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अपनी ही किलेबंदी में उलझी कांग्रेस, पंजाब हो या बिहार असहाय दिख रहा आलाकमान

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Published : Aug 27, 2021, 10:04 PM IST

विवाद कांग्रेस में एक परिपाटी सा बनता जा रहा है, जिससे अब कोई राज्य अछूता नहीं रहा. पंजाब और हरियाणा की राजनीति समझ नहीं आ रही. यही राजनीति बिहार में भी उलझी हुई है. पढ़ें पूरी खबर...

politics of factionalism in congress
कांग्रेस में गुटबाजी

पटना: कांग्रेस (Congress) अपनी राजनीति को जितना सुलझाने में लगी है उनके नेता सियासत में उसे उतना ही उलझाते जा रहे हैं. नेतृत्व को लेकर जिस तरीके की किलेबंदी में कांग्रेस उलझ गई है उसमें शायद ही कोई ऐसा राज्य है जहां पर विवाद नहीं हो रहा है. पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) ने कह दिया कि अगर ठीक ढंग से चीजें नहीं हुईं तो ईंट से ईंट बजा देंगे.

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विवाद कांग्रेस में एक परिपाटी सा बनता जा रहा है, जिससे अब कोई राज्य अछूता नहीं रहा. पंजाब और हरियाणा की राजनीति समझ नहीं आ रही. यही राजनीति बिहार में भी उलझी हुई है. कांग्रेस आलाकमान को यह समझ ही नहीं आ रहा है कि आखिर इस राजनीति को सुलझाया कैसे जाए. क्योंकि हर कोई जैसा चाहे वैसा बयान देता जा रहा है.

सिख राजनीति का असर बिहार की सियासत में पड़ता है. पंजाब और हरियाणा से बिहार का सीधा लगाव है. बिहार के लोग पंजाब में खेती करते हैं. वहां की इकोनॉमी चलाते हैं. गुरु गोविंद सिंह के नाते पंजाब और हरियाणा की सीधी राजनीति बिहार से टिकी होती है. यही वजह है कि गुरु गोविंद सिंह के 350वें प्रकाश पर्व पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस तरीके का आयोजन किया था वह पूरे देश में चर्चा का विषय बना.

जब सियासत की बात आई, नरेंद्र मोदी के विरोध में जिस थर्ड फ्रंट को बनाने के लिए नीतीश कुमार जमीन पर उतरे थे उसमें पंजाब और हरियाणा की भी सियासत काफी जोर पर थी. कांग्रेस की बात करें तो कांग्रेस को नेतृत्व देने के लिए दूसरे राज्यों की भूमिका काफी अहम रही है. राज्य प्रभारी के तौर पर सीपी जोशी की बात हो या फिर सचिन पायलट की या वर्तमान में भक्त चरण दास की. यह सियासत पंजाब और हरियाणा के उस रंग को छोड़ देती है जो बिहार के सदाकत आश्रम में नई राजनीति की शुरुआत के लिए तय होती है.

बात तारीखों में करें तो 2015 में अनिल कुमार सिन्हा कांग्रेस के अध्यक्ष थे. बिहार के प्रभारी मंच पर मौजूद थे, लेकिन अनिल कुमार सिन्हा को ढकेल कर कुर्सी से गिरा दिया गया. मारपीट भी हुई. 8 अक्टूबर 2017 को अशोक चौधरी प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे. सीपी जोशी प्रदेश प्रभारी थे. उनके सामने पूरा सदाकत आश्रम लड़ाई का मैदान बना. उसे रोकने के लिए कई थानों की पुलिस भी बुलाई गई थी.

14 नवंबर 2000 और 12 जनवरी 2021 को भक्त चरण दास की उपस्थिति में ही पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच जमकर मारपीट हुई. मंच पर कुर्सियां फेंक दी गईं. इसमें कई नेता और कार्यकर्ता घायल हुए, लेकिन बचाव में बातें सिर्फ यही कही गईं कि पार्टी परिवार की तरह है. ऐसी बातें होतीं रहतीं हैं.

कांग्रेस एक चीज रोकती है तो दूसरी चीज शुरू हो जाती है. हरियाणा और नवजोत सिंह सिद्धू से बिहार का प्रसंग इसलिए भी जुड़ रहा है कि बिहार में प्रदेश अध्यक्ष की खोज शुरू हो गई है. वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा का कार्यकाल अगले महीने समाप्त हो रहा है, लेकिन कांग्रेस सभी राज्यों में जिस तरीके से उलझी है बिहार में मामला सुलझाना उसके लिए आसान नहीं होगा. क्योंकि बिहार के सदाकत आश्रम में कई तारीखे ऐसी हैं, जिनमें कांग्रेस के नेताओं ने अपने आचरण से कांग्रेस के इतिहास में अपने कारनामों को स्वर्ण अक्षरों में अंकित किया है और यही डर कांग्रेस के आलाकमान को सता रहा है.

पूरे देश में कांग्रेस अपनों की बीच की लड़ाई में फंस गई है. बात राजस्थान में गहलोत बनाम पायलट की हो या फिर एमपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया से टूट जाने के बाद सरकार गंवा देने की. छत्तीसगढ़ में चल रहे वर्तमान विवाद की बात हो या फिर कैप्टन बनाम नवजोत सिंह सिद्धू की. कांग्रेस के आंतरिक राजनीति में कलह इतना ज्यादा हो चुका है कि किसी भी राज्य में कांग्रेस जब कार्यकारिणी के तहत कुछ करने पर आती है तो उसकी पूरी लोकतांत्रिक मूल्य और मर्यादा ही भटक जाती है.

बिहार में भी एक सियासत इसी तरह से चल रही है. अगर मदन मोहन झा को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया जाता है तो नया प्रदेश अध्यक्ष कौन होगा इसकी खोज जारी है. यह अलग बात है और शायद कहा भी जाए कि बिहार में ऐसा कुछ नहीं होगा जो बयानों में नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन के बीच चल रहा है, लेकिन हो जाए तो फिर आलाकमान के पास उपाय क्या है? क्योंकि बात अशोक चौधरी की करें तो जब उन्हें अध्यक्ष पद से हटाया गया था तो 8 महीने तक कांग्रेस बिहार में अध्यक्ष ही नहीं खोज पाई थी.

चर्चा इसलिए भी है कि बिहार में सबसे बड़े राजनीतिक जनाधार को लेकर लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी आज जिस जगह खड़ी है वहां जनता के सामने उसे खुद को पेश करने के लिए बहुत सही रास्ता दिखता नहीं है. 2020 की सियासत में जो कुछ हुआ उसके बाद 21 में धीरे-धीरे कांग्रेस पटरी पर तो आ रही थी, लेकिन पांच राज्यों में होने वाले चुनाव और खास तौर से पंजाब में जिस तरीके से अपनों में ही कैप्टन बनाम सिद्धू हो रखा है दूसरे राज्यों में भी यह सिद्ध हो जाए यह डर कांग्रेस आलाकमान को परेशान कर रहा है.

अब देखने वाली बात यही होगी कि कांग्रेस पार्टी कितनी जल्दी सिद्धू को साध लेती है. क्योंकि कहा यह भी जाता है कि कोहरे को देखकर कोहरा रंग बदलता है और कहीं यह कहानी पंजाब-हरियाणा होते हुए दिल्ली से पटना पहुंची तो कांग्रेस की सियासत कि सेहत के लिए ठीक नहीं होगा. क्योंकि बिहार में कांग्रेस के लिए बहार जैसी स्थिति इसलिए नहीं है कि यहां नीतीश कुमार हैं. कांग्रेस को गंभीरता से सोचना पड़ेगा.

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