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RJD कांग्रेस की लड़ाई से लेफ्ट ने बनाई दूरी, उपचुनाव में समर्थन पर चुप्पी ने बढ़ाई बेचैनी

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Published : Oct 7, 2021, 10:54 PM IST

left parties
वामदल

तारापुर और कुशेश्वरस्थान में हो रहे उपचुनाव में सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई एमएल किसी ने भी अपने उम्मीदवार नहीं उतारे. वाम दल पूरे तौर पर चुप हैं. पढ़ें पूरी खबर...

पटना: बिहार विधानसभा की 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव (By Election in Bihar) में 2020 के विधानसभा चुनाव (Assembly election) में सबसे बड़ा कमबैक करने वाले वाम दल पूरे तौर पर चुप हैं. 8 अक्टूबर को नामांकन की आखिरी तारीख है. वामदलों की तरफ से कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारा जा रहा है.

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ऐसी स्थिति में यह माना जा रहा है कि वामदल उपचुनाव के लिए न तो सियासी तौर पर तैयार थे और ना ही सियासत शायद उसके लिए तैयार थी. यही वजह है कि सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई एमएल किसी ने भी उपचुनाव में अपने उम्मीदवार नहीं उतारे. क्योंकि महागठबंधन की कोई बांगी अब बिहार में बची नहीं है. राजद मैदान में है. कांग्रेस भी ताल ठोक चुकी है. ऐसे में कोई एक गठबंधन इसका नेतृत्व कर रहा है ऐसी कोई बात नहीं. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि वामदल है कहां?

2015 में नीतीश कुमार और लालू यादव के गठबंधन के बाद कई राजनैतिक दलों को बिहार की सियासत में जीवनदान मिला. कांग्रेस पार्टी इस तरह से फली फूली कि 35 सालों के जिस शीतकाल में उसकी पूरी सियासत चली गई थी और जिस जमीन और जनाधार की लड़ाई के लिए कांग्रेस जंग कर रही थी उसे अचानक से इतना खाद पानी मिला कि उसकी पूरी सियासी खेती ही लहलहा उठी.

कमोबेश यही स्थिति वामदलों की भी थी. जेपी आंदोलन के बाद जिस तरीके से वाम दल की सियासत बिखर गई और मंडल कमीशन ने बची खुची राजनीतिक आधार की धज्जियां उड़ा दी. मजबूरन छोटे राजनीतिक दलों के पीछे वाम दलों को बैठना पड़ गया. 2015 के बदले राजनीतिक हालात में वाम दल को भी जगह मिली. नीतीश वाली सियासत में एक बार वे भी कमबैक कर गए. 2020 की राजनीति में नीतीश के हट जाने के बाद अगर सबसे बड़ा फायदा किसी को हुआ तो वे वाम दल थे. जो वामदल 2015 में 3 सीट जीत पाए थे. 2020 में 16 सीटें जीतकर सबसे दमदार और दबदबे वाली पार्टियों के रूप में कमबैक किया.

माना जा रहा था कि नेतृत्व तेजस्वी यादव का था. नीतियां महागठबंधन की थी. इसलिए वामदल इतनी मजबूती से उभरकर सामने आए. लेकिन जिस तरीके से तेजस्वी की नीति बदली और एक-एक कर सभी राजनैतिक दल किनारे हुए, कांग्रेस ने नाता तोड़ लिया, सियासी समझौता दूसरे किनारे पर चला गया. ऐसे में वामदलों की राजनीति क्या होगी यह 2 विधानसभा सीटों के लिए हो रहे उपचुनाव में चर्चा का विषय है.

दरअसल, मंडल कमीशन के बाद वामदलों के जमीनी आधार पर बिहार में लालू यादव ने कब्जा कर लिया. बिहार में जिस तरीके की नक्सल वारदातें हुई उसमें नक्सली साहित्य सामाजिक व्यवस्था के लिए काला धब्बा साबित हो गया. बिहार में कई ऐसे नरसंहार भी देखें, जिसने मानवता की रूहें हिला दी थी. इसी वजह से वामदलों की पूरी सियासत मटियामेट हो गई.

2015 की सियासत के बाद बिहार में वामदलों को उम्मीद जगी थी कि वे कमबैक कर सकते हैं. विवादित ही सही लेकिन देश भक्ति के जिस नारे के साथ कन्हैया कुमार वामदल के पास आए थे उन लोगों ने कन्हैया को तो नहीं स्वीकार किया जो देश की वास्तव में भक्ति करते हैं. क्योंकि टुकड़ों-टुकड़ों की बात करके टुकड़े-टुकड़े में बैठे वामदल एक नहीं हो सकते थे. यह सबको पता था, लेकिन कन्हैया को अपनी राजनीति करनी थी. कन्हैया कुमार को भी यह लग गया कि पश्चिम बंगाल के चुनाव में जिस तरह का परिणाम आना चाहिए था वह वामदल के हिस्से में नहीं आया. बिहार की बदलती राजनीतक हवा और वामदलों पर लगे आरोपों की सियासत से बाहर निकलना ही कन्हैया ने उचित समझा और कांग्रेस का हाथ थाम लिया.

बिहार में 2 सीटों पर हो रहा उपचुनाव कई सियासी मापदंड खड़ा कर गया है. कांग्रेस और राजद के गठबंधन को अलग कर गया. अब वामदल को यह समझ ही नहीं आ रहा है करें क्या. माना यह भी जा रहा है कि 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में कांग्रेस और राजद अगर दोनों की लुटिया डूबी तो मजबूरी की सियासत करने फिर दोनों लोग एक मंच पर आ जाएंगे. क्योंकि दोनों के राजनीतिक आधार जाति समीकरण के साथ खड़े हैं. वाम दल इस सियासत में बिल्कुल अलग है.

बिहार में जमीन और जनाधार वाम दल के पास बहुत मजबूत बचा नहीं. नेता और नेतृत्व के नाम पर उसके पास बची खुची पुरानी राजनीति है. नए चेहरे के नाम पर कन्हैया आए जरूर थे, लेकिन कांग्रेस का दामन पकड़ लिए. विरोध का कमान वामदल के लिए कांग्रेस के साथ यह भी है कि अगर कांग्रेस मजबूत होगी तो वाम दल के नेता ही तोड़े जाएंगे. क्योंकि तेजस्वी को तोड़ना कांग्रेस के लिए अभी टेढ़ी खीर होगी, लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह अंतिम सत्य है.

ऐसे में वाम दलों के लिए चिंता यही है कि अगर वे कांग्रेस के साथ जाते हैं तो कांग्रेस पता नहीं उसके कितने कान्हा को कन्हैया बना देगी और अपने तरकस का पीर बना लेगी. दर्द यही वाम दल का है कि अगर यह आदत लग जाती है तो क्या होगा. क्योंकि कोई एक निश्चित समझौता तीनों वामपंथी पार्टियों पर लागू नहीं होता. सीपीआई जो कहेगी, सीपीआईएमएल मानने को तैयार नहीं और सीपीएम उनके साथ चलने को तैयार नहीं. इसके लिए नेतृत्व में एक महागठबंधन का होना जरूरी है. जो तीनों राजनीतिक दलों को एकजुट रखे.

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