अकेला कर दिया. स्पाकर से मिलकर संसदीय दल के नेता बन गए. चुनाव आयोग के सामने पूरी पार्टी को कब्जाने के लिए अर्जी देने की तैयारी में है.

भतीजे से चाचा मिले तक नहीं
चाचा-भतीजे के बीच खाई कितनी चौड़ी हो गई है, उस इस बात से समझा जा सकता है कि रूठे चाचा को मनाने जब भतीजे उनके आवास पर पहुंचे तो दरवाजा नहीं खोला गया. आधे घंटे तक हॉर्न बजाने के बाद गेट खुला, चिराग अंदर गए लेकिन चाचा से मुलाकात नहीं हो पाई. काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब चाचा नहीं मिले तो चिराग चाची से मिलकर भारी मन से घर लौट आए.

ये भी पढ़ें- चाचा के घर से खाली हाथ लौटे चिराग, वीणा देवी से JDU सांसद ललन सिंह ने की मुलाकात

चाचा-भतीजे की लड़ाई का इतिहास
आजादी के बाद से ही देश की राजनीति में विरासत का जो दौर शुरू हुआ, उसमें पिता-पुत्र से लेकर पिता-पुत्री, ससुर-दामाद से लेकर बहू-सास और चाचा-भतीजे तक शामिल रहे हैं. यूपी में शिवपाल-अखिलेश के अवाले महाराष्ट्र में शरद पवार-अजीत पवार, बाल ठाकरे-राज ठाकरे, गोपीनाथ मुंडे-धनंजय मुंडे, हरियाणा में अभय चौटाला-दुष्यंत चौटाला और पंजाब में प्रकाश सिंह बादल-मनप्रीत बादल समेत कई चाचा-भतीजे राजनीति में हैं, इनमें से ज्यादार के बीच राजनीतिक संबंध अच्छे नहीं रहे हैं.

Last Updated :Jun 14, 2021, 9:26 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.